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यह आदिवासियों के संसाधनों को छीनने का युद्ध है – हिमांशु कुमार

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वीणा और मैंने शादी के 20 दिन बाद दंतेवाड़ा के कंवलनार गांव में रहना शुरू किया था, बिना दीवार की झोपड़ी में. वीणा और मैं रात को आदिवासियों को इकट्ठा करके पढ़ाते थे. उस वक्त गांव वालों को देश का नाम नहीं पता था. हमने पहली बार तिरंगा झंडा फहराया. 18 साल काम करने के बाद सरकार ने आश्रम पर बुलडोजर चला दिया क्योंकि हमने आदिवासियों के मानवाधिकारों के मुद्दों को उठाया था. लोग कहते हैं सरकार से मिलकर चलते तो आज मालामाल हो जाता. लेकिन जो चुप रह सकती वह जुबान कहां से लाता !

‘तुम्हें डर नहीं लगता कनीज़ ? हुज़ूर मुहब्बत कीजियेगा तो दिल से खौफ़ निकल जायेगा.’ – मुगले आज़म फिल्म का दृश्य. यही मेरा कहना है. जब आप जनता से सचमुच प्यार करते हैं तो आपके दिल से जेल जाने या मौत का खौफ़ निकल जाता है. तुम्हें दिल्लगी भूल जानी पड़ेगी. मोहब्बत की राहों में आकर तो देखो. मैं सुन रहा हूं आप भी सुनिए. मानस भूषण के साथ हिमांशु कुमार का यह इंटरव्यू –

प्रश्न- आपने आदिवासियों के बीच काफी समय तक काम किया है. आदिवासी शब्द सुनते ही अक्सर शहर के लोग उनके बारे में जो छवि बनाते हैं, वो काफी खतरनाक होती है. जैसे कि वे जाहिल हैं, हिंसक हैं, गंवार हैं आदि. क्या आप बता सकते हैं कि आदिवासी समाज के लोग मूल रूप से कैसे हैं ? आपका उनके साथ अनुभव कैसा रहा ?

हिमांशु – आदिवासी समाज के बारे में जो शहरों में धारणा बनी हुई है वो हिंदी फिल्मों या कुछ हॉलीवुड की फिल्मों के आधार पर बनी हुई हैं.

भारत के शहरी समाज का प्रत्यक्ष या सीधा सीधा अनुभव बहुत कम है. इसलिए फिल्मों में बनायीं गयी काल्पनिक छवि के आधार पर भारत का समाज आदिवासियों के बारे में सोचता है. लेकिन फिल्मों में जो छवि बनाई है आदिवासियों की वो पूरी तरह से झूठी और गलत है.

आदिवासी बिलकुल वैसे नहीं हैं जैसे फिल्मों में दिखाए जाते हैं.

मैं और मेरी पत्नी अपनी शादी के 20 दिन बाद आदिवासी इलाके में चले गए थे, और हमने एक पेड़ के नीचे रहना शुरू किया और हम उनके साथ 18 साल रहे.

आदिवासी बहुत प्यार करने व मिलजुलकर रहने वाले लोग होते हैं. हमने उनके बच्चों, उनकी महिलाओं के साथ काम किया, उनकी सेवा की और बदले में उन्होंने भी हमें प्यार दिया.

मेरी दोनों बेटियों का जन्म आदिवासी गांव में हुआ. मेरी दोनों बेटियों का पालन पोषण आदिवासी महिलाओं ने किया क्योंकि हम तो समाज सेवा में व्यस्त रहते थे.

आदिवासी लड़कियां हमारी बेटियों को आपने साथ ले जाती थी. उन्हें खिलाती रहती थी, वही उन्हें खाना खिलाती थी.

तो आदिवासी बहुत प्यार करने वाले लोग हैं. इसके आलावा आदिवासियों का जो अपना सामुदायिक जीवन है, वह भी गजब का है, जिसे हमारे बाकी की समाज को सीखने की जरुरत है.

आदिवासियों में बूढ़े लोगों को वृद्धाश्रम में छोड़ने का कोई रिवाज नहीं है, विकलांगों का आदिवासी समाज ध्यान रखता है, विधवा महिला का आदिवासी समाज ध्यान रखता है, बलात्कार शब्द आदिवासियों के शब्दकोश में होता ही नहीं है, तो आदिवासी समाज तो बहुत अच्छा व विकसित समाज है, जिससे बाकी के समाज को सीखने की जरुरत है.

