Home कविताएं यह आर्तनाद नहीं, एक धधकती हुई पुकार है !

यह आर्तनाद नहीं, एक धधकती हुई पुकार है !

14 second read
0
0
147
यह आर्तनाद नहीं, एक धधकती हुई पुकार है !
यह आर्तनाद नहीं, एक धधकती हुई पुकार है !

जागो मृतात्माओ !
बर्बर कभी भी तुम्हारे दरवाज़े पर दस्तक दे सकते हैं.
कायरो ! सावधान !!
भागकर अपने घर पहुंचो और देखो
तुम्हारी बेटी कॉलेज से लौट तो आयी है सलामत,
बीवी घर में महफूज़ तो है.
बहन के घर फ़ोन लगाकर उसकी भी खोज-ख़बर ले लो !
कहीं कोई औरत कम तो नहीं हो गयी है
तुम्हारे घर और कुनबे की ?

मोहनलालगंज, लखनऊ के निर्जन स्कूल में जिस युवती को
शिकारियों ने निर्वस्त्र दौड़ा-दौड़ाकर मारा 17 जुलाई को,
उसके जिस्म को तार-तार किया
और वह जूझती रही, जूझती रही, जूझती रही…
…अकेले, अन्तिम सांस तक
और मदद को आवाज़ भी देती रही
पर कोई नहीं आया मुर्दों की उस बस्ती से
जो दो सौ मीटर की दूरी पर थी.
उस स्त्री के क्षत-विक्षत निर्वस्त्र शव की शिनाख़्त नहीं हो सकी है.

पर कायरो ! निश्चिन्त होकर बैठो
और पालथी मारकर चाय-पकौड़ी खाओ
क्योंकि तुम्हारे घरों की स्त्रियां सलामत हैं.
कुछ किस्से गढ़ो, कुछ कल्पना करो, बेशर्मो !
कल दफ्तर में इस घटना को एकदम नये ढंग से पेश करने के लिए.
बर्बर हमेशा कायरों के बीच रहते हैं.
हर कायर के भीतर अक्सर एक बर्बर छिपा बैठा होता है.
चुप्पी भी उतनी ही बेरहम होती है
जितनी गोद-गोदकर, जिस्म में तलवार या रॉड भोंककर
की जाने वाली हत्या.

हत्या और बलात्कार के दर्शक,
स्त्री आखेट के तमाशाई
दुनिया के सबसे रुग्ण मानस लोगों में से एक होते हैं.
16 दिसम्बर 2012 को चुप रहे
उन्हें 17 जुलाई 2014 का इन्तज़ार था
और इसके बीच के काले अंधेरे दिनों में भी
ऐसा ही बहुत कुछ घटता रहा.

कह दो मुलायम सिंह कि ‘लड़कों से तो ग़लती हो ही जाती है,
इस बार कुछ बड़ी ग़लती हो गयी.’
धर्मध्वजाधारी कूपमण्डूकों, भाजपाई फासिस्टों,
विहिप, श्रीराम सेने के गुण्डों, नागपुर के हाफ़पैण्टियों,
डांटो-फटकारो औरतों को
दौड़ाओ डण्डे लेकर
कि क्यों वे इतनी आज़ादी दिखलाती हैं सड़कों पर
कि मर्द जात को मजबूर हो जाना पड़ता है
जंगली कुत्ता और भेड़िया बन जाने के लिए.
मुल्लाे ! कुछ और फ़तवे जारी करो
औरतों को बाड़े में बन्द करने के लिए,
शरिया क़ानून लागू कर दो,
‘नये ख़लीफ़ा’ अल बगदादी का फ़रमान भी ले आओ,
जल्दी करो, नहीं तो हर औरत
लल द्यद बन जायेगी या तस्लीमा नसरीन की मुरीद हो जायेगी.

बहुत सारी औरतें बिगड़ चुकी हैं
इन्हें संगसार करना है, चमड़ी उधेड़ देनी है इनकी,
ज़िन्दा दफ़न कर देना है
त्रिशूल, तलवार, नैजे, खंजर तेज़ कर लो,
कोड़े उठा लो, बागों में पेड़ों की डालियों से फांसी के फंदे लटका दो,
तुम्हारी कामाग्नि और प्रतिशोध को एक साथ भड़काती
कितनी सारी, कितनी सारी, मगरूर, बेशर्म औरतें
सड़कों पर निकल आयी हैं बेपर्दा, बदनदिखाऊ कपड़े पहने,
हंसती-खिलखिलाती, नज़रें मिलाकर बात करती,
अपनी ख़्वाहिशें बयान करती !
तुम्हें इस सभ्यता को बचाना है
तमाम बेशर्म-बेग़ैरत-आज़ादख़्याल औरतों को सबक़ सिखाना है.

हर 16 दिसम्बर, हर 17 जुलाई
देवताओं का कोप है
ख़ुदा का कहर है
बर्बर बलात्कारी हत्यारे हैं देवदूत
जो आज़ाद होने का पाप कर रही औरतों को
सज़ाएं दे रहे हैं इसी धरती पर
और नर्क से भी भयंकर यन्त्रणा के नये-नये तरीके आज़माकर
देवताओं को ख़ुश कर रहे हैं.

