Home कविताएं सुब्रतो चटर्जी की दो कविताएं

सुब्रतो चटर्जी की दो कविताएं

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1. बुझी चिमनी

बुझी चिमनी की कालिख़ बंट रही है
जिसे लेना है
अंजुरी भर ले जाओ
इकहत्तर लाशों की एक सौ बयालीस
बंद आंखों की कहानी
उन करोड़ों खुली आंखों की
कहानी से कुछ अलग नहीं है
जिनमें मरे हुए सपनों का पिरामिड
हज़ारों सालों से सह जाता है
सहरा की गर्दो ग़ुबार

इस साल
मेरी छोटी सी ज़मीन की छाती पर
कुछ फूल खिले थे
जिन्हें मंदिर का पुजारी
मुंह अंधेरे ले गया चुरा कर
मुझे उस अंधेरे से शिकायत थी लेकिन
किसी से कुछ कह नहीं सका

सुना है वे फूल बरसाएंगे
अंधे विमानों से
ध्वनि से तेज उड़ते हुए
मुझे सन्नाटे के इस दौर में
यह ध्वनि विशेषांक अच्छा लगेगा
लेकिन, गण का एक बहुत बड़ा हिस्सा
इस तंत्र को सुन नहीं पाएगा नज़दीक से

हम सब ज़मीन पर सरकते हुए सांप हैं
हमारे कान नहीं हैं
हम उनके भारी बूटों से थर्राये हुए
पृथ्वी को सिर्फ़ महसूस कर सकते हैं
और छिप जाते हैं जंगल में
और फिर जब वे हमें
चिमटे से जकड़ कर बाहर निकालते हैं
तो हमें जंगली जानवर कहते हैं

रीढ़ को खोने की क़ीमत होती है
आदमी बुझी चिमनी से झरता हुआ
कालिख़ बन जाता है

सुना है कि
लोहा गलाने वाली चिमनियों की कालिख़
बहुत ऊंचे दाम पर बिकती है

ख़ैर आपको क्या
अभी आप गेंद और बल्ले की
ऐतिहासिक लड़ाई में
अपने पक्ष की जीत का उत्सव मनाएं
सामूहिक आत्महत्या का ऐसा मौक़ा
बार बार नहीं मिलता.

2. सियाह रातें

सियाह रातें
और बौद्धिक कविताएं
खुरदुरे, सख़्त हाथों में
थमाने की कावयाद
देखो, इस फूल की तासीर
कहीं पिघल न जाए
और रोमश कांख के दुर्गंध में समाकर
बह न जाए उसकी औरत के बीचोंबीच
जब कविता जनती है नए शब्द
भूख करवटें लेती है मचान पर
उथले हुए बर्तन
अंजुलियों में उकेर कर
भूख का ख़ालीपन
सूखे हुए सरकंडे की दीवारों पर
उगती है दुनाली की तरह
और तुम्हें बताया जाता है
एक नासिका से सांस लेने का महत्व
आधे शरीर और मन को जीने का सच
भयावह होता है
लेकिन, तुम नहीं समझोगे
क्योंकि तुम्हारा सौंदर्यबोध
कोठों के दीवारों के बाहर
नहीं झांकता
जब तक न कोई बैजू
दरारों के बीच उगता है
पीपल बनकर
जिसके समूल नाश में छुपा रहता है
तुम्हारे  विनाश की कहानी

  • सुब्रतो चटर्जी 

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