प्रश्न- बॉलीवुड, हॉलीवुड या मुख्यधारा मीडिया में आदिवासियों की ऐसी छवि क्यों बनाई जाती है ? इसके क्या कारण है ?

हिमांशु – देखिये पहली बात तो यह कि आदिवासी भौगोलिक रूप से हमसे बहुत दूर है. आदिवासी जंगलों में रहते हैं और हम शहरों में. शहर में रहने वाले लोग जंगलों में जाते नहीं है, डरते हैं और दूसरा जगलों से शहर का नाता उपभोक्ता और लूट का है. शहर खुद कुछ नहीं उगाता, कुछ उत्पादन नहीं करता, शहर दूसरों के उत्पादन का हनन करके और उसका शोषण करके ही ज़िंदा रहता है.

जंगल में बिजली बनाई जाती है, बांध बनाये जाते हैं, वहां से पानी आता है, जंगल से लकड़ी आती है, कोयला आता है, लोहा आता है, जंगल से सारा सामान आता है तो जंगल और शहर का नाता लुटेरे और लूटने वाली जगह का है. इसलिए जंगल के बारे में शहर अगर कोई अच्छी धारणा बनाएगा तो उसे लूटने में दिक्कत होगी, इसलिए वो ख़राब धारणा ही बनाएगा कि जंगल में रहने वाले लोग ख़राब होते हैं, जंगली होते हैं, नक्सली होते हैं, इन्हें मार डालो, ये आतंकवादी हैं, ये विकास का विरोध करते हैं, ये हमारा विकास नहीं होने दे रहे.

इसलिए जंगल और जंगल में रहने वाले लोगों के बारे में जानबूझ के गलत प्रचार किया जाता है. अगर शहरी समाज से ये कहा जाये कि जंगल के लोग बहुत अच्छे हैं, हम शहर के लोगों के लिए जंगल के लोगों को मारा जा रहा है, उनको नक्सली कहके सरकार मार रही है- तो सरकार गलत कर रही है, सरकार उन पर अत्याचार कर रही है और हम उस अत्याचार के भागीदार हैं, वो अत्याचार भी शहरी समाज के लोगों के लिए किये जा रहे हैं. आदिवासी भी हमारे ही लोग हैं तो फिर शहर के लोगों का एक पूरी लूट का जो मजा है- वो ख़राब हो जायेगा, शहर अपनी इस लूट को बंद नहीं करना चाहता, इसलिए आदिवासियों के बारे में वो सिर्फ झूठ ही झूठ सुनना चाहता है.

प्रश्न- आदिवासी काफी लम्बे समय से अपने जल, जंगल, जमीन को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. आपने इनकी इस लड़ाई को करीब से देखा है. क्या आप उनके इस आंदोलन के बारे में थोड़ा विस्तार से बता सकते हैं ?

हिमांशु – देखिये आदिवासियों के संसाधनों को छीनने की प्रक्रिया कोई आज की नहीं है, ये तो सैंकड़ों वर्षों की है, या हजारों वर्षों की है. भारत में जो आर्यों के आक्रमण की बात कही जाती है उसमें भी कुछ सच्चाई देखने को मिलती है. भारत में जो मैदानी इलाके हैं, उन इलाकों पर जो कब्जे हैं वो किसके पास हैं ? तो आप देखेंगे की वो ज्यादातर बड़ी जातियों के पास हैं, ऐसा क्यों हुआ ? ऐसा इसलिए हुआ कि आर्यों ने आक्रमण करके यहां के मूलनिवासियों को हरा दिया, हरा कर उन्हें शूद्र बना दिया और उन्हें छोटे कामों में लगा दिया और जो बच के निकल गए, वो जंगलों में चले गए और वही रहने लग पड़े. आर्य वहां तक नहीं पहुंच पाए तो उन आदिवासियों को आर्यों ने राक्षस कहा और जो इनके पुराण लिखे गए, उसमें आदिवासियों को दानव एवं दैत्य कहा गया.

