उसे
छोड़ दो
वो
कुछ नहीं कर सकता तुम्हारा
वो लड़ नहीं सकता
होगा
अपने झुर्रियों से भरे हुए
कांपते हाथों से
बीमारियों
से
टूट कर
इकहरा हो चुका
उसका बदन
तुम्हें पटक सकने की
ताब
नहीं रखता होगा
उसके कान अब
थोड़ा ऊंचा
सुनते होंगे
लेकिन
तुम्हारे अहंकार के
बराबर नहीं
पाँव
लड़खड़ाने लगे होंगे
उसकी
उम्रदराज़ पदचाप
तुम्हारे
सत्ता के मद को
तोड़ दे
ये मुमकिन ही नहीं
उसके
पास तो गांधी की
लाठी भी नहीं
जिससे
वो बीच चौराहे पर
तुम्हें
जमा सके
वो
बूढ़ा आदमी
मुमकिन है
लिख सकता हो
आज भी
कुछ ऐसी प्रतिरोधी
कविताएं
जिनका
एक एक शब्द
लोहे
सा तप कर
शब्द बाण की तरह
तुम्हारे कानों से
आकर लगे
वो
आज भी
मुट्ठी बांध कर
चीख
सकता हो
तुम्हारे ज़ालिम मंसूबों
के खिलाफ़
मगर मगर मगर
इस आवाज़ का तुम्हें डर कैसा
तुम तो बहरे हो !
- भूपेश पन्त
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