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तीन कृषि कानून : क्या ये कानून सिर्फ किसानों के बारे में है ?

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उद्भावना पत्रिका में पी. साईनाथ का एक लेख है, कृषि क़ानूनों पर. पिछले साल ही ‘द वायर’ (9 दिसंबर 2020) में छप चुका है, इसका हिन्दी अनुवाद पत्रिका ने छापा है, हिंदी अनुवाद मोहम्मद कमर तबरेज़ ने किया है. पढ़ लें तो पता चलेगा कि मीडिया आपको किस तरह से समझने लायक़ बनाता है. आज के दौर की राजनीति को अगर आर्थिक नीतियों और उसके दुष्प्रभाव से नहीं समझेंगे तो नुक़सान आपका होगा, हो भी रहा है – रविश कुमार

तीन कृषि कानून : क्या ये कानून सिर्फ किसानों के बारे में है ?

इस अधिनियम के तहत या इसके अंतर्गत बनाए गए किसी भी नियम या आदेश के अनुसार नेकनीयती से की गई या की जाने वाली किसी भी चीज के संबंध में केन्द्र सरकार या राज्य सरकार, या किसी अधिकारी या किसी अन्य व्यक्ति के खिलाफ कोई भी मुकदमा, अभियोजन या अन्य संवैधानिक कार्यवाही विचार करने योग्य नहीं होगी.’

और आपने सोचा कि नए कानून केवल किसानों के बारे में है ? निश्चित रूप से, ऐसे अन्य कानून भी हैं जो जनसेवकों को अपने संवैधानिक कर्तव्यों को पूरा करने में अभियोजन से दूर रखते है. लेकिन यह उन सभी में सबसे ऊपर है. ’नेकनीयती से’ कुछ भी करने के संबंध में उन सभी को दी गई प्रतिरक्षा, बहुत ही प्रभावी है. न सिर्फ यह कि अगर वे ’नेकनीयती से’ कोई अपराध करें, तो उन्हें अदालतों में नहीं घसीटा जा सकता है – बल्कि उन्हें उन अपराधों के खिलाफ संवैधानिक कार्यवाई से भी संरक्षित रखा गया है, जिसे (जाहिर है ’नेकनीयती से’) उन्होंने अभी तक अंजाम नहीं दिया है.

यदि आप इस बिंदु से चूक गए हैं तो दोबारा ध्यान दें – कि आपके लिए न्यायालयों में कोई संवैधानिक उपचार नहीं है – खंड 15 में कहा गया है –

’किसी भी सिविलकोर्ट के पास इस अधिनियम द्वारा या इसके अंतर्गत या इसके अनुसार बनाए गए नियमों के तहत अधिकृत प्राधिकारी के संबंध में ऐसे किसी भी मुकदमें या कार्यवाही पर विचार करने का अधिकार नहीं होगा, जिसका संज्ञान उसके द्वारा लिया जा सकता है या जिसका निपटारा किया जा सकता है.’

’नेकनीयती से’ चीजें करने वाला ’कोई अन्य व्यक्ति’ कौन है, जिसे कानूनी रूप से चुनौती नहीं दी जा सकती है ? संकेतः उन कॉरर्पाेरेट दिग्गजों के नाम सुनने की कोशिश करें जो विरोध करने वाले किसानों द्वारा पुकारे जा रहे हैं. यह व्यवसाय की आसानी के बारे में है – बहुत, बहुत बड़े व्यवसाय के बारे में.

’कोई मुकदमा, अभियोजन या अन्य संवैधानिक कार्यवाही विचार करने योग्य नहीं होगी .. ’ यह सिर्फ किसान ही नहीं है, जो मुकदमा नहीं कर सकते, कोई दूसरा भी नहीं कर सकता. यह जनहित याचिका पर भी लागू होता है. न ही गैर – लाभकारी समूह, या किसानों की यूनियन, या कोई भी नागरिक (अच्छी या खराब नीयत से) हस्तक्षेप कर सकता है.

ये निश्चित रूप से 1975-77 के आपातकाल (जब केवल सभी मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया था) के बाद वाले किसी भी कानून में नागरिकों को व्यापक रूप से कानूनी अधिकार देने से मना करना है.

हर भारतीय प्रभावित है. इन कानूनों की कानूनी – शब्दावली (निम्र-स्तरीय) कार्यपालिका को भी न्यायपालिका में बदल रही है – न्यायाधीश, न्यायपीठ और जल्लाद में. यह किसानों और विशाल निगमों (कार्पोरेशन) के बीच सत्ता के पहले से ही अन्यायपूर्ण असंतुलन को भी बढाता है.

