राजीव रंजन आजाद, राइट्स कलेक्टिव
राइट्स कलेक्टिव एक गैर सरकारी संस्था है जो वर्ष 2004-05 से बिहार के विभिन्न क्षेत्रों में सक्रियतापूर्वक सामाजिक कार्यों को संचालित कर रही है. संस्था द्वारा मुख्य रूप से बच्चों एवं महिलाओं के अधिकार एवं उनके विकास के विविध आयामों के लिए कार्य किया जाता है. संस्था महिलाओं एवं बच्चों के होने वाले व्यापार (चाइल्ड एवं वुमेन ट्रैफिकिंग) को रोकने के लिए निरंतर गतिशील है. संस्था अनाथ बच्चों, वृद्धों, विधवाओं एवं रेड लाईट एरिया की महिलाओं के लिए निरंतर कार्यक्रमों का संचालन अपने लक्षित क्षेत्र में कर रही है.संस्था द्वारा बच्चों में सर्वांगीण विकास के लिए भारत सरकार के साथ मिलकर विज्ञान लोकप्रियकरण हेतु विविध गतिविधियों का संचालन राज्य के विभिन्न जिलों में किया जा रहा है. ग्रामीण स्तर पर विज्ञान व्याख्यानमाला, वाद-विवाद, श्रव्य-दृष्टि साधनों की सहायता से विज्ञान प्रदर्षनियों एवं मेलों का आयोजन किया जाता है.
संस्था द्वारा विज्ञान तथा समाज से संबंधित क्षेत्रों में अनुसंधान तथा प्रकाषन की प्रक्रिया सतत जारी है. समाज की आर्थिक प्रगति एवं विकास के लिए वैज्ञानिक तथा प्रौद्योगिकी ज्ञान का समुचित उपयोग के लिए निरंतर प्रयास किया जा रहा है. इसके अलावे संस्था पर्यावरण एवं ऊर्जा संरक्षण हेतु गतिविधियों का आयोजन निरंतर कर रही है. सड़क सुरक्षा, युवाओं के लिए रोजगारोन्मुखी प्रशिक्षण, पंचायती राज को सशक्त बनाना भी संस्था के मुख्य ध्येय में शामिल है.
लोककला संस्कृति किसी भी समाज में गहराई तक व्याप्त उन तत्त्वों के समग्र रूप का नाम है, जो उस समाज के आचार-विचार, क्रिया-कलाप, कलाओं जैसे-नृत्य, संगीत, साहित्य, वास्तुकला आदि में परिलक्षित होती है. एक सामाजिक प्राणी होने के कारण मनुष्य विविध सामाजिक गतिविधियों से सम्बद्ध रहता है. इन गतिविधियों में अनेक ऐसी विशिष्ट गतिविधियां होती हैं, जो किसी समाज विशेष की पहचान बन जाती हैं.
इस सन्दर्भ में कला एवं संस्कृति का नाम लिया जा सकता है. प्रत्येक मानव-समाज में विशिष्ट प्रकार की कला एवं संस्कृति पाई जाती है. कला-मानव मन की संवेदनाओं, भावनाओं और बुद्धि को प्रभावित करने वाली वह प्रक्रिया है, जो किसी कार्य अथवा वस्तुओं को विशिष्ट प्रकार से व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करे, कला कही जाती है. कला के दो रूप होते हैं-
- ललित कला, एवं
- उपयोगी कला.
ललित कला- ललित कला के अन्तर्गत कला का वह रूप शामिल होता है, जिससे सौन्दर्य की अनुभूति, आनन्द की प्राप्ति, आत्मा का विकास तथा मानव की चेतना सक्रिय होती है. ललित कला के पांच रूप हैं, जो निम्न हैं –
- वास्तुकला
- चित्राकला
- मूर्तिकला
- संगीत कला
- काव्य कला
उपयोगी कला- कला के इस रूप के अन्तर्गत वे कलाएं सम्मिलित की जाती हैं, जो हमारी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति से सम्बन्धित हैं, जैसे- वस्त्र, आभूषण, खान-पान, रहन-सहन आदि.
