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सरकार की वादाखिलाफी से परेशान किसान मजदूर सड़कों पर आने को मजबूर

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सरकार की वादाखिलाफी से परेशान किसान मजदूर सड़कों पर आने को मजबूर
सरकार की वादाखिलाफी से परेशान किसान मजदूर सड़कों पर आने को मजबूर
मुनेश त्यागी

पूरा देश बड़े पैमाने पर देखता और सुनता चला रहा है कि जिसमें किसानों और मजदूरों को आंदोलन करने के लिए दोषी बताया जा रहा है. सरकार का पूरा अमला, कॉरपोरेट की पूरी प्रेस और पूरा जेबी मीडिया इस अभियान में लगा हुआ है जिसमें किसानों और मजदूरों को सड़क जाम करने का दोषी बताया जा रहा है.

हकीकत यह हो गई है कि पूरा का पूरा सरकारी और कारपोरेट मीडिया किसानों और मजदूरों के पक्ष को, उनकी जायज़ मांगों को और सरकार की लगातार की जा रही वादा खिलाफी को, देश की जनता के सामने प्रदर्शित नहीं कर रहा है और इस प्रकार वह जनता से बेईमानी कर रहा है और जनता को सही स्थिति से परिचित नहीं कराया जा रहा है.

देश के मजदूर या किसान जानबुझ कर सड़कों पर नहीं आते हैं, बल्कि जब सरकार उनकी बुनियादी मांगों को लगातार मांग करने के बावजूद भी पूरा नहीं करती है, तो उन्हें मजबूरन सड़कों पर आना पड़ता है.

सड़कों पर आकर संघर्ष करना किसी भी भारतीय या दूसरे आंदोलनकारियों का शौक नहीं है, बल्कि सरकार की अमीरपरस्त नीतियों और गरीब विरोधी नीतियों के कारण ही, इस देश के पीड़ित किसानों, मजदूरों, नौजवानों, छात्रों और महिलाओं को सड़कों पर आने को मजबूर होना पड़ता है.

जब किसान और मजदूर दो साल पहले 378 दिन दिल्ली की सरहदों पर धरना देने को मजबूर किए गए थे तो वह आंदोलन भी उन्होंने जानबुझकर नहीं किया था, बल्कि आंदोलन करने से पहले उन्होंने सरकार से बार-बार बात की थी और अपनी मांगों को सरकार के सामने पेश किया था.

मगर सरकार किसानों की लगातार कोशिशों के बाद भी उनकी मांगों को सुनने के लिए तैयार नहीं हुई और ना ही उन्हें स्वीकार किया. इसके बाद किसानों को दिल्ली की सरहदों पर आंदोलन करने के लिए मजबूर होना पड़ा था, जिसमें उनके 700 से ज्यादा आंदोलनकारी किसान शहीद हुए थे.

किसानों के उस सफल आंदोलन के बाद भारत के प्रधानमंत्री मोदी को मीडिया के माध्यम से देश की जनता के सामने आना पड़ा और उन्होंने किसानों की जायज मांगों को मानना स्वीकार कर लिया. मगर अफसोस की बात है कि सरकार द्वारा उन मांगों को माने जाने के बाद और स्वीकार किए जाने के बाद भी उन मांगों को पूरा नहीं किया गया.

किसान उसके बाद भी सरकार से उन मांगों को पूरा करने के लगातार कोशिश करते रहे, मगर सरकार एक के बाद एक मीटिंग का बहाना करके उन मांगों को लागू करने से बचती रही. इस प्रकार हम देख रहे हैं कि पंजाब के किसानों को अपनी मांगों को मनवाने के लिए फिर से सड़कों पर आकर प्रदर्शन करने को मजबूर होना पड़ा.

यहीं पर सबसे महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि पंजाब के इन किसानों को अपनी मांगों को मनवाने के लिए सड़कों पर आकर मजबूर करने के लिए कौन जिम्मेदार है ? क्या इसके लिए दिल्ली की केंद्र सरकार जिम्मेदार नहीं है ? और क्या इसके लिए किसानों के पास और कोई रास्ता बचा था ?

यहीं पर दूसरा सवाल है कि किसानों को हरियाणा बॉर्डर पर ही क्यों रोक दिया गया ? क्या वे हरियाणा सरकार से कोई मांग कर रहे थे ? हकीकत में हरियाणा सरकार से तो वे कोई मांग ही नहीं कर रहे थे. वे तो अपनी मांगें मनवाने के लिए दिल्ली जा रहे थे तो फिर उन्हें हरियाणा बॉर्डर पर क्यों रोका गया ? क्या इसके लिए केंद्र सरकार के मिलीभगत नहीं है ? क्या अपनी मांगों को बनवाने के लिए सड़कों पर आना-जाना किसानों का संवैधानिक अधिकार नहीं है ?

