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रतन टाटा के निधन पर दो शब्द

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रतन टाटा के निधन पर दो शब्द
रतन टाटा के निधन पर दो शब्द

अभी हाल ही में रतन टाटा की मृत्यु पर उन्हें महान राष्ट्रभक्त, महान संत, महान उद्यमी, महान देश का देश का सेवक, भारतीय उद्योगों का मसीहा, सादगी की प्रतिमूर्ति और न जाने क्या-क्या कहा जा रहा है. सूत्रों के अनुसार वे कोई 2500 करोड़ की संपत्ति अपने पीछे छोड़ गए हैं. सवाल है क्या एक संत को सादगी और सरलता से जीने के लिए इतनी संपत्ति की जरूरत होती है ?

ज़रूरत से ज्यादा संपत्ति इकट्ठी तो व्यक्ति तभी करता है, जब उसे भोगविलास से परिपूर्ण ऐश्वर्यशाली जीवन जीना हो. रतन टाटा आजीवन ऐश्वर्यशाली जीवन ही जिए. संत का कोई लक्षण उनमें कभी दिखाई नहीं दिया. एक संत संत ही होता है और पूंजीपति पूंजीपति ही होता है. ये दोनों ही एक दूसरे के घोर विरोधी छोर हैं. इसीलिए कोई भी संत पूंजीपति नहीं हो सकता और कोई भी पूंजीपति संत नहीं हो सकता.

इस देश की दार्शनिक वैचारिक और एक संत दृष्टि को समझें तो यह भौतिक जगत, मिथ्या, माया और भ्रम ही. भारतीय संत परंपरा के अनुसार भी यह जगत कोई सत्य नहीं हैं. इसीलिए इस जगत की हर वस्तु माया और झूठ ही है. इसीलिए सारी ज़िंदगी और मुनाफों के पीछे पागलों की तरह दौड़ते रहना संतत्व के किसी भी खांचे में फिट नहीं बैठता; लेकिन भारतीय चिंतन दृष्टि कुछ ऐसी है कि वह हर असत्य को, गलत को, झूठ को अपनी परिस्थितियों के हिसाब से किसी भी खांचे में फिट बैठाने की कला में निष्णात रही है. इसीलिए रतन टाटा जैसे मुनाफाखोर पूंजीपति को भी संत ठहराया जा सकता है.

कहते हैं कि वे कि रतन टाटा बहुत ही बड़े और महान देशभक्त और राष्ट्र को समर्पित पूंजीपति थे. उन्होंने देश के लिए ये किया, वो किया इत्यादि; लेकिन सवाल उठता है कि क्या उनके द्वारा अर्जित किए गए अरबों रुपए के मुनाफे देश के लोगों को समर्पित रहे या उनके मुनाफे देश की संपत्ति में शुमार होते हैं या उनकी निजी मिल्कियत में शुमार होते हैं ?

महत्वपूर्ण बात यह है कि एक तरफ़ जब देश की 80 प्रतिशत जनता गरीबी, भयंकर भुखमरी, अशिक्षा, बेरोजगारी, महंगाई, स्वास्थ्य, आवास जैसी समस्याओं से ग्रस्त जीवन जीने को मजबूर है, तब रतन टाटा जैसा पूंजीपति अरबों-खरबों की संपत्ति को अपने कब्जे में किए बैठा हो और खुद भोगविलास से परिपूर्ण ऐश्वरशाली जीवन जीता रहा हो, तब उसे महान संत कहकर महिमामंडित किया जाना, तमाम तरह की नैतिकताओं के साथ बलात्कार करना ही कहा जायेगा.

इस भौतिक जगत को माया, भ्रम, झूठ, असत्य कहने वाले देश के यही एक प्रतिशत पूंजीपति आज देश की लगभग 73 % धनसंपदा और प्राकृतिक संसाधनों पर कब्ज़ा जमाए बैठे हैं.