बिहार में कला
कला किसी भी क्षेत्र के सांस्कृतिक जीवन की पहचान होती है. बिहार की कलात्मक सम्पदा प्राचीन, बहुआयामी एवं समृद्ध है. कला, संस्कृति और विज्ञान एवं तकनीकी के महत्वपूर्ण पहलुओं को यह सूबा अपने ऐतिहासिक आंचल में हजारों वर्षों से समेटे हुए है. आदिमानव की कला के साक्ष्य बिहार में पूर्व ऐतिहासिक काल से ही देखे जा सकते हैं.
बिहार में लोक कला
बिहार में लोककला एवं संस्कृति एक जीवित वास्तविकता है. एक वास्तविकता जो दूर-दराज के गांवों में भी महसूस की जा सकती है. प्राचीन बिहार शक्ति, शिक्षा, परंपरा और संस्कृति का केंद्र था. बिहार की समृद्ध ऐतिहासिक परंपरा विभिन्न लोक रूपों के प्रचुर प्रदर्शनों के साथ मिलती है. गीत, नृत्य, शिल्प और चित्रों के विविध रूप हमारे जीवन से जुड़े हुए हैं और त्योहारों की एक पूरी श्रृंखला के माध्यम से मनाए जाते हैं.
बिहार के प्रमुख लोक नाटक
- विदेशिया- इस नृत्य की शुरुआत बीसवीं सदी से हुई थी. विदेशिया नृत्य शैली का पिता भिखारी ठाकुर को माना जाता है, जिसमें समाज के विरोधी मुद्दे को उठाया जाता है, जैसे गरीबी-अमीरी, ऊंच-नीच आदि. इस नृत्य में महिला पात्र की भूमिका भी पुरुष कलाकार ही करते हैं.
- डोमकच-यह पूर्णतः महिलाओं के द्वारा किया जाने वाला लोक नाटक है. यह हास-परिहास से परिपूर्ण पारिवारिक उत्सव के मौकों पर किया जाता है.
- जट-जटिन-जट नाटक केवल अविवाहितों के द्वारा ही किया जाता है. यह लोक नाटक जट-जटिन के दांपत्य जीवन से संबंधित होता है.
- सामा चकेवा-इस लोक नाटक में जो पात्र होते हैं उनको मिट्ट्टी से बनाया जाता है. सामा चकेवा लोकनाट्य में प्रश्न उत्तर के रूप में गीतों को गाया जाता है और इस लोक नाटक के विषय-वस्तु को क्रमबद्ध रूप से प्रस्तुत किया जाता है. इसे केवल बालिकाओं के द्वारा ही किया जाता है.
- कीर्तनीय-यह लोकनाट्य में भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन कीर्तन-भक्ति गीतों के माध्यम की जाती है. इसमें भगवान श्रीकृष्ण के जीवन से जुड़ी हुई घटनाओं को काफी भावपूर्ण अभिनय के द्वारा प्रस्तुत किया जाता है.
- भकुली बंका-इस लोक नाटक में जट-जटिन के रूप में ही नृत्य किया जाता है. भकुली बंका जट जटिन के साथ ही मनाया जाता है.
बिहार के लोक नृत्य
- छऊ नृत्य-यह नृत्य मुख्य रूप से पुरुषों द्वारा किया जाता है, जो युद्ध से संबंधित होता है.
- करमा नृत्य-‘करम देवता’ को प्रसन्न करने के लिए बिहार की आदिवासी जनजातियों द्वारा फसलों की कटाई एवं बुआई के समय यह नृत्य किया जाता है.
- कठघोड़वा नृत्य-इस नृत्य को नर्तक के द्वारा अपनी पीठ पर से बांस की खपचियों से बना घोड़े के आकार का ढांचा बांधकर किया जाता है.
- धोबिया नृत्य-धोबिया नृत्य बिहार के धोबी समाज का प्रमुख नृत्य माना जाता है.
- पवड़िया नृत्य-पुरुषों द्वारा स्त्रियों की वेशभूषा में किया जाने वाला नृत्य पवड़िया नृत्य कहलाता है.
- जोगिया नृत्य-यह नृत्य होली के अवसर पर पुरुषों एवं महिलाओं के द्वारा किया जाता है.