इस बहुत महत्वपूर्ण सवाल को लेकर सरकार चुप्पी साधे हुए हैं, बल्कि दूसरी ओर केंद्र सरकार के समर्थक लोग किसानों द्वारा सड़कों पर प्रदर्शन करने के खिलाफ पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट गए और वहां पर किसानों द्वारा किए जा रहे प्रदर्शन को खत्म करने की मांग की, तो इस पर पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने तुरंत सुनवाई करते हुए, उनकी दलील को असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक मानते हुए, स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया और हाई कोर्ट ने, अपने जायज अधिकारों की मांग कर रहे किसानों के खिलाफ कोई आदेश पारित करने से मना कर दिया.

मोदी सरकार का समर्थक मीडिया अभी भी किसानों के इस जायज प्रदर्शन को गलत ठहरा रहा है, जनता के सामने गलत गलत आंकड़े पेश कर रहा है, उसे सच्चाई से अवगत नहीं कर रहा है और किसानों की जायज मांगों को उसके सामने पेश नहीं कर रहा है और वह विपक्ष और किसानों की मांगों को जनता के सामने नहीं रख रहा है और वह जानबूझकर पूरी जनता को गुमराह कर रहा है.

यहीं पर किसानों के समर्थक मीडिया, लेखकों और तमाम बुद्धिजीवियों की यह सबसे बड़ी जिम्मेदारी है कि वे सरकारी मीडिया द्वारा किसानों को बदनाम करने की इस जानबुझकर की जा रही किसान आंदोलन विरोधी मुहिम का मुकाबला करें, पूरी जनता को किसानों की जायज मांगों से अवगत करायें और पूरी जनता को बताएं कि इस आंदोलन के लिए किसान किसी भी हालत में जिम्मेदार नहीं हैं, बल्कि इसके लिए केवल और केवल हरियाणा और दिल्ली की केंद्र सरकारें ही पूरी तरह से जिम्मेदार हैं.

वैसे भी यहीं पर यह बताना भी सबसे ज्यादा जरूरी है कि इस पूरी दुनिया में और हमारे देश में यहां की शोषित, पीड़ित और अभावग्रस्त जनता को कभी भी बिना लड़े कुछ नहीं मिला है. यहां पर तमाम हक और अधिकार, गुलामों के मालिकों, सामंतों और पूंजीपतियों से संघर्ष करके ही और जी-जान की बाजी लगाकर ही प्राप्त किए गए हैं. इनके लिए लाखों करोड़ों लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी है.

भारत के संविधान द्वारा प्राप्त करें प्राप्त किए गए इन अधिकारों को भारत के स्वतंत्रता संग्राम में लाखों स्वतंत्रता सेनानियों के जीवन बलिदान करके ही प्राप्त किया गया है. शासकों, शोषकों और अन्यायकर्ताओं ने अपनी पीड़ित जनता, किसानों और मजदूरों को कभी भी अपनी मर्जी से कुछ नहीं दिया है. इस दुनिया में और हमारे देश में, हमारी जनता को जो कुछ भी मिला है, वह सब संघर्ष और लड़ाई के मैदाने में उतरने के बाद ही मिला है. यह किसी भी सरकार की मेहरबानी से नहीं मिला है इसीलिए क्रांतिकारी कवि बाल्ली सिंह चीमा ने कहा था कि –

ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के
अब अंधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गांव के.
बिन लड़े कुछ भी नहीं मिलता यहां ये जानकर
अब लड़ाई लड़ रहे हैं लोग मेरे गांव के.

इस प्रकार यहां यह जानना और बताना बहुत ज्यादा जरूरी है कि जब तक केंद्र सरकार और राज्य सरकारें, इस देश के करोड़ों किसानों, मजदूरों की बुनियादी समस्याओं का हल नहीं करेगी, तब तक वे सड़कों पर आने को मजबूर होते रहेंगे और उन्हें उनके इस सामुहिक प्रदर्शन करने के इस बुनियादी अधिकार से कोई वंचित नहीं कर सकता है.

जब तक सरकार जुल्म और ज्यादती करेगी, शोषण और अन्याय करेगी, उनकी जायज मांगों को स्वीकार करके भी लागू नही करेगी और उनके साथ वादाखिलाफ़ी करेगी, तब तक भारत के लोग, भारत के किसान और मजदूर अपनी बुनियादी मांगों को मनवाने के लिए, सड़कों पर आने को मजबूर होते रहेंगे. उन्हें अपनी जायज मांगों को लेकर प्रदर्शन करने से कोई नहीं रोक सकता.

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ROHIT SHARMA

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