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‘कल बहुत जल्दी होता…और कल बहुत देर हो चुकी होगी…समय है आज’

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'कल बहुत जल्दी होता...और कल बहुत देर हो चुकी होगी...समय है आज’
‘कल बहुत जल्दी होता…और कल बहुत देर हो चुकी होगी…समय है आज’

कहा जाता है कि 17वीं शताब्दी की अंग्रेज़ क्रांति क्रामवेल के बगैर, 18वीं सदी की फ्रांसीसी क्रांति रॉब्सपीयर के बगैर भी संपन्न होती लेकिन 20वीं शताब्दी की विश्वव्यापी प्रभावों वाली रूसी क्रांति लेनिन के बिना संभव नहीं होती.

लेनिन पर प्रख्यात रूसी कवि मायकोव्स्की की एक कविता है कि ‘हियर इज अ लीडर हू लीड द मासेस बाई हिज इंटेलेक्ट’ ( यहां एक ऐसा नेता है जो अपनी बुद्धि, अपने विचार की बदौलत आम जनता का नेतृत्व करता है). मायकोव्स्की की ये पंक्तियां लेनिन के ऐतिहासिक व्यक्तित्व को उसकी संपूर्णता में व्यक्त करने का प्रयास करती है.

कहा जाता है कि 17वीं शताब्दी की अंग्रेज़ क्रांति क्रामवेल के बगैर, 18वीं सदी की महान फ्रांसीसी क्रांति रॉब्सपीयर के बगैर भी संपन्न हो गयी होती क्योंकि सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियां वैसी थी या उसी ओर इशारा कर रही थी.

लेकिन 20वीं शताब्दी की विश्वव्यापी प्रभावों वाली रूसी क्रांति ब्लादीमिर इल्यीच उल्यानोव, दुनिया जिसे लेनिन के नाम से जानती है, के बिना संभव नहीं हो पाती. उसकी वजह थी, जैसा कि स्टालिन ने लेनिन की 50वीं वर्षगांठ पर कहा था –

‘क्रांतिकरी उथल-पुथल के वक्त लेनिन एक पैगंबर की तरह भविष्य में घटने वाली घटनाओं का सटीक पूर्वानुमान लगा लेते थे. क्रांति के दरम्यान संभावित गतिविधियों, मोड़ों तथा विभिन्न वर्गों द्वारा उठाए जाने वाले कदमों को पहले से ही जान लेते मानो वे सही में घट रहे हैं.’

लेनिन का जन्म यानी 22 अपैल 1870 को हुआ था. 2017 में, जब रूसी की अक्टुबर क्रांति के सौ वर्ष पूरे हुए थे, उस दौरान लेनिन के असाधारण योगदान के संबंध में काफी चर्चा हुई थी लेकिन साथ ही लेनिन के खिलाफ दुष्प्रचार, उनको कलंकित करना, उनके विचारों को तोड़-मरोड़ कर पेश करने का काम भी बड़े जोर-शोर से चलता रहा है.

2018 में त्रिपुरा में जब भाजपा सत्तासीन हुई तो सबसे पहले वहां लेनिन की मूर्ति गिरायी गईं. दुनिया भर के शासक वर्ग लेनिन के विरूद्ध निरंतर अभियान चलाते रहे हैं और ये काम लगभग पिछले सौ वर्षों से चलता रहा है. सोवियत संघ का विघटन यानी 1991 के बाद भी यह अभियान रूका नहीं है.

भारत का शासक वर्ग, उसके भाड़े के लेखक भी इस काम में सदा अग्रिम पंक्ति में रहे हैं. जबकि जब लेनिन के बारे में भारत के लगभग अधिकांश राष्ट्रीय नेताओं ने उनका नाम बेहद आदर से लिया है, भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में उन पर लेख लिखे गए, तमाम भारतीय साहित्य में उनकी काफी चर्चा हुई.

हिंदी साहित्य में लेनिन को ‘महात्मा लेनिन’ के नाम ये पुकारा जाता. बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, सुभाष चंद बोस, स्वामी सहजानंद सरस्वती से लेकर सुमित्रानंदन पंत, प्रेमचंद, राहुल सांस्कृत्यान, कैफी आजमी सहित हिंदी-उर्दू के दर्जनों साहित्यकारों ने लेनिन के सम्मान में लेख लिखे, कविताएं रची.

अल्लामा इकबाल की लेनिन के उपर रचित कविता, जो सौ वर्ष पूर्व लिखी गयी थी, है ‘लेनिन खुदा के हुजूर में.’ इस कविता में खुदा लेनिन को बुलाते हैं और उससे पूछते हैं तू किन लोगों का खुदा है ?वो कौन सा आदम है, जिसका तू खुदा है, क्या वो इसी आसमान के नीचे की धरती पर बसता है ?

हम सभी शहीद-ए-आजम भगत सिंह के लेनिन प्रेम से भलीभांति वाकिफ हैं. फांसी के वक्त भी लेनिन को पढ़ते रहे थे. ये बात भारतीय लोकाख्यान का अविभाज्य हिस्सा बन चुकी है कि जब जल्लाद भगत सिंह को बुलाने गया, ‘सरदार जी ! चलिए आपका समय हो गया.’

