जगदीश्वर चतुर्वेदी
इलाहाबाद कुंभ को महाकुंभ बना दिया यूपी सरकार ने, पहले वे अर्द्ध कुंभ को महाकुंभ 2019 में बना चुके हैं. हिंदू परंपरा में कुंभ है, अर्द्धकुंभ है, लेकिन सरकार ने महाकुंभ नाम देकर हिंदू परंपरा को विकृत करने की कोशिश की है. आरएसएस के लोग धर्म, परंपरा, इतिहास, ज्योतिष और संस्कृति में बड़े पैमाने पर विकृतिकरण कर रहे हैं. इलाहाबाद के कुंभ-अर्द्धकुंभ को महाकुंभ नाम देना उसी बृहतर विकृतिकरण अभियान का अंग है.
देश के सरकारी और गैर सरकारी सभी पंचांग बता रहे हैं कि यह अर्द्धकुंभ है लेकिन योगी -मोदी सरकार कह रही है महाकुंभ है. दुर्भाग्य की बात है कि संत-महंत भी नाम के विकृतिकरण का विरोध नहीं कर रहे, इस विकृतिकरण के गंभीर परिणाम होंगे. यह विकृतिकरण सन् 2019 से चल रहा है. विकृतिकरण के बहाने संघ-मोदी-योगी आम जनता में अपनी वैचारिक विकृतिकरण की कोशिशों को वैध बनाने की कोशिश कर रहे हैं. तमाम यूट्यूब चैनल-टीवी चैनल भी इसमें शामिल हो गए हैं. यह पतन की निशानी है.
महाकुंभ नामकरण फेक है. महाकुंभ का कोई प्रावधान हिंदू शास्त्रों में नहीं है. सवाल यह है हिंदू परंपराओं में विकृतिकरण करके संघी लोग इस देश को क्या संदेश दे रहे हैं ? प्रगतिशील ताकतों की यह जिम्मेदारी बनती है कि इस विकृतिकरण का मुंहतोड़ जवाब दें.
कोई भी धर्म या सम्प्रदाय हमें बुनियादी धार्मिक विश्वासों और मान्यताओं की पुष्टि करने का प्रामाणिक मार्ग नहीं बताता. हर बार नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी की मान्यताओं और रूढ़ियों की आलोचना करती है.
भारत में गैर कट्टरपंथी धार्मिक संतों-महंतों ने विगत दो सौ साल में पैदा हुए मानवीय विचारों और मान्यताओं को अपने चिन्तन-मनन का हिस्सा बनाया है और नई तकनीक और समारोहधर्मिता को भी अपना लिया है. इसे धर्म पर लोकतांत्रिक प्रभाव भी कह सकते हैं. इन संतों ने धर्म का आधुनिकीकरण भी किया है. आजकल संत नेट और मोबाइल कनेक्टेड हैं. नियमित टीवी शो भी करते हैं.
कुंभ में डुबकी लगाने वाले या मंदिर जानेवाले ज्यादातर आधुनिक लोग धर्म की सतही बातें जानते और मानते हैं. धार्मिक ज्ञानात्मक चेतना की बजाय उनमें धार्मिकरूपात्मक चेतना ज्यादा होती है.
इलाहाबाद कुंभ धार्मिक पर्व नहीं है बल्कि धर्मनिरपेक्ष जनपर्व है. इसमें धर्मचेतना नहीं धर्मनिरपेक्षचेतना के रूपों के दर्शन ज्यादा मिलेंगे.
यहां धार्मिक ज्ञानवार्ता की बजाय संगमस्नान, देवताओं के दर्शन आदि का महत्व ज्यादा है. धार्मिकग्रंथों का गौण हो जाना और धार्मिक प्रतीकों में जनता का मगन हो जाना वस्तुतः धर्म के धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया का अंग है. कुंभ में नहाना या जाना आस्था का सवाल नहीं है. नदी में लोग नहाने जाते हैं अपनी आदत और इच्छा के अनुसार.
स्नान आस्था नहीं मानवीय आदत है, स्वभाव है. यह किसी पुण्य-पाप से प्रेरित नहीं है. यह शुद्ध आनंद है, इवेंट है. कुंभयात्री किसी कट्टरपंथी विचार से प्रेरित होकर संगम में गोते नहीं लगाते. ये लोग संतों-महंतों को कठमुल्लेपन से प्रेरित होकर नहीं देखते बल्कि इनके प्रति उदारभावबोध से पेश आते हैं. इस अर्थ में ही कुंभमेला आस्था का मेला नहीं है, यह धर्मनिरपेक्ष उदारभावों का मेला है.
प्रत्येक धर्म हमको सत्य की शिक्षा देता है लेकिन सत्य क्या है इसके प्रमाण नहीं देता. आमलोग भगवान पदबंध का धर्मनिरपेक्षभाव से इस्तेमाल करते हैं. ईश्वर या भगवान के पदबंध का जो लोग इस्तेमाल करते हैं, वे उसके बारे में कोई आलोचना सुनना पसंद नहीं करते. इसका अर्थ यह है कि ईश्वर या भगवान उनके लिए सहिष्णुता का प्रतीक है. और वे भगवान के बहाने सहिष्णुता का मैसेज देना चाहते हैं. यह भगवान की मॉडर्न भूमिका है.
अनेक धार्मिक लोग हमें पवित्रता का संदेश देते हैं लेकिन पवित्रता अब अतीत की वस्तु बन चुकी है. कोई वस्तु, विचार, मानवीय व्यवहार शुचिता या पवित्रता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता.
पवित्रता के लिए लड़ी गयी जंग वस्तुतः अतीत के लिए लड़ी जा रही जंग है. पवित्रता की जंग अतीत में ठेलती है. जब अतीत में जाते हैं वहां पर भी पाते हैं कि हम पवित्र नहीं थे क्योंकि अतीत कभी भी पवित्र नहीं रहा. पवित्रता के झगड़े पीछे ले जाते हैं.
यही वजह है कि आधुनिककाल में धर्मगुरूओं ने पवित्रता के सवाल को बस्तों में बंद कर दिया है और उसकी जगह स्वच्छता और सफाई के सवाल आ गए हैं. अर्द्धकुंभ अस्वच्छता सबसे बड़ी असफलता है.
मुझे भारत देश चाहिए, इण्डिया ब्रांड नहीं चाहिए. जिनलोगों को भारत को ब्रांड बनाने की चिन्ता है, वे भारत को नहीं जानते वे सिर्फ दलालों और परजीवी पूंजीपति के चरणकमलों को जानते हैं. ये ही लोग अब भगवान राम को धर्म के बाहर ले जाकर राम को ब्रांड बनाने में लगे हैं. राम को ब्रांड बनाना राम का अवमूल्यन है. अब ये कुंभ को ब्रांड बनाकर उसके महत्व का अवमूल्यन कर रहे हैं. मुझे कुंभ चाहिए महाकुंभ ब्रांड नहीं चाहिए. यह नकली है.
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