दिल्ली की सतर्क बार काउंसिल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखे पत्र में यह पूछा है, ’ऐसी कोई भी विधिक प्रक्रिया जिससे नागरिक प्रभावित हो सकते हैं, प्रशासनिक एजेंसियों से जुड़े ढांचों, जिन्हें कार्यपालिका के अधिकारियों द्वारा नियंत्रित और संचालित किया जाता है, को कैसे सौंपी जा सकती है ?’

दिल्ली बार काउंसिल ने कार्यपालिका को न्यायिक शक्तियों के हस्तांतरण को ’खतरनाक और बड़ी भूल’ बताया है. और कानूनी पेशे पर इसके प्रभाव के बारे में कहा है, ’यह विशेष रूप से जिला अदालतों को काफी नुकसान पहुंचाएगा और वकीलों को उखाड़ फेंकेगा.’

अभी भी आपको लगता है कि ये कानून केवल किसानों के बारे में हैं ?

खंड 19 में कहा गया है, ’किसी भी सिविल न्यायालय को ऐसे किसी भी वाद के संबंध में कोई मुकदमा या कार्यवाही का अधिकार नहीं होगा, जो कि उप-विभागीय प्राधिकरण या अपीलीय प्राधिकारी को इस अधिनियम द्वारा या इसके तहत प्राप्त है कि वह निर्णय करे और इस अधिनियम के द्वारा या इसके तहत या इसके अंतर्गत बनाए गए किसी भी नियम द्वारा दी गई किसी भी शक्ति के अनुसरण में की गई या की जाने वाली किसी भी कार्यवाही के संबंध में किसी न्यायालय या अन्य प्राधिकारी द्वारा कोई निषेधाज्ञा नहीं दी जाएगी (जोर देकर कहा गया).’

और जरा सोचिए कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19 वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, शांतिपूर्ण सम्मेलन, संचरण की स्वतंत्रता, संगम या संघ बनाने का अधिकार … के बारे में है.

इस कृषि कानून के खंड 19 का सार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 पर भी प्रहार करता है, जो संवैधानिक उपचार (कानूनी कार्यवाही) के अधिकार की गारंटी देता है. अनुच्छेद 32 को संविधान की मूल संरचना का हिस्सा समझा जाता है.

’मुख्यधारा’ का मीडिया (उन प्लेटफॉर्माें के लिए एक अजीब शब्द, जिनकी सामग्री में 70 प्रतिशत से अधिक आबादी शामिल नहीं है) निश्चित रूप से भारतीय लोकतंत्र पर नए कृषि कानूनों के इन प्रभावों से अनजान नहीं हो सकता है लेकिन सार्वजनिक हित या लोकतांत्रिक सिद्धांतों की बजाय उनका पूरा ध्यान मुनाफा कमाने में लगा हुआ है.

उसमें शामिल हितों के टकराव (बहुवचन में) के बारे में किसी भी भ्रम को दूर करें. ये मीडिया भी निगम है. सबसे बडे भारतीय निगम का बिगबॉस देश का सबसे अमीर और सबसे बड़ा मीडिया मालिक भी है. ’अंबानी’ उन नामों में से एक है, जिन्हें दिल्ली के द्वार पर मौजूद किसानों ने अपने नारों में इस्तेमाल किया है. अन्य जगहों, छोटे स्तरों पर भी, हम लंबे समय से फोर्थ एस्टेट (प्रेस) और रियल एस्टेट (स्थावन संपदा) के बीच अंतर नहीं कर सके हैं. ’मुख्यधारा’ का मीडिया निगमों के हितों को नागरिकों के हितों (अकेले किसानों के नहीं) से उपर रखने के लिए दिलोजान से लगा हुआ है.

उनके अखबारों में और चैनलों पर, राजनीतिक रिपोर्टोे में (कुछ शानदार – और सामान्य – अपवादों के साथ) किसानों का दुष्प्रचार – अमीर किसान, केवल पंजाब से, खालिस्तानी, पाखंडी, कांग्रेसी, षडयंत्रकारी इत्यादि – तेज और लगातार होता रहा है.