- झिझिया नृत्य-इस नृत्य को दुर्गा पूजा के अवसर पर किया जाता है.
- खीलडीन नृत्य-इस नृत्य को विशेष अवसरों पर अतिथियों के मनोरंजन हेतु किया जाता है.
- लौंडा नृत्य-इसमें लड़का ही लड़की का रूप धारण कर पूरे श्रृंगार के साथ नृत्य करता है.
- झरनी नृत्य-झरनी नृत्य मोहर्रम के अवसर पर मुस्लिम नर्तकों के द्वारा शोक गीत गाते हुए किया जाता है.
- विद्यापति नृत्य-इस नृत्य में कवि विद्यापति के पदों को गाते हुए सामूहिक रूप से नृत्य किया जाता है.
- कजरी नृत्य-इस नृत्य को मुख्यतः मानसून के समय किया जाता है. इसके माध्यम से बारिश के द्वारा कैसे पृथ्वी पर लोग खुश हुए इसका वर्णन किया जाता है.
- करिया झूमर नृत्य-यह नृत्य महिलाओं के द्वारा किया जाता है. इसमें महिलाएं एक दूसरे के हाथों में हाथ डालकर चारों तरफ गोल-गोल घूमती हैं.
बिहार के प्रमुख लोकगीत
भारत में क्षेत्रयता के आधार पर लोकगीतों का स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है. प्रत्येक राज्य में लोकगीतों की अलग-अलग परंपरा रही है. यह पर्व-त्योहार, शादी-विवाह, जन्म, मुंडन, जनेऊ आदि अवसरों पर गाए जाते हैं.
- संस्कार गीत-यह गीत जन्म से लेकर मरण तक सभी प्रमुख अवसरों पर गाए जाते हैं जो हर्ष, उल्लास और शोक से भरे होते हैं. पुत्र जन्म के अवसर पर ‘सोहर गीत’ गाए जाते हैं. पवड़िया द्वारा बच्चे के जन्म की बधाई गीतों के द्वारा दी जाती है. संस्कार गीतों में सर्वाधिक गीत विवाह गीतों के अंतर्गत आते हैं. ‘डोमकछ’ एक नाट्य लोकसंगीत है, जिसका गायन विवाह के अवसरों पर वर पक्ष की स्त्रियों के सम्मिलित सहयोग से होता है. पुत्र की विदाई के समय विशिष्ट शैली का गीत गाया जाता है.
- पर्वगीत-बिहार में मुख्य रूप से दीपावली, छठ, तीज, नागपंचमी, गोधन, निहुरा, मधुश्रावणी, रामनवमी, कृष्णाष्टमी आदि त्योहार उल्लास से मनाये जाते हैं. छठ पर्व बिहार के प्रमुख त्योहारों में से एक है, जिसमें सूर्य की आराधना गीतों के द्वारा की जाती है.
- जाति संबंधी गीत- सामाजिक व्यवस्था में हर वर्ग एवं जातियों का विशेष महत्त्व है. प्रत्येक जातियों के अलग-अलग कुलदेवता हैं, जिनकी वीरतापूर्ण गाथाओं से युक्त लोकगीत जातीय गीतों की श्रेणी में आते हैं. प्रत्येक जाति के गीत अलग-अलग विशिष्टताओं से युक्त है.
- पेशा गीत-किसी कार्य के संपादन के समय जो गीत गाए जाते हैं, वे श्रम गीत, व्यवसाय गीत या क्रिया गीत की कोटि में आते हैं. जैसे-बिहार में चक्की चलाकर आटा पीसने के समय स्त्रियों द्वारा ‘लगनी’ गाई जाती है.
- बालक्रीड़ा गीत-बाल-जीवन से संबद्ध गीतों को बाल गीत या शिशु गीत कहते हैं. बच्चों के उबटन लगाने के गीत ‘अपटोनी गीत’ हैं.
- भजन या श्रुति गीत-देवी-देवताओं की आराधना से संबंद्ध गीत भजन या श्रुति गीत की श्रेणी में आते हैं. इन गीतों का धार्मिक एवं आध्यात्मिक महत्त्व के साथ-साथ मांगलिक महत्त्व भी है. इनमें ईश्वर के सगुण एवं निर्गुण दोनों रूपों का वर्णन मिलता है.
