वे चल पड़े हैं दिल्ली को,
उन्होंने चलना सीख लिया है..!
जो घर में अब तक बैठे थे,
उन्होंने लड़ना सीख लिया है..!
वे चल पड़े हैं दिल्ली को,
उन्होंने चलना सीख लिया है..!
उन्हें अपनी ताकत का अहसास नहीं था,
करने को कुछ खास नहीं था..!
गुरुओं ने जो पाठ सिखाए,
अब उन्होंने पढ़ना सीख लिया है..!
वे चल पड़े हैं दिल्ली को,
उन्होंने चलना सीख लिया है..!
मज़हब नहीं सिखाता,
आपस में वैर रखना..!
इस बात को वे समझ गए,
साथ वे भी आ मिले,
जो रास्ता थे भटक गए..!
हल पकड़ते हाथों ने,
अब परचम पकड़ना सीख लिया है..!
वे चल पड़े हैं दिल्ली को,
उन्होंने चलना सीख लिया है..!
वे शांत बैठे थे अपने घर में,
रूखी सूखी खा लेते थे..!
सब्र शुक्र बहुत था उनमें,
गुरू की वाणी गा लेते थे..!
पर ज़मीन पे उनकी जब डाली नज़र,
तब पढ़ना उन्होंने छोड़ दिया है..!
वे चल पड़े हैं दिल्ली को,
उन्होंने चलना सीख लिया है..!
हुक्मरान ये भूल गए,
वाणी में चंडी का वार भी है..!
एक हाथ में गर हल है उनके,
तो दूजे हाथ तलवार भी है..!
सरहदों के इन रखवालों ने,
अब किले पे चढ़ना सीख लिया है..!
वे चल पड़े हैं दिल्ली को,
उन्होंने चलना सीख लिया है..!
वे शहादत देते आए हैं,
उन्होंने अमर तराने गाए हैं..!
आतंकवादियों से वे डरे नहीं,
उन्होंने अपने बहुत गंवाए हैं..!
मज़हब उनके लिए इबादत है,
नफरत की चीज़ नहीं..!
भूखा अगर कोई सोया है,
तो वे भी न सोने पाया है..!
हक के लिए अपने,
अब उन्होंने खड़ना सीख लिया है..!
वे चल पड़े हैं दिल्ली को,
उन्होंने चलना सीख लिया है..!
वे चल पड़े हैं दिल्ली को,
उन्होंने चलना सीख लिया है..!
- मनमोहन सिंह
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