देव-दानव जो संग्राम है, असल में वो आदिवासियों के साथ आर्यों के युद्ध का वर्णन है, तो तथाकथिक सभ्य समाज और आदिवासी समाज का संघर्ष तो बहुत पहले से शुरू हो गया था. इसके साथ साथ अगर आप भगत सिंह का वो ख़त पढ़े, जो उन्होंने वायसरॉय को लिखा था उसमें वो लिखते हैं कि आपने जनता के खिलाफ एक युद्ध छेड़ा हुआ है, वो मेहनतकशों की मेहनत और संसाधनों की लूट को लेकर है और हम तो उसका जबाब दे रहे हैं, आप हमें युद्धबंदी मान कर गोली से उड़ा दीजिये. भगत सिंह ने तो घोषणा भी की थी की ये युद्ध चलता रहेगा और हमारा संघर्ष भी चलता रहेगा.

तो आजादी के बाद हम देखते हैं जो पूंजीवादी तबका है, वो भारत के संसाधनों पर लगातार कब्जे के लिए शासकीय मशीनरी जैसे कि पुलिस, अर्द्ध सैन्य बल आदि का इस्तेमाल कर रहा है. भारत का मजदूर जब पूरी मजदूरी मांगता है तो यही पुलिस और अर्धसैनिक बल, उस मजदूर को पीटते हैं तो सरकार पूरे तरीके से मजदूर के श्रम और संसाधन, दोनों को हथियार के बल पर छीन, पूंजीपतियों को देती है. ये एक तरह का युद्ध है और इस युद्ध में भारतीय सैन्यबल का इस्तेमाल किया जा रहा है, पूंजीपतियों के पक्ष में और आदिवासियों के खिलाफ.

तो ये जो आदिवासियों के संसाधनों को छीनने का युद्ध है ये बहुत पुराना है। जब नई आर्थिक नीतियां आई जिसमें उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण शामिल थे, उसके बाद ये लड़ाई बिलकुल स्पष्ट हो गयी. इसके बाद सरकार पूरी तरह से बेशर्म हो कर के आदिवासियों के गांवों को आग लगाना, उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार करना, नौजवानों को जेलों में डालना, उनकी हत्याएं करना, बच्चों को मारना, ये सब खुले आम किया. सलवा जुडूम आपने देखा होगा. ये मैं नहीं कह रहा बल्कि भारत के सुप्रीम कोर्ट का जजमेंट कह रहा है कि सलवा जुडुम जोसफ कोर्नाड की किताब ऐज ऑफ़ डार्कनेस की याद दिला देता है. भयाभय है ! भयाभय.

और सुप्रीम कोर्ट ने सलवा जुडूम को सविधान विरोधी घोषित किया, इसके बाद भी बेशर्म सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन भी नहीं रही है. तो ये देखा जा सकता है कि किस तरह से भारत के पूंजीपति और सरकार मिलकर आदिवासियों के खिलाफ युद्ध लड़ रहे हैं. इस समय भारत के सबसे ज्यादा अर्द्धसैनिक बल हैं वो कहां तैनात है ? आदिवासी इलाकों में क्या करने गए हैं ? आदिवासी संरक्षण देने गये हैं क्या ? आदिवासी तो आपने सुरक्षा नहीं मांग रहा है तो वो वहां गये क्यों हैं ?  संसाधनों पर कब्ज़ा करने के लिए ?

संसाधनों पर कब्ज़ा गरीबों के विकास के लिए नहीं किया जायेगा. संसाधनों पर कब्ज़ा किया जायेगा, अमीर पूंजीपतियों की तिजोरी भरने के लिए. इसका मतलब है कि मुट्ठीभर अमीरों की तिजोरी भरने के लिए भारत के सशस्त्रबलों को भारत की जनता के विरुद्ध उतार दिया गया है. अब जनता तो इसका जबाब देगी ही. जनता लड़ेगी. उसको भी अपनी जान बचानी है, जमीन बचानी है, आजीविका बचानी है, तो जनता लड़ रही है अब इस लड़ाई को सरकार कहती है कि हिंसा हो रही है लेकिन सरकार इतने बड़े पैमाने पर बंदूकधारी सैनिकों को उन इलाकों में भेजती है, उसे हिंसा नहीं कहती, उसको वो सुरक्षा कहती है. किसकी सुरक्षा ? किससे सुरक्षा ? तो ये लड़ाई चल रही है.

