हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
शानदार तो नहीं, लेकिन एक उल्लेखनीय राजनीतिक यात्रा अपने शर्मनाक अंत तक पहुंच रही है. भाजपा के समक्ष नीतीश कुमार का समर्पण किन रहस्यों को समेटे हुए है, यह पूरी तरह शायद कभी सामने न आ सके लेकिन इतना तय है कि जो हुआ वह स्वाभाविक तो बिल्कुल नहीं है.
हम अस्वाभाविकताओं के दौर में जी रहे हैं. दलित चेतना की आभा की प्रतीक रहीं मायावती किन्हीं अज्ञात कारणों से प्रतिरोध की मुख्यधारा से बाहर हैं और जैसी कि आशंकाएं हैं, आगामी लोकसभा चुनावों में उनकी राजनीतिक डोर किन्हीं अदृश्य हाथों में होगी.
समर्थक हों या विरोधी, सब लगभग एक स्वर में कहते थे कि नीतीश कुमार विपक्ष के एकमात्र ऐसे बड़े चेहरे हैं जिन्हें केंद्रीय जांच एजेंसियों के दायरे में लाना आसान नहीं है. अठारह वर्षों के मुख्यमंत्रित्व के बाद भी किसी का इतना बेदाग होना विश्लेषकों के एक वर्ग की नजर में नीतीश को नरेंद्र मोदी के बरक्स खड़ा करने का मजबूत तर्क देता था. सपाट तरीके से सोचें तो यह तर्क प्रभावित भी करता था क्योंकि नीतीश जी का ओबीसी होना, हिंदी पट्टी का प्रभावशाली नेता होना आदि भी महत्वपूर्ण कारक के रूप में गिनाए जाते थे.
कई कारणों से स्वाभाविक तौर पर यह लगता था कि आगामी चुनावों में नीतीश कुमार विपक्षी राजनीति को एक प्रभावी धार दे सकते हैं. बहुत सारे विश्लेषक तो ऐसी रणनीतियों पर लंबी लंबी परिचर्चाएं करते थे कि नीतीश उत्तर प्रदेश की किसी अनुकूल लोकसभा सीट पर चुनाव लडेंगे और इंडिया गठबंधन के वोट बैंक को यूपी में ही नहीं, मध्य प्रदेश और झारखंड के भी कई इलाकों में एक नया विस्तार देंगे.
लेकिन, दौर चूंकि अस्वाभाविकताओं का है, हमने टीवी स्क्रीन पर देखा कि बुझे और थके चेहरे के साथ नीतीश कुमार राज्यपाल के समक्ष रिकार्ड 9वीं बार नई सरकार चलाने की शपथ ले रहे थे और उनकी बगल में भाजपा के उनके नए सहयोगियों की कतार थी.
लोगों ने ऐसे मंजर कम ही देखे होंगे कि नई सरकार का शपथ ग्रहण समारोह हो रहा हो और शपथ लेने वालों में एकाध को छोड़ किसी का चेहरा उल्लास से दमक न रहा हो. जीतनराम मांझी के सुपुत्र जी और एक निर्दलीय जी को छोड़ किस शपथ लेने वाले के चेहरे पर आंतरिक खुशी नजर आ रही थी, इसे देखने समझने के लिए कोई चाहे तो फिर से उस वीडियो को देख सकता है.
बिहार के एक चर्चित पत्रकार ने कहा कि यह सत्ता परिवर्तन नहीं, सत्ता का अपहरण है. हालांकि, अब के दौर में विभिन्न राज्यों में ऐसे अपहरणों के कई उदाहरण गिनाए जा सकते हैं लेकिन बिहार के इस घटनाक्रम की बात बिल्कुल अलग है.
चाहे जातीय गणना का मुद्दा हो, आरक्षण के दायरे को बढ़ाने का मामला हो या कम समय में रिकार्ड तोड़ संख्या में सरकारी नौकरियां देने का क्रेडिट हो, अब अतीत बन चुकी महागठबंधन की सरकार अच्छी खासी चल रही थी. भाजपा को दिक्कत थी कि ऐसा ही चलता रहेगा तो लोकसभा में पिछली उपलब्धियों को दोहराना कठिन होगा. भाजपा की दिक्कत समझ में आती है और उसने इस सरकार को गिराने के लिए जो किया यह उसकी जरूरत हो सकती है.