- ऋतुगीत-मौसम में परिवर्तन के अनुसार ऋतुगीत गाने की परंपरा है. फगुआ, चैता, कजरी, हिंडोला, चतुर्मासा और बारहमासा आदि गीत ऋतुगीत कहलाते हैं. ऋतुगीतों में बारहमासा गीत बहुत लोकप्रिय है जिन्हें वर्ष के बारह महीनों का वर्णन रहता है.
- गाथा गीत-यह गीत वीर नायकों की वीरता की स्मृति में गाए जाने वाले गीत हैं. इन गाथा गीतों में करुण, वात्सल्य और श्रृंगार रस का भी समावेश होता है. बिहार में नयका बंजारा, मीरायन, राजा हरिचन (हरिश्चंद्र), लोरिकायन, दीना भदरी, चूनाचार, छतरी चौहान, धुधली-घटमा, विजयमल, सहलेस, राजा विक्रमादित्य, हिरणी-बिरणी, कुंवर ब्रजभार, अमर सिंह बरिया जैसे गाथा गीत गाए जाते हैं.
- विशिष्ट गीत-इसके अंतर्गत पीड़िया के गीत, पानी मांगने के गीत, झूमर-झूले के गीत, बिरहा, जोगा, सांपरानी आदि गीत गाए जाते हैं.
- विविध गीत-इसके अंतर्गत झिझिया के गीत, झरनी के गीत, नारी स्वतंत्राता का गीत, समाज-सुधार के गीत आदि आते हैं. पूर्वज गीत, झूमर, विदेशिया, बटोहिया, मेलों का गीत, तिरहुति, बटगमनी, नचारी, महेशवाणी, संदेश गीत, मंत्र गीत, आंदोलन गीत इस श्रेणी के गीत हैं. खेतों में धान रोपते समय कृषकों द्वारा गाए जानेवाला गीत ‘चांचर’ कहलाता है. कहीं-कहीं इसका नाम रोपनी गीत भी है.
उमंग का उद्देश्य
‘लोक कला के माध्यम से सामाजिक बदलाव की पहल-उमंग’ का मुख्य उद्देश्य नवाचार, अन्वेषण एवं वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देना है. साथ ही अंधविश्वास, अशिक्षा, कुपोषण, प्रदूषण जैसी समस्याओं की तरफ समाज का ध्यान आकृष्ट करवाकर समस्या से निजात दिलाना है. साथ ही स्वच्छता, स्वास्थ्य एवं पोषण जैसे मुद्दों पर जागरूक करना है. सामुदायिक विकास को लोककला (कठपुतली) जैसे कम खर्चीले, सुविधाजन माध्यम से वातावरण तैयार करना है. संस्था इस गतिविधि द्वारा एक ऐसे समाज का निर्माण का प्रयास करेगी जो सशक्त, जागरूक, सूचना से समृद्ध हो.
लक्षित समुदाय
गतिविधि में मुख्य रूप से विज्ञान संचारक, छात्रा, लेखक, परंपरागत कलाकार, ग्रामीण एवं सामाजिक कार्यकर्ता आदि शामिल हैं.
लक्ष्य
कार्यक्रम द्वारा विज्ञान संचारकों की एक ऐसी टीम तैयार की जाएगी, जो समाज में फैले अंधविश्वास, सामाजिक कुरीतियां को दूर करते हुए स्वास्थ्य, पोषण, पर्यावरण संरक्षण जैसे विषयों को वैज्ञानिक तरीकों का उपयोग करते हुए जनमानस तक पहुंचाएगी. कार्यक्रम में खुद करके सीखने की प्रवृति को बढ़ावा देते हुए नीरस एवं बोझिल विषयों को लोक कला के माध्यम से रोचकता के साथ प्रस्तुत करना है.
चूंकि खगड़िया अतिपिछड़ा, अविकसित एवं अशिक्षित क्षेत्र है. इस क्षेत्र में लोककला (कठपुतली) जो संचार का काफी पुराना, सस्ता, सहज एवं सशक्त माध्यम है, के द्वारा सूचनाओं का प्रेषण वैज्ञानिक तरीके से करना है. इसके द्वारा तकनीकी ज्ञान को सहजता से प्रस्तुत किया जाएगा एवं लोगों को व्यवहार परिवर्तन के लिए प्रेरित किया जाएगा.