हालांकि, बड़े मीडिया के संपादकीय एक अलग रूख अपनाते हैं. मगरमच्छ की करूणा. दरअसल, सरकार को इसे बेहतर तरीके से संभालना चाहिए था. जाहिर है, ये अधकचरी जानकारी रखने वाले गंवारों का समूह है जो देख नहीं सकता, लेकिन उसे सरकारी अर्थशात्रियों और प्रधानमंत्री की प्रतिभा को समझने लायक बनाया जाना चाहिए – जिन्होंने इस तरह के भलाई करने वाले और ध्यान रखने वाले कानून बनाए हैं, जो किसानों और बड़ी अर्थव्यवस्था के लिए भी महत्वपूर्ण हैं. ये कहने के बाद, वे जोर देते हैं, ये कानून महत्वपूर्ण और आवश्यक हैं और इन्हें लागू किया जाना चाहिए.

इंडियन एक्सप्रेस के एक संपादकीय में कहा गया है, ’इस पूरे प्रकरण में दोष सुधारों में नहीं, बल्कि जिस तरह से कृषि कानूनों को पारित किया गया, और सरकार की संचार की रणनीति, या इसकी कमी में है.’ एक्सप्रेस को यह भी चिंता है कि इसे सही ढंग से नहीं संभालने से अन्य महान योजनाओं को चोट पहुंचेगी, जो तीन कृषि कानूनों की तरह ही ’भारतीय कृषि की वास्तविक क्षमता से लाभान्वित होने के लिए आवश्यक सुधार’ है.

टाइम्स ऑफ इंडिया का अपने संपादकीय में कहना है कि सभी सरकारों के समक्ष प्राथमिक कार्य है ’किसानों में एमएसपी व्यवस्था के आसन्न हस्तांतरण की गलतफहमी को दूर करना.’ आखिरकार, ’केंद्र के सुधार पैकेज कृषि व्यापार में निजी भागीदारी को बेहतर बनाने का एक ईमानदार प्रयास है. कृषि आय दोगुनी करने की उम्मीदें इन सुधारों की सफलता पर टिकी हुई है ..’ और इन जैसे सुधारों से ’भारत के खाद्य बाजार की हानिकारक विकृतियां भी ठीक होंगी.’

हिन्दुस्तान टाइम्स के एंक संपादकीय में कहा गया है, ’इस कदम (नए कानूनों) का ठोस औचित्य है.’ और ’किसानों को यह समझना होगा कि कानूनों की वास्तविकता नहीं बदलेगी.; यह भी संवेदनशील होने की रट लगाता है. किसानों के बारे में उसका मानना है कि वे ’अतिवादी – पहचान के मुद्दों से खेल रहे हैं’ और अतिवादी सोच और कार्यवाही की वकालत करते हैं.

सरकार शायद इन सवालों से जूझ रही है कि किसान अनजाने में किन षडयंत्रकारियों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, किनके इशारें पर काम कर रहे हैं. संपादकीय लिखने वालों को यह बात स्पष्ट रूप से मालूम है कि वे किसका प्रतिनिधित्व करते हैं, इसलिए वे अपना पेट भरने वाले कॉर्पोरेट पंजे को काटना नहीं चाहते.

यहां तक कि उदारवादी और सबसे कम पक्षपाती टेलीविजन चैनलों पर, जिन सवालों पर चर्चा होती है वे सवाल भी हमेशा सरकार और उसके बंदी विशेषज्ञों और बुद्धिजीवियों के ढांचों के भीतर होते हैं.

कभी भी इस जैसे प्रश्नों पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया जाता, अभी क्यों ? और श्रम कानूनों को भी इतनी जल्दबाजी में क्यों पास किया गया ? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले चुनावों में भारी बहुमत से जीत हासिल की थी. उनके पास यह बहुमत कम से कम 2-3 साल और रहेगा. भारतीय जनता पार्टी की सरकार को यह क्यों लगा कि महामारी की चरम सीमा ही इन कानूनों को पास करने का एक अच्छा समय है – जबकि महामारी के दौरान हजारों अन्य चीजें हैं, जिन पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है ?