ये लड़ाई फ़ैल रही है और ये लड़ाई जब फैलेगी तो ये हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश, राजस्थान के किसानों की जमीन पर भी कब्ज़ा किया जायेगा. अम्बानी, अडानी और जिंदल के लिए इन गांवों में भी सीआरपीएफ बैठेगी. आप लिख कर ले लीजिये, कुछ समय बाद आदिवासी इलाकों के बाहर, गांव गांव में सीआरपीएफ भेजी जायेगी और वैसे ही दमन करेंगे जैसा आज आदिवासी इलाकों में किया जा रहा है.

आज हम आदिवासी इलाकों में होने वाली हिंसा को सहन कर रहे हैं और उसको सरकारी झूठे प्रचार के माध्यम से स्वीकार कर रहें हैं कि वो लोग आतंकवादी हो चुके हैं, इसलिए सरकार उनको सुधार रही है. लेकिन कुछ सालों कि बाद आप देखिएगा कि राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, मध्यप्रदेश के किसानों को भी आतंकवादी कहा जायेगा, जिसकी शुरुआत आप किसान आंदोलन में देख चुके हैं कि कैसे पंजाब और हरियाणा के किसानों को आतंकवादी कहा गया था. भारत के संसाधनों पर कब्ज़ा करने के लिए वो युद्ध फैलने वाला है जिसमें साम्प्रदायिकता का इस्तेमाल होगा.

प्रश्न- क्या आदिवासियों की ये लड़ाई अपने जल, जंगल, जमीन को बचाने के साथ अपने सांस्कृतिक अस्तित्व को भी बचाने की है ?

हिमांशु – बिलकुल, आज जो पूरा का पूरा शासन तंत्र चल रहा है ये शासन तंत्र आगे आगे सांस्कृतिक झंडा लेकर चल रहा है और ये पूरा ब्राह्मणवादी संस्कृति है, जिसमें औरत मर्दों की गुलाम बनकर रहेगी जिसमें तथाकथिक छोटी जातियां बड़ी जातियों की सेवक बनकर रहेगी. इस तरह के एजेंडा को ये लोग आगे लेकर चल रहें हैं और दलित और ओबीसी को भी बेबकूफ बनाने के लिए उसके सामने मुसलमानों का हऊआ खड़ा कर रहें हैं कि मुसलमान हमारे धर्म के लिए खतरा हैं, हमें इनसे लड़ना है और दलित और ओबीसी को इन्होंने अपने साथ जोड़ लिया है. और अब आदिवासीयों का भी जोड़ना चालू कर दिया है और उन्हें भी सांप्रदायिक बना रहें हैं. पितृसत्ता अब वहां भी फैलने लगी है. पूरे तरीके से अपने शोषणकारी संस्कृति को आगे रखके अपने पूंजीवादी एजेंडे को लागु कर रहें हैं. तो हमला तो होगा सांस्कृतिक हमला होगा और आदिवासी की संस्कृति को यह मिटा देंगे.

आदिवासियों में औरत और पुरुष बराबर हैं लेकिन जैसे जैसे वहां आरएसएस बढ़ रहा है, अब मैं देख रहा हूं कि पितृसत्ता बढ़ रही है, पुरुष वर्चस्व बढ़ रहा है, अब वहां पंडित वाली शादियां होने लगी हैं, औरतें सिंदूर लगाने लगी हैं, औरतें अब करवाचौथ मनाने लगी हैं और पूरी तरीके से पितृसत्ता का आदिवासियों के बीच स्थापित किया जा रहा है.

प्रश्न- अक्सर ये बात सुनने में आती है कि आदिवासियों का मुख्यधारा में जोड़ा जाना चाहिए. पहले तो मुख्यधारा का अर्थ क्या है ? और अब तक आदिवासियों का मुख्यधारा से क्यों नहीं जोड़ा गया ?

