क्या आप काशी हिंदू विश्वविद्यालय में डॉ. फिरोज खान द्वारा संस्कृत पढ़ाये जाने के विरोध हैं ? यदि हां, तो आगे आइए. सबसे पहले सैय्यद इब्राहिम यानी रसखान की खबर लें क्योंकि उन्होंने कृष्ण की भक्ति की. मोहम्मद रफी की खाल खींच लें क्योंकि उन्होंने ‘मेरे राम, तेरा नाम’ वाला ‘सुख के सब साथी, दु:ख में न कोय’ गीत गाया था.
कैफ भोपाली के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दें. कसूर यह कि उन्होंने ‘देवता तुम हो मेरा सहारा’ वाले गीत में ‘सो गये मंदिरों के पुजारी, गूंजती है मुरलिया तुम्हारी’ जैसे अल्फाज का प्रयोग किया. साहिर लुधियानवी की पैदाइश पर तोहमत दीजिए, जिनकी गलती यह रही कि उन्होंने एक गीत में ‘…लाखों दीन-दुखियारे प्राणी जग में मुक्ति पाएं रे, रामजी के द्वार से…’ का इस्तेमाल करने की हिमाकत की.
चलिए कि यूसुफ खान यानी दिलीप कुमार को इस बुढ़ापे में अपमानित करें कि क्यों कर उन्होंने असंख्य हिंदी फिल्मों में किसी हिंदू देवता की पूजा करने वाले दृश्य किए. संजय खान को सूली पर चढ़ा दें कि उन्होंने अपनी फिल्म अब्दुल्ला में कृष्णा नामक चरित्र की एक मुस्लिम किरदार द्वारा पिता सदृश की गयी परवरिश का घटनाक्रम दर्शाया.
शहनाज अख्तर के नाम पर ऐतराज जतायें, जो देवी भजन के क्षेत्र में हिंदु गायक-गायिकाओं से अलग और खास मुकाम बना चुकी हैं. और यदि आप डॉ. फिरोज खान के समर्थन में हैं तो बहुत कुछ करने की जरूरत नहीं है. बस अपने अराध्य की प्रार्थना करते समय केवल उन कुंद-बुद्धियों की सुबुद्धि हेतु फरियाद कर लें, जो फिरोज के खिलाफ मैदान में आ गये हैं क्योंकि मुट्ठी भर इन लोगों ने सारी दुनिया के सामने भारतीय संस्कृति के महान मूल्यों को बदनाम करके रख दिया है. दरअसल छपास/दिखास के कोढ़ में छापने/दिखाने की खाज मिल जाये तो यही होता है, जो इस मसले पर हो रहा है. जहालत से भरे लोगों की टुकड़ी ने यह मामला उठाया. संस्कृत को हिंदुओं की बपौती बताने जैसे उपक्रम किये. इसी आधार पर एक मुस्लिम विद्वान का विरोध किया.
यह जहरीली पौध अपने आप सूखकर मर जाती, बशर्ते मीडिया ने इसे तवज्जो नहीं दी होती. यहां ‘बदनाम अगर होंगे तो क्या नाम न होगा’ वाला खेल काम कर गया. निर्लज्जों की एक जमात अपनी घटिया हरकत की वजह से चर्चा में आ गयी. अकल पर पड़े पत्थर हटें तो जरा सोचिए. आप किसका और किसलिए विरोध कर रहे हैं ?
उन फिरोज का, जिन्हें सांप्रदायिक सौहार्द्र की सीख बिरसे में मिली है, जिनके पिता रमजान खान नियमित रूप से मस्जिद में नमाज और मंदिर में पूजा के लिए जाते हैं. फिरोज ने पांचवीं कक्षा से हिंदी की पढ़ाई शुरू कर दी थी. इसी भाषा की शिक्षा में उन्होंने बड़ी डिग्री हासिल की.
बीएचयू में फिरोज की नियुक्ति उनके धर्म नहीं, बल्कि योग्यता की बदौलत हुई है. इसके बावजूद यदि महज खान उपनाम की वजह से उनका विरोध किया जा रहा है तो फिर आप को उन लोगों की निंदा करने का कोई हक नहीं, जो अपने यहां नौकरी में किसी धर्म विशेष के ही लोगों को रखने की बात करते हैं. किसी मुस्लिम देश में हिंदुओं को दोयम दर्जा दिये जाने संबंधित खबरों के विरोध का आप को कोई अधिकार नहीं है.
देश में धार्मिक उन्माद के रह-रहकर सामने आते किस्सों के बावजूद इस घटनाक्रम ने मुझे भीतर तक झकझोरकर रख दिया है क्योंकि कट्टरता में ऐसी मूर्खता का तड़का शायद पहली बार देख रहा हूं. मैं ने वह मुस्लिम परिवार देखा है, जिसके बुजुर्ग बच्चों को स्नान किये बगैर रामानंद सागर कृत ‘रामायण’ देखने नहीं देते थे. इस धारावाहिक का ऐसा जुनून की रविवार की सुबह उस परिवार के बच्चे खुद ही जल्दी नहाकर टीवी के सामने डट जाते थे.
मैं अपने तमाम उन हिंदू मित्रों को देखता हूं, जो बताते हैं कि उनके लिए लेखन के समय हिंदी की अपेक्षा उर्दू का प्रयोग ज्यादा आसान रहता है. मैं उस अल्पसंख्यक युवक का भी दोस्त रह चुका हूं, जो अपनी जवानी में उर्दू के कठिन से कठिन शब्दों के हिंदी के सरल से सरल अर्थ की तलाश करता रहता था.
मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड में मैं ने उन अल्पसंख्यक …… को देखा है, जो रामचरित मानस का पाठ करते समय साक्षात गोस्वामी तुलसीदास के सदृश नजर आने लगते थे. मैंने ‘तवायफ’ फिल्म की शुरूआत में महेंद्र कपूर को ‘ऐ खुदाये-पाक-ए रबुल करीम…’ पूरी शिद्दत से गाते हुए सुना है. साथ ही उस्ताद गुलाम मुस्तफा के मुंह से ‘प्रथम धर ध्यान दिनेश ब्रह्मा, विष्णु महेश’ जैसे ‘उमराव जान’ फिल्म के सुरीले गीत का श्रवण किया है.
मैं राजनीति से कोसों दूर रहने वाले उन हिंदुओं को जानता हूं, जो हर साल रमजान के महीने में रोजा अफ्तारी का काम किसी धार्मिक क्रिया जितनी पवित्रता से करते हैं. मैं उन गैर-सियासी हिंदुस्तानी मुस्लिमों से भी मिल चुका हूं, जो कांवड़ यात्रा के दौरान श्रद्धालुओं की सुविधा के इंतजाम करते हैं. आप सभी ने भी ऐसा देखा, सुना और महसूस किया ही होगा.
उदाहरण अलग हो सकते हैं. ऐसा करने वाले चेहरों/नाम का जुदा-जुदा होना संभव है, लेकिन एकता के ऐसे तमाम सुखद प्रसंग से तो आप भी वाकिफ होंगे ही. तो फिर क्या आपके भीतर मेरी ही तरह बेचैनी नहीं हो रही ? यह खयाल नहीं आ रहा कि फिरोज खान का विरोध करने वाली मानसिकता को किसी नाबदान में बहा दिया जाए ?
यदि हां, तो फिर चुप मत बैठिए. इस जहरीले सांप का सिर इसी समय नहीं कुचला गया तो इसका विष सारे समाज को कहीं का नहीं छोडेगा.
- प्रकाश भटनागर
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