बहनो ! साथियो !!
डरना और दुबकना नहीं है किसी भी बर्बरता के आगे.
बकने दो मुलायम सिंह, बाबूलाल गौर और तमाम ऐसे
मानवद्रोहियों को, जो उसी पूंजी की सत्ता के
राजनीतिक चाकर हैं, जिसकी रुग्ण-बीमार संस्कृति
के बजबजाते गटर में बसते हैं वे सूअर
जो स्त्री को मात्र एक शरीर के रूप में देखते हैं.
इसी पूंजी के सामाजिक भीटों बांबियों-झाड़ियों में
वे भेड़िये और लकड़बग्घे पलते हैं
जो पहले रात को, लेकिन अब दिन-दहाड़े
हमें अपना शिकार बनाते हैं.
क़ानून-व्यवस्था को चाक-चौबन्द करने से भला क्या होगा
जब खाकी वर्दी में भी भेड़िये घूमते हों
और लकड़बग्घे तरह-तरह की टोपियां पहनकर
संसद में बैठे हों ?

मोमबत्तियां जलाने और सोग मनाने से भी कुछ नहीं होगा.
अपने हृदय की गहराइयों में धधकती आग को
ज्वालामुखी के लावे की तरह सड़कों पर बहने देना होगा.
निर्बन्ध कर देना होगा विद्रोह के प्रबल वेगवाही ज्वार को.
मुट्ठियां ताने एक साथ, हथौड़े और मूसल लिए हाथों में निकलना होगा
16 दिसम्बर और 17 जुलाई के ख़ून जिन जबड़ों पर दीखें,
उन पर सड़क पर ही फैसला सुनाकर
सड़क पर ही उसे तामील कर देना होगा.

बहनो ! साथियो !!
मुट्ठियां तानकर अपनी आज़ादी और अधिकारों का
घोषणापत्र एक बार फिर जारी करो,
धर्मध्वजाधारी प्रेतों और पूंजी के पाण्डुर पिशाचों के खि़लाफ़.
मृत परम्पराओं की सड़ी-गली बास मारती लाशों के
अन्तिम संस्कार की घोषणा कर दो.
चुनौती दो ताकि बौखलाये बर्बर बाहर आयें खुले में.
जो शिकार करते थे, उनका शिकार करना होगा.
बहनो ! साथियो !!
बस्तियों-मोहल्लों में चौकसी दस्ते बनाओ !
धावा मारो नशे और अपराध के अड्डों पर !
घेर लो स्त्री-विरोधी बकवास करने वाले नेताओं-धर्मगुरुओं को सड़कों पर
अपराधियों को लोक पंचायत बुलाकर दण्डित करो !
अगर तुम्हे बर्बर मर्दवाद का शिकार होने से बचना है
और बचाना है अपनी बच्चियों को
तो यही एक राह है, और कुछ नहीं, कोई भी नहीं.

बहनो ! साथियो !!
सभी मर्द नहीं हैं मर्दवादी.
जिनके पास वास्तव में सपना है समतामूलक समाज का
वे स्त्रियों को मानते हैं बराबर का साथी,
जीवन और युद्ध में.
वे हमारे साथ होंगे हमारी बग़ावत में, यकीन करो !
श्रम-आखेटक समाज ही स्त्री आखेट का खेल रचता है.
हमारी मुक्ति की लड़ाई है उस पूंजीवादी बर्बरता से
मुक्ति की लड़ाई की ही कड़ी,
जो निचुड़ी हुई हड्डियों की बुनियाद पर खड़ा है.
इसलिए बहनो ! साथियो !!
कड़ी से कड़ी जोड़ो ! मुट्ठियों से मुट्ठियां !
सपनों से सपने ! संकल्पों से संकल्प !
दस्तों से दस्ते !
और आगे बढ़ो बर्बरों के अड्डों की ओर !

  • कात्यायनी
    18 जुलाई 2014
    (लखनऊ के मोहनलालगंज इलाके में 17 जुलाई 2014 को एक युवती के बर्बर बलात्कार और हत्या के बाद लिखी गई)

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]

scan bar code to donate
scan bar code to donate
Pratibha Ek Diary G Pay
Pratibha Ek Diary G Pay
Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
  • शातिर हत्यारे

    हत्यारे हमारे जीवन में बहुत दूर से नहीं आते हैं हमारे आसपास ही होते हैं आत्महत्या के लिए ज…
  • प्रहसन

    प्रहसन देख कर लौटते हुए सभी खुश थे किसी ने राजा में विदूषक देखा था किसी ने विदूषक में हत्य…
  • पार्वती योनि

    ऐसा क्या किया था शिव तुमने ? रची थी कौन-सी लीला ? ? ? जो इतना विख्यात हो गया तुम्हारा लिंग…
Load More In कविताएं

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

चूहा और चूहादानी

एक चूहा एक कसाई के घर में बिल बना कर रहता था. एक दिन चूहे ने देखा कि उस कसाई और उसकी पत्नी…