उनका अनुमान यह था कि यही वह समय है, जब कोविड-19 से पस्त, महामारी से पीड़ित किसान और मजदूर किसी भी सार्थक तरीके से संगठित नहीं हो पाएंगे और विरोध नहीं कर पाएंगे. संक्षेप में, यह सिर्फ अच्छा ही नहीं बल्कि बेहतरीन समय था. इसमें उन्हें अपने विशषज्ञों की मदद भी मिली, जिनमें से कुछ को इस स्थिति में ’एक दूसरा 1991 का क्षण’ दिखाई दिया, उन्हें मौलिक सुधार करने, हौसला तोड़ने, संकट और अराजकता से फायदा उठाने का मौका मिल गया. और प्रमुख संपादकों ने शासन से ‘अच्छे संकट को बर्बाद नहीं करने’ की मांग की. और नीति आयोग के प्रमुख ने घोषणा कर दी कि उन्हें भारत के ‘कुछ ज्यादा ही लोकतांत्रिक’ होने से चिढ है.

और इस बेहद महत्वपूर्ण सवाल पर कि ये कानून असंवैधानिक हैं, सतही और असंवेदनशील टिप्पणी की जा रही है. केंद्र सरकार को यह अधिकार ही नहीं है कि वह राज्य सूची के विषय पर कोई कानून बनाए.

इन अखबारों के संपादकीय में इस बात पर भी ज्यादा चर्चा नहीं हो रही है कि किसानों ने इस मुद्दे को सुलझाने के लिए एक समिति गठन करने के सरकार के प्रस्ताव को इतनी अवमानना के साथ खारिज क्यों कर दिया. देश भर का हर किसान अगर किसी समिति की रिपोर्ट को जानता और उसे लागू करने की मांग करता है, तो वह राष्ट्रीय किसान आयोग है – जिसे वे ’स्वामीनाथन रिपोर्ट’ कहते हैं. कांग्रेस 2004 से और भाजपा 2014 से उस रिपोर्ट को लागू करने का वादा करते हुए उसे दफनाने के लिए एक-दूसरे से मुकाबला करने में लगी हुई है.

और, हां, नवंबर 2018 में 1,00,000 से अधिक किसान दिल्ली में संसद के पास इकट्ठा हुए थे और उस रिपोर्ट की प्रमुख सिफारिशों को लागू करने की मांग की थी. उन्होंने कर्ज माफी, न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी, और कृषि संकट पर चर्चा करने के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाने सहित कई अन्य मांगें की थीं. संक्षेप में, किसानों की उन बहुत सारी चीजों में से यही कुछ मांगें हैं, जो अब दिल्ली दरबार को चुनौती दे रही हैं. और वे केवल पंजाब ही नहीं, बल्कि 22 राज्यों और चार केंद्र शासित प्रदेशों से थे.

किसानों ने ’एक कप चाय के रूप में सरकार की ओर से बहुत कुछ स्वीकार करने से इंकार करते हुए – हमें यह दिखाने की कोशिश की है कि सरकार ने उनके बारे में जो अनुमान लगाया था कि डर और हताशा के कारण वे एकजुट नहीं हो सकते, वह गलत था. वे अपने (और हमारे) अधिकारों के लिए पहले भी खड़े थे और आगे भी रहेंगे ओर अपने आपको बड़े जोखिम में डालकर इन कानूनों का विरोध करते रहेंगे.

उन्होंने बार-बार एक और बात भी कही है, जिसे ’मुख्यधारा’ का मीडिया नजरअंदाज कर रहा है. वे हमें चेतावनी देते रहे हैं कि भोजन पर कॉर्पोरेट के नियंत्रण से देश पर क्या प्रभाव पड़ने वाला है. क्या आपने हाल ही में इस पर कोई संपादकीय देखा है ?

उनमें से कई लोग यह जानते हैं कि वे अपने लिए, या पंजाब के लिए, इन तीन कानूनों को निरस्त कराने से कहीं ज्यादा बड़ी लड़ाई लड़ रहे हैं. उन कानूनों को निरस्त कराने से इससे ज्यादा कुछ नहीं मिलेगा कि हम वहीं वापस पहुंच जाएंगे, जहां हम पहले थे – जो कभी अच्छी जगह नहीं थी. एक भयानक और वर्तमान में जारी कृषि संकट की ओर. लेकिन यह कृषि की दुर्गति में इन नई वृद्धि को रोकेगा या उन्हें धीमा कर देगा.

और हां, ‘मुख्यधारा के मीडिया’ के विपरीत, किसान इन कानूनों में नागरिक के संवैधानिक उपचार के अधिकार को हटाने और हमारे अधिकारों को समाप्त करने के महत्व को देख रहे हैं. और भले ही वे इसे उस तरह से न देख सकें या व्यक्त कर सकें उनकी रक्षा के लिए संविधान की मूल संरचना और खुद लोकतंत्र मौजूद है.

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