रतन टाटा कोई शादीशुदा व्यक्ति भी नहीं थे, और न ही उनका अपना कोई परिवार ही था. फिर भी वे किसके लिए और किस लिए आजीवन इतनी लूटपाट और मारामारी करते रहे ? क्या एक संत के लिए सीधा-साधा, सरल और सादगी से भरा जीवन जीने के लिए माया के पीछे पागलों की तरह इस तरह भागते रहना, किसी साधु-संत का लक्षण हो सकता है ?

सच तो यह है कि पूंजीवादी व्यवस्था में कोई भी व्यक्ति कथित देश या राष्ट्र के लिए समर्पित होता ही नहीं. यह सरासर झूठ है. पूंजीवादी व्यवस्था एक गलाकाट प्रतियोगिता पर आधारित व्यवस्था है. करोड़ों लोगों का गला और पेट काटकर ही कोई व्यक्ति पूंजीपति हो सकता है. यह पूंजीवादी व्यवस्था का एक अटल सत्य है.

इसीलिए इस व्यवस्था में व्यक्ति के कर्म और उसकी निष्ठा सबसे पहले खुद के व्यक्तिगत हितों को साधने की होती है, फिर परिवार के, फिर अपने वर्गीय राजनीतिक हितों को साधने की.

विख्यात पूंजीपति बिड़ला ने जब दिल्ली में मंदिर बनवाया तब उसने मंदिर का नाम किसी कथित भगवान या देवी-देवता के नाम पर नहीं रखा, बल्कि खुद ही के नाम पर बिड़ला मंदिर रखा. देश में बिड़ला द्वारा बनवाए गए ज्यादातर मंदिर बिड़ला के नाम पर ही बने हुए हैं. इसी से यह साबित होता है कि ये लुटेरे धर्म और ईश्वर को अपनी लूट पर परदा डालने के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं. याद रहे, उनके द्वारा अर्जित सभी मुनाफे भी उनकी निजी मिल्कियत में ही शुमार होते हैं, देश की मिल्कियत में नहीं.

कुल मिलाकर किसी भी व्यक्ति, समूह या पूंजीपति की निष्ठा और समर्पण सबसे पहले और अंततः अपने वर्गीय हितों के प्रति ही समर्पित होती है. देश और राष्ट्र उनके लिए कोई मायने नहीं रखते. पूंजीपति तो देश और काल की सीमाओं से परे होते हैं. उनके लिए सिर्फ़ और सिर्फ़ ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफे अर्जित करना ही महत्व रखते हैं. इसीलिए पूंजीवादी व्यवस्था में, देश और राष्ट्र तो व्यक्तियों और समूहों की प्राथमिकताओं और निष्ठा के क्रम में सबसे बाद में ही आते हैं.

रतन टाटा जैसे पूंजीपतियों का बहुत गुणगान किया जाता है कि वे देश में रोज़गार के अवसर पैदा करके देश सेवा करते हैं; लेकिन कोई भी पूंजीपति, देश के लोगों को रोजगार देने और देश की सेवा करने के लिए उद्योग नहीं लगता है. उसका प्रथम और अंतिम लक्ष्य और उद्देश्य सिर्फ ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफा अर्जित करना ही होता है.

अब उद्योग लगाने और उनको चलने के लिए उनको श्रम की आवश्यकता होती है, श्रम के बगैर किसी भी उद्योग को लगाना और उसे संचालित करना किसी भी सूरत में संभव नहीं हो सकता. इसीलिए उन्हें श्रमिकों को मजबूरी वश काम पर लगाना पड़ता है. यह उनकी मज़बूरी किसी को रोजगार देना और देश सेवा करना नहीं होता. पूंजीपतियों द्वारा श्रमिकों को कथित रोज़गार देने का अर्थ होता हैं श्रमिकों के श्रम की चोरी. वे कोई श्रमिकों को भलाई, इनको रोजगार देने या उनके कल्याण के लिए उद्योगों को स्थापित नहीं करते हैं.