गतिविधियां
लक्षित समुदाय को कार्यशाला के माध्यम से लोक कला से परिचित करवाकर उनको लोककला संचार प्रक्रिया में पूरी तरह प्रशिक्षित करना है. इसके साथ ही उनसे वाह्य गतिविधियां (आउटरिच एक्टिविटी) का भी आयोजन करवाना है ताकि भविष्य में अपने समाज एवं क्षेत्र में वह अपने हूनर का प्रदर्शन कर लक्षित समूहों का मानसिक क्षमता का विकास कर सकें एवं एक बेहतर समाज का निर्माण में अपनी भूमिका का निर्वहण कर सकें.
लोककला (कठपुतली) के माध्यम से विज्ञान संचार
कठपुतली नृत्य भारत की पौराणिक लोक विधा है, जिसके माध्यम से लोक कलाकार लोक गीतों का गायन एवं मंचन किया करते हैं. मनोरंजन की यह पुरानी विधा अब विलुप्त होने के कगार पर है. मनोरंजन एवं संदेश संप्रेषण की यह सशक्त विधा समाप्त नहीं हो इसके लिए भारत सरकार की राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग, नई दिल्ली देश में विज्ञान के संचार के क्षेत्रा में सक्रिय स्वयंसेवी संस्थाओं को उत्प्रेरित एवं संपोषित कर श्रृखंलाबद्ध कार्यशाला आयोजित कर रही है. जिसमें सामाजिक कार्यकर्ता, छात्र-छात्रा, शिक्षक, रंगकर्मियों सहित युवाओं को कठपुतली बनाने एवं चलाने की कला सिखायी जाती है.
वहीं कुपोषण, अंधविश्वास, पर्यावरण, खाद्य पदार्थ में मिलावट की पहचान, ऊर्जा संरक्षण सहित अन्य विषयों पर 20-40 मिनट का विज्ञान नाटक लिखने एवं प्रदर्शित करने की कला भी सिखायी जाती है, जिससे एक तरफ सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ जन-जागरूकता का माहौल बनाया जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ विलुप्त हो रही विधा भी संरक्षित हो रही है.
कठपुतली बनाने की विधि
एक बैलून लें, उसमें हवा भरकर बांध दें (आकार क्रिकेट की गेंद के आस पास). उस पर अखबार के कागज के कतरन का फेवीकोल से चार परत चिपकाना है, इसके उपरांत धूप में सुखने के लिए देना है. जब पूरा सुखकर कड़ा हो जाये तो एक कड़ा कार्डबोर्ड से पपेट का गर्दन बनाकर धागा जिस ओर बंधा है, उधर से नली बनाकर चिपका देना है. इसके उपरांत मैथी के पाउडर को पानी में गले अखबार में मिलाकर उसे पेस्ट बनाना है. तब जाकर गुब्बारे के उपर बड़ी बारिकी से लेप चढ़ा देना है. उसी दौरान पेस्ट से ही नाक, भौंह, कान, ओंठ आदि बनाकर धूप में सुखा देना है, जिस से वह कड़ा हो जाता है.
ध्यान देने वाली बात यह है कि नली पर लेप नहीं चढ़ाना है. पूरी तरह सूख जाने के उपरांत काला पेंट से बाल और आंख बना देना है. लाल एवं उजला पेंट को मिला देने से एक नया रंग बन जाता है, उससे पेंट करना है. इसके उपरांत धूप में सुखाना है. साथ ही एक रंगीन कपड़े का गलब्स बनाना है, जिसका बीच का सिरा गर्दन में बांधने के लिए और हाथ के बायें और दायें की अंगुली के मोटापे के अनुसार गलब्स में जगह बनाना है. इस दौरान पूर्णतः बारीकी और धैर्य की जरूरत है. खराब होने पर हतोत्साहित ना होना है, पुनः प्रयास करें. आप बेहतर पपेट मेकर बन सकते हैं. इससे आप में रचनाशीलता के गुण का विकास होगा.
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