कनक तिवारी, वरिष्ठ अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, छत्तीसगढ़
वर्ष 1704 में इंग्लैंड में चीफ जस्टिस सर जाॅन होल्ट ने राजद्रोह के अपराध की परिभाषा में सुधार लाते लिखा था ‘यदि लोग सरकार के खिलाफ बुरी भावना और बददिमागी रखें तो कानूनी तौर पर उनकी जवाबदेही तय किए बिना सरकार चलाना संभव नहीं होगा.’ उनका तर्क था कि लोगों को सरकार के लिए सद्भावना रखनी चाहिए. भले ही आरोप लगाने वाले सच भी क्यों न बोल रहे हों. भारतीय दंड संहिता के रचनाकार लाॅर्ड मैकाले ने इंग्लैंड की संसद में अपराधिक कानूनों का जखीरा वर्ष 1850 में मुकम्मिल किया.
शुरुआत में राजद्रोह का अपराध शामिल नहीं था. मैकाॅले की टक्कर के विधिशास्त्री जेम्स फिट्ज़जेम्स स्टीफन ने दस साल बाद दंड संहिता में राजद्रोह को जोड़ते कहा कि वह धोखे से लिखना छूट गया था. कारण था कि ब्रिटिश सरकार व्यापक डैनों वाला अपराध परिभाषित करना चाहती थी. 1863 से 1870 तक भारत में मशहूर वहाबी आंदोलन चला था. उससे निपटने ब्रिटिश सरकार को राजद्रोह का दंड संहिता में बीजारोपण करना मुफीद लगा. वहाबी आंदोलनकारी 1857 के जनयुद्ध के प्रतिभागी भी थे.
यह तथाकथित अपराध 19वीं सदी से अंगरेजों की गुलामी के वक्त भारतीय नेताओं के सामने गुर्राता रहा है. यह अपराध आज़ादी के सबसे वरिष्ठ सिपहसालार और ‘स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है‘ का उद्घोष करते देश को चट्टानी मजबूती देने वाले लोकमान्य तिलक पर तीन बार चस्पा किया गया. अपनी गिरफ्त में महात्मा गांधी और एनी बेसेन्ट को भी लिया. लेखिका अरुंधति राय, कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी और देश के कई नामी पब्लिक एक्टिविस्ट सहित राजनेताओं तथा पत्रकारों को अपने आॅक्टोपस पंजों में दबाने की कोशिश करता ही रहा है.
अंगरेजी विधिशास्त्र की कोख से पैदा राजद्रोह संविधान निर्माताओं के तिरस्कार के कारण संविधान से बाहर निकाला गया. फिर भी उसी अकड़ से टर्राता भारतीय दंड संहिता में वाचाल है. उन्माद भरा कुपठित ढिंढोरची मीडिया चीख चीखकर देश और दुनिया को बताता है मानो कुछ बड़ा अजूबा हो गया है. सुप्रीम कोर्ट को लगातार मौके मिलते हैं. राजद्रोह की संज्ञेयता, संवैधानिकता और उपादेयता को अपने धर्मकांटे में तौलकर न्याय का जनतांत्रिक उदार ऐलान निकालने का अब भी अवसर है.
सबसे मशहूर मामला गांधी का हुआ. 1922 में सम्पादक गांधी तथा ‘यंग इंडिया‘ के मालिक शंकरलाल बैंकर पर तीन आपत्त्तिजनक लेख छापे जाने के कारण मामला दर्ज हुआ. जज स्टैंगमैन के सामने गांधी ने तर्क किया कि वे तो साम्राज्य के पक्के भक्त रहे हैं, लेकिन अब वे गैरसमझौताशील और असंतुष्ट बल्कि निष्ठाविहीन असहयोगी नागरिक हो गए हैं. ब्रिटिश कानून की अवज्ञा करना उन्हें नैतिक कर्तव्य लगता है क्योंकि कानून वहशी है. जज चाहें तो अधिकतम सजा दे दें। राजद्रोह राजनीतिक अपराधों का राजकुमार है जो नागरिक आजादी को कुचलना चाहता है.
ब्रिटिश हुकूमत के लिए प्रेम या लगाव मशीनी तौर पर पैदा नहीं किया जा सकता और न ही उसे कानून के जरिए विनियमित किया जा सकता है. अंगरेजी हुकूूमत में गांधी कानूनों की वैधता को संविधान के अभाव में चुनौती नहीं दे सकते थे, फिर भी कानूनों का विरोध किया. जालिम कानूनों का विरोध करने के लिए गांधी ने जनता को तीन अहिंसक हथियार दिए – असहयेाग, निष्क्रिय प्रतिरोध और सिविल नाफरमानी. अंगरेजी हुकूमत से असहयोग, सिविल नाफरमानी या निष्क्रिय प्रतिरोध दिखाने पर तिलक, गांधी और कांग्रेस के असंख्य नेताओं को बार-बार सजाएं दी गई. इन्हीं नेताओं के वंशज देश में हुक्काम बने. आजादी के संघर्ष के दौरान जिस विचारधारा ने नागरिक आजादी को सरकारी तंत्र के ऊपर तरजीह दी, उनके प्रशासनिक वंशज इतिहास की उलटधारा में नागरिक आजादी को तहस-नहस करते देश का भविष्य कैसे ढूंढ़ते रहे ?