भगत सिंह, जो उस वक्त जर्मन नेत्री क्लारा जेटकिन की लेनिन पर लिखी संस्मरणों की किताब पढ़ रहे थे, भगत सिंह ने जल्लाद से कहा, ‘ठहरो एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है’ और किताब का पन्ना वहीं मोड़ दिया.

भारत के राष्ट्रीय आंदोलन की हर धारा के लोग लेनिन से प्रेरणा लेते रहे हैं. कांग्रेसी, समाजवादी, वामपंथी सहित हर किस्म के लोग लेनिन से प्रेरणा लेते रहे. इसके पीछे रूसी क्रांति के बाद लेनिन द्वारा ‘उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं के आत्मनिर्णय के अधिकार’ संबंधी घोषणा थी. इस घोषणा ने पूरी दुनिया के औपनिवेशिक देशों को एक उम्मीद की रौशनी मिली.

कहा जाता है कि वियतनामी क्रांति के महान नेता हो ची मिन्ह ने जब इन घोषणाओं को पढ़ा तो खुशी से उनकी आखों में आंसू आ गए. आजादी के पूर्व भारत में सिर्फ एक धारा लेनिन से प्रेरणा न ग्रहण कर सकी, वो थी राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (आर.एस.एस.). आजादी के पूर्व ये लोग ब्रिटिश साम्राज्यवाद के एजेंट के रूप में काम करते थे जैसे आज अमेरिकी साम्राज्यवादी हितों को भारत में आगे बढ़ाने वाली सबसे बड़ी व विश्वसनीय ताकत है.

लेनिन की साम्राज्यवादी संबंधी अनूठी सैद्धांतिक पकड़ ने ही उनको, जैसा कि रोजा लक्जमबर्ग कहा करती थी- ‘निरंतर खदेड़े जाने वाले शख्स से परिस्थितियों का नियंता बना दिया.’

साम्राज्यवाद संबंधी अपने अध्ययन को लेनिन ने 1916 में प्रकाशित विश्वविख्यात पुस्तक के रूप में ‘साम्राज्यवाद : पूंजीवाद की उच्चतम अवस्था’ में रखा. लेनिन की प्रस्थापना थी पूंजीवाद की इस अवस्था में यानी साम्राज्यवादी अवस्था में बाजार के बंटवारे के लिए युद्ध एक प्रमुख विशेषता बन जाती है.

इस मुकाम पर किसी देश के मजदूर वर्ग के लिए एक ही रास्ता बचता है या तो वो सीमाओं के पार अपने ही जैसे मजदूरों को मारे या फिर पूंजी के इस शासन का ही अंत कर दे. इतिहास के उस महत्वपूर्ण मोड़ की इस सैद्धांतिक समझदारी के कारण लेनिन बाकी विश्वनेताओं के मुकाबले आगे निकल गए. उन्होंने इतिहास द्वारा उपलब्ध किए गए अवसर का लाभ उठाया और रूस में क्रांति करने में सफल हो गए.

अक्टुबर क्रांति ने दुनिया भर के शासक वर्ग में कम्युनिज्म का डर पैदा कर दिया. विश्वप्रसिद्ध इतिहासकार एरिक हॉब्सबॉम बताते हैं कि जब रूस में क्रांति हुई तो पूरा इंग्लैंड स्तब्ध रह गया. कई सप्ताह तक यहां का शासक वर्ग सदमे में रहा कि ये क्या हो गया ? कैसे हो गया ? इन्हीं वजहों से 1917 की क्रांति के बाद 12 देशों – जिसमें ब्रिटेन, फ्रांस, अमेरिका, ग्रीस, रोमानिया, जापान,सर्बिया, इस्तोनिया, पोलैंड बेल्जियम – की संयुक्त सेना ने नवजात समाजवादी देश पर हमला किया था.

रूस के भीतर कोलचक, देनेकिन जैसे प्रतिक्रांतिकारी श्वेतगार्डों की सेना थी. प्रतिक्रांतिकारियों की सेना की ओर से बोलते हुए विंस्टन चर्चिल ने क्रांति का गला ‘जन्म के साथ ही घोंट देने’ की बात की. क्रांति की समाजवादी सत्ता सिमट कर कुछ केंद्रों तक रह गयी थी, तब रूस ने लड़ाई लड़ी हथियार से ही नहीं, विचार से भी. 12 देशों को अपनी सेना हटानी पड़ी. इन देशों का मजदूर वर्ग सोवियत सत्ता की घेरेबंदी को लेकर अपने देश के शासक वर्ग के विरूद्ध आंदोलनरत था.

इंग्लैंड के प्रधानमंत्री लॉयड जॉर्ज से हाउस ऑफ कॉमंस में पूछा गया ‘बोलेशेविकों के खिलाफ सेना क्यों हटायी गयी ?’ लॉयड जार्ज का दिलचस्प जवाब था – ‘यदि नहीं हटाता तो अपने अंग्रेज़ सैनिकों को बोल्शेविक इंफ्ल्यूंजा ने ग्रसित होने से कैसे बचाता ?’