लेकिन, सवाल उठता है कि नीतीश कुमार के ऐसे कौन से निकट सहयोगी-सलाहकार थे जिन्हें इस सरकार को गिराने और भाजपा के साथ नई सरकार बनाने की बेताबी थी ? निश्चय ही कुछ सांसद होंगे जिन्हें डर होगा कि वे पिछला चुनाव लालू विरोधी मतों को पा कर जीते हैं और अगला चुनाव महागठबंधन की ओर से लड़ने में उन्हें दिक्कतें पेश आ सकती हैं. लेकिन, यह कोई इतनी बड़ी बात नहीं है कि इस आधार पर वे नीतीश कुमार को विवश कर दें और भाजपा के पाले में फिर से ले आएं.
फिर वे कौन हैं जिन्होंने नीतीश कुमार को विवश किया ? तरह तरह की व्याख्याएं हैं जो लोग कर रहे हैं और अगले कुछ दिनों तक करते रहेंगे. शायद ही पूरा सच कभी सामने आ पाए.
लेकिन, नीतीश कुमार उदाहरण हैं कि कोई नेता अगर राजनीतिक-प्रशासनिक रूप से नौकरशाहों की खास मंडली पर जरूरत से ज्यादा निर्भर करने लगे, अगर उसके अगल-बगल जनाधार विहीन राजनेताओं की मंडली जमा हो जाए और समय एवं परिस्थितियों के अनुसार खासी प्रभावशाली भी हो जाए तो एक दिन बड़े से बड़े आभामंडल वाले नेता की भी मिट्टी पलीद होना तय है.
सभी के लिए उम्र महज एक संख्या नहीं होती. सबके अपने पारिवारिक-सामाजिक आधार होते हैं. उस आधार पर बनता-बिगड़ता अपना मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य होता है. 77 वर्ष की उम्र में बाइडन अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव लड़ सकते हैं, जीत सकते हैं, फिर चार सालों तक दुनिया को हांक सकते हैं और फिर 81 की उम्र में भी नए जोश के साथ नई चुनौतियों के मैदान में उतर सकते हैं.
आडवाणी हों, मनमोहन हों या स्वर्गीय मोरारजी, कई उदाहरण हैं. उन्हें लेकर कभी अफवाहें नहीं उड़ी कि कोई चौकड़ी उनकी उम्र जनित समस्याओं का लाभ उठा कर उनके राजनीतिक फैसलों पर हावी हो रही है. लेकिन, नीतीश कुमार को लेकर ऐसी अफवाहें चल रही हैं. नीतीश कुमार जैसे मजबूत व्यक्तित्व के लिए यह स्वाभाविक तो कतई नहीं लगता, लेकिन जो मंजर सामने है वह कई आशंकाओं को बल देता है.
नीतीश बेदाग होंगे ऐसा संभव है, लेकिन वर्षों से उन्हें घेरे, अपने घटिया स्वार्थों में लिप्त नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों की मंडली में कौन कितना बेदाग है, यह कौन बता सकता है ? केंद्रीय एजेंसियों की आंच अगर उनमें से कुछ तक पहुंच रही हो और उसका असर राजनीतिक ब्लैकमेलिंग के रूप में सामने आ रहा हो तो इसमें क्या आश्चर्य ?
एक बात के लिए तेजस्वी यादव को नीतीश जी का, उनके निर्णयों पर कथित रूप से प्रभाव डालने वाले सलाहकारों का और इन तमाम घटना क्रमों का आभार मानना चाहिए कि उनके राजनीतिक व्यक्तित्व को इन सबने एक नई चमक दी है. उन्होंने छला नहीं है बल्कि वे छले गए के रूप में जनता के सामने जा सकते हैं. भले ही नीतीश जी रिकार्ड समय में लाखों नौकरियों का क्रेडिट लें, लेकिन बिहार के बेरोजगार नौजवानों के बीच तेजस्वी की ही चर्चा है और यह जाति धर्म से ऊपर उठ कर उनके प्रति युवाओं के अनुराग का एक अध्याय है.
आगे वे (तेजस्वी यादव) क्या करते हैं, कैसे बिहार की राजनीति को संभालते हैं, यह उन पर निर्भर करता है. अवसान तो सबका होता है, लेकिन नीतीश कुमार अवसान के ऐसे रास्ते पर लुढ़कने के लिए नहीं बने थे. आज उनके अराजनीतिक प्रशंसकों के मन में ऐसी गहरी और अव्यक्त सी उदासी पसरी है, जिसका परिहार करने का नीतीश जी को अब कोई अवसर शायद ही मिले.
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