संविधान सभा में ‘राजद्रोह‘ को स्वतंत्रता के बाद कायम रखने के खिलाफ जीवंत बहस हुई थी. कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, सेठ गोविन्ददास, अनंतशयनम आयंगर और सरदार हुकुम सिंह ने सड़ांध भरे अपराध को निकाल फेंकने के पक्ष में पुरजोर तर्क रखे. अनुच्छेद 19 (2) का हवाला देते हुए साफ कहा कि ‘अभिव्यक्ति की आजादी और वाक् स्वातंत्र्य के प्रतिबंध के रूप में राजद्रोह बर्दाश्त नहीं किया जा सकता.’ दिलचस्प है संविधान लागू होने के बाद उत्तरप्रदेश के पहले मुख्यमंत्री और संविधान सभा के सदस्य रहे गोविन्दवल्लभ पंत ने खुद उसे राज्य के 35 जिलों में फर्रुखाबाद सहित लागू कर दिया.
अनुच्छेद 19 (1) में मिली अभिव्यक्ति की आज़ादी पर राज्य द्वारा बनाए गए किसी कानून के जरिए प्रतिबंध लगाए जाने को मशहूर समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया ने बार-बार चुनौती दी. एक मामला 1960 में उत्तरप्रदेश सरकार के खिलाफ उन्होंने दायर किया जब उन्हें उत्तरप्रदेश स्पेशल पावर्स एक्ट, 1932 की धारा 3 के तहत फर्रुखाबाद में उत्तेजक भाषण देने के लिए जेल में डाल दिया गया था. लोहिया ने चुनौती दी थी कि सरकार को दी गई किसी भी राशि को देने से इन्कार करने का अधिकार नागरिक आज़ादी में मूलभूत है.
सुप्रीम कोर्ट में पांच जजों की संविधान पीठ की ओर से प्रख्यात जज के. सुब्बाराव ने फैसला सुनाया जिन्हें अपने उदार दृष्टिकोण के लिए सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में याद किया जाता है. उत्तरप्रदेश का कानून रद्द किया. सुप्रीम कोर्ट ने 1960 में दि सुपरिटेंडेंट प्रिज़न फतेहगढ़ विरुद्ध डाॅ. राममनोहर लोहिया प्रकरण में पुलिस की यह बात नहीं मानी कि किसी कानून को नहीं मानने का जननेता आह्वान भर करे तो उसे राजद्रोह की परिभाषा में रखा जा सकता है.
केदारनाथ सिंह से पहले सुप्रीम कोर्ट की ही संविधान पीठ ने लोहिया प्रकरण में उलट आदेश दिया था. लोहिया वाली पीठ के चार जज इसी दरमियान रिटायर हो चुके थे. केदारनाथ सिंह में सुुप्रीम कोर्ट ने संविधान सभा द्वारा राजद्रोह की छोड़छुट्टी का तथ्य विस्तार से विचारित नहीं किया. केदारनाथ सिंह के प्रकरण के बावजूद बहुत बारीक व्याख्या करने से मौजूदा परिस्थितियों में अंगरेजी जमाने के आततायी कानून को जस का तस रखे जाने में संविधान को असुविधा महसूस होनी चाहिए.
केदारनाथ सिंह के फैसले के कारण राजद्रोह का गोदनामा वैध बना हुआ है. यह अंगरेज औलाद भारत माता के कोखजाए पुत्रों को अपनी दुष्टता के साथ प्रताड़ित करता रहता है. पराधीन भारत की सरकार की समझ, परेशानियां और चिंताएं और सरोकार अलग थे. राजद्रोह का अपराध तब हुक्काम का मनसबदार था. अब जनता का संवैधानिक राज है. राष्ट्रपति से लेकर निचले स्तर तक सभी लोकसेवक जनता के ही सेवक हैं. फिर भी मालिक को लोकसेवकों के कोड़े से हंकाला जा रहा है.
सबसे चर्चित मुकदमे केदारनाथ सिंह के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कारण राजद्रोह दंड संहिता की आंतों में छुपकर नागरिकों को बेचैन और गिरफ्तार करता थानेदारों को हौसला देता रहता है. चुनौतियां दी जाती हैं कि असंवैधानिक होने से राजद्रोह को बातिल कर दिया जाए. केदारनाथ सिंह के प्रकरण ने सरकारों के प्रति नफरत फैलाने और सरकार के खिलाफ हिंसक हरकतों के लिए भड़काए जाने की अलग-अलग मनोवैज्ञानिक स्थितियों की तुलना की. बेंच ने राजद्रोह नामक अपराध की संविधान विरोधी परिभाषा में उलझने के बदले कहा कि भड़काऊ मकसदों, उद्देश्योें या इरादों से संभावित लोकशांति, कानून या व्यवस्था के बिगड़ जाने या हिंसा हो जाने की सम्भावना में ही राजद्रोह है.
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