यदि कोई व्यक्ति लेनिन के सामने कुछ इस तरह का वाक्यांश इस्तेमाल करता ‘वह भला आदमी है’ तो लेनिन आसानी से उत्तेजित हो पूछ बैठते ‘भला से आपका क्या मतलब है ? यह कहना बेहतर होगा कि उसका व्यवहार किन राजनीतिक उसूलों पर आधारित है ?’

अपने प्रारंभिक दिनों में लेनिन पर अपने बड़े भाई अलेक्जेंडर उल्यानोव का बहुत प्रभाव था. अलेक्जेंडर उल्यानोव ‘नरोदनाया वोल्या’ (जन आकांक्षा) के सदस्य थे. ये दल आतंक के रास्ते बुनियादी बदलावों का आकांक्षी था. जार को मारने के प्रयास में अलेक्जेंडर उल्यानोव को फांसी पर चढ़ा दिया गया.

मौक्सिम गोर्की ने इस बात की ओर ध्यान दिलाया है कि लेनिन अपने हृदय की गुप्त आंधियों को अपने हृदय में ही छुपाना जानते थे. यदि आप लेनिन के रचनाओं के 55 खंडों को खोजें तो आप उनमें उनके बड़े भाई के बारे में एक शब्द भी नहीं पाएंगे-किसी लेख में नहीं, कृति या भाषण में नहीं. जारशाही शासन की आलोचना करते समय, क्रांतिकारियों के साहस की बातें करते समय भी उन्होंने अपने भाई के उदाहरण का हवाला नहीं दिया.

किसी मुद्दे का उदाहरण देने के वास्ते उन घटनाओं का हवाला देने के लिए उनका यह घाव इतना गहरा था कि उसकी चर्चा नहीं की जा सकती थी. क्रांति पर कुर्बान होने वाले वीरों की संख्या बहुत बड़ी और इतनी विस्तृत थी कि उसे एक व्यक्ति, चाहे वह लेनिन का भाई ही क्यों न हो, त्रासद मृत्यु या किसी एक परिवार की चाहे उन्हीं का अपना परिवार क्यों न हो, त्रासदी के हवाले से समेकित करना सम्भव नहीं था.

उनके भाई को रूसी साहित्यकार निकोलाई चेर्नीव्सकी की युगांतकारी कृति ‘क्यों करें’ बेहद पसंद था. लेनिन ने अपने भाई की मौत के बाद चेर्नीव्सकी का ये उपन्यास ठीक से पढ़ा. उन्हें चेर्नीव्सकी की यह बात बहुत पसंद आई थी ‘हर ईमानदार और शालीन व्यक्ति क्रांतिकारी होता है.’

लेकिन लेनिन अपने भाई के रास्ते पर नहीं गए. अपने भाई और पहले के रूसी क्रांतिकारियों द्वारा तय किये हुए रास्तों पर नजर डालते हुए लेनिन ने लिखा था ‘रूस में सचमुच बहुत पीड़ा और कष्ट भोगने के बाद ही एकमात्र सही क्रांतिकारी सिद्धांत के रूप में मार्क्सवाद को पाया.’

‘आधी शताब्दी तक अभूतपूर्व यातनाएं झेलते हुए और अनगिनत बलिदान देते हुए, अभूतपूर्व क्रांतिकारी वीरता और अविश्वसनीय क्रियाशीलता का परिचय देते हुए, बड़ी साधना के साथ अध्ययन और मनन करते हुए, सिद्धातों को व्यवहार में परखते हुए, उसकी जांच करते हुए अपने अनुभव को यूरोप के अनुभव से तुलना करते हुए मार्क्सवाद को हासिल किया गया.’

और 7 नवंबर, 1917 को क्रांति करने में सफल हुए. इसी दिन पहली बार हमेशा पराजित होते आने वाले मेहनतकश वर्ग को ये अहसास हुआ कि वो जीत भी सकता है. इस दिन को लेकर तुर्की कवि नाजिम हिकमत की ये लेनिन पर लिखी ये कविता बेहद मशहूर है –

उन्नीस सौ सत्रह
सात नवंबर
अपने धीरे-धीरे मंद स्वर में
लेनिन ने कहा :
‘कल बहुत जल्दी होता और
कल बहुत देर हो चुकी रहेगी
समय है आज’
मोर्चे से आते सैनिक ने

कहा ‘आज’
खन्दक जिसने मार डाला था मौत को
उसने कहा ‘आज’ !
अपनी भारी इस्पाती काली
आक्रोश की तोपों ने
कहा ‘आज’
और यूं दर्ज की बोलेविकों ने इतिहास के
सर्वाधिक गंभीर मोड़-बिन्दु की तारीख
उन्नीस सौ सतरह
सात नवंबर.

  • अनीश अंकुर
    (यह लेख लेनिन की 152वीं जन्म वर्षगांठ पर लिखा गया था.)

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