यह एक स्थापित मिथ्या धारणा है कि पूंजीपति देश के श्रमिकों को काम देकर देश और देश के गरीब और बेरोजगार समूह की कोई सेवा या इनपर कोई एहसान करते हैं. स्पष्टतः श्रमिकवर्ग के श्रम की चोरी करके ही कोई व्यक्ति रतन टाटा या अडानी-अंबानी बन पाता है.
पूंजीवाद में दूसरों के श्रम की चोरी को ही मुनाफा कहा जाता है. यह पूंजीवाद व्यवस्था की एक मूलभूत और स्थापित सच्चाई है.

एक अति महत्वपूर्ण और गौर-तलब बात यह भी है कि किसी भी पूंजीवादी व्यवस्था में देश या राष्ट्र जैसा कुछ भी नहीं होता. इस व्यवस्था में सिर्फ़ संघर्षरत विरोधी वर्ग होते है, और वर्गों के प्रति समर्पण और निष्ठा होती है. देश और राष्ट्र का अस्तित्व तो वर्गहीन समाज में ही संभव हो सकता है; लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि जब वर्ग ही नहीं रहेंगे, तो देश और राष्ट्र का भी अस्तित्व कहां रह जाएगा ?

तब देश और राष्ट्र भी ऐसे ही विलीन हो जायेंगे जैसे गधे के सिर से सींग. इसीलिए जब तक संघर्षरत विरोधी वर्ग हैं, तब तक पूंजीपतियों के संबंध में प्रचारित देशभक्ति, राष्ट्रभक्ति और उनके संत होने की तमाम बातें धूर्तता और पाखंड के सिवाए और कुछ भी नहीं हो सकती.

इसलिए पूंजीवादी व्यवस्था में देशभक्ति और राष्ट्रभक्ति की सभी बातें बकवास ही होती हैं, उनका कोई भी मूल्य नहीं होता. ये सभी बातें मेहनतकश वर्ग को धोखा देने और उसकी की आंखों में धूल झोंकने के लिए ही कही और सुनी जाती रही हैं.

दूसरी बात, मुनाफे का अर्थ ही होता है, दूसरों यानी मेहनतकश वर्ग के श्रम की चोरी..श्रम की यह चोरी दुनिया की सबसे बड़ी चोरी है. पृथ्वी पर इससे बड़ा और कोई पाप नहीं होता. इस चोरी के समक्ष सभी अन्य चोरियां और सभी पाप फीके और तुच्छ मालूम पड़ते हैं, क्योंकि यही चोरी सभी अन्य चोरियों की मां है.

इसीलिए अगर देशों और राष्ट्रों के अस्तित्व संबंधी धारणाओं को मान भी लिया जाए तो फिर रतन टाटा हो या अडानी-अंबानी हो या बिड़ला जैसे अन्य पूंजीपति, इनसे बड़ा चोर, पापी, देशद्रोही, राष्ट्रद्रोही और धर्मद्रोह विरोधी और कौन हो सकता है ?

लेकिन पूंजीपतियों द्वारा दूसरों के श्रम की चोरी, दूसरों के श्रम के शोषण और दमन को सही साबित करने के लिए शासकवर्ग द्वारा रतन टाटा जैसे पूंजीपतियों को महान राष्ट्रवादी, महान देशभक्त, महान उद्यमी, महान संत कहकर महिमामंडित करना बेहद ज़रूरी है, ताकि पूंजीवादी व्यवस्था की तमाम गंदगियों पर परदा डाला जा सके.

इस सबके बावजूद कुछ गंवार और उजड्ड किस्म के राजनेताओं और उनकी अनुगामी भीड़ द्वारा रतन टाटा को भारतरत्न.देने की मांग उठाई जाने लगी है, और कोई हैरानी की बात नहीं होगी कि कुछ ही दिनों बाद उनको भारतरत्न की उपाधि दे भी दी जाए. रतन टाटा के निधन पर आज यही सब कुछ नौटंकियां घटित हो रही हैं. (वैसे यह भी सच है कि पूंजीपतियों के सबसे बड़े चाकर नरेन्द्र मोदी अंबानी के बेटे की शादी में ठुमके लगाने पहुंचा लेकिन रतन टाटा की मैयत पर नहीं – सं.)

  • अशोक कुमार

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