हिमांशु – ये आपने बहुत अच्छा सवाल किया कि इसमें मेरे जबाब का थोड़ा सा अंश है कि भारत की मुख्यधारा है क्या ? भारत में मुख्यधारा अगर संख्या से तय होनी है तो भारत में ज्यादातर लोग गावं के हैं, लेकिन हम तो शहर के लोगों को मुख्यधारा मानते हैं. गांव के लोगों को मुख्यधारा नहीं मानते. भारत में ज्यादातर लोग श्रम करने वाले मजदूर किसान हैं लेकिन हम उन्हें मुख्यधारा नहीं मानते. हम शहर के चंद नौकरी पेशा, व्यापारी, मिडलक्लास को मुख्यधारा मानते हैं जो कि बहुत कम प्रतिशत है. भाषा के स्तर पर दूसरी भाषाओं को मुख्य धारा नहीं मानते सिर्फ हिंदी को मुख्य धारा मानते हैं. धार्मिक रूप से सिर्फ हिन्दुओं को मुख्य धारा मानते हैं, तो ये मुख्य धारा की जो पूरी धारणा बनाई गयी है वो बहुत भ्रामक है.

भारत की मुख्य धारा आदिवासियों की मुख्यधारा है, श्रमिकों की मुख्य धारा है, मेहनतकशों की मुख्यधारा है तो पहले तो मुख्य धारा का तय किया जाना चाहिए. हमारा मानना है कि असल में भारत की जो मुख्य धारा है, वो बहुजन है. उनकी जो संस्कृति है, उनका जो श्रम आधारित जीवन है, उसको सम्मान दिया जाये, उसको आदर्श बनाया जाये और उसके आधार पर राजनीतिक, सामाजिक जीवन का निर्धारण हो, न कि दूसरों के श्रम पर जीवन निर्वाह करने वाले शहरी मिडल क्लास को ध्यान में रखकर पूरी अर्थनीति और आर्थिक सिस्टम को बनाया जाये.

प्रश्न- तो इसका हल क्या है ?

हिमांशु – देखों, हल तो यही है कि पहले तो हम जो गलत कर रहें हैं उसको बंद करे. आदिवासी इलाकों में समस्या क्या है कि वहां खनिज है, सबसे कीमती खनिज है. अब अगर में छत्तीसगढ़ की बात करूं, जहां में काम करता हूं तो बस्तर के इलाके में लोहा है. दुनिया की सबसे अच्छी क्वालिटी का लोहा है, जिसमें 70% शुद्ध स्टील है. भारत का 70% टिन और रेड डायमंड दंतेवाड़ा में है.

तो सरकार क्या करती है ? सरकार बोलती है कि इस खनिज का मालिक वो हो सकता है जिसकी जेब में पैसा है, तो कोई पूंजीपति अगर खोदने वाली मशीनें लगा सकता है तो वो इस खनिज का मालिक बन सकता है.झ अगर अडानी 10 हजार करोड़ रूपए लगा सकते हैं तो हम ये पहाड़ अडानी को दे देंगे. मतलब जिसकी जेब में पैसा है वो प्रकृति का मालिक बन सकता है.

अब गांव वालों को हटाया जायेगा. उसके लिए अर्धशस्त्र बल लगाई जाएगी, जो गांव वालों को पीटेगी, जेलों में डालेगी, गोली से उड़ा देगी. अब गांव वाले इसका विरोध करेंगे तो वहां संघर्ष होगा. हम यही कह रहें हैं कि ये बंद कीजिये क्योंकि ये जो लोहा है वो सिर्फ इस पीढ़ी के लिए नहीं है. ये करोड़ों सालों में बना है, आगे आने वाली पीढ़ी के लिए भी है. आप इसको मुनाफे के लिए खोद कर नहीं बेच सकते क्योंकि अडानी जरुरत के हिसाब से नहीं खोदेगा वो खोदेगा मुनाफे के लिए.

तो प्राकृतिक संसाधन मुनाफे के लिए नहीं खोदे जा सकते. वो हमारी जरुरत के लिए है, आने वाले बच्चों के लिए है. खनन उतना ही होना चाहिए जितनी इस पीढ़ी को जरुरत है. फिर लोगों को बेदर्दी से उजाड़ कर इधर उधर फेकना बंद कीजिये. अब इंद्रा गांधी के समय भी जिन लोगों को जंगलों से उजाड़ा गया, आज तक उन लोगों को बसाया नहीं गया है. आपने शहरों में पट्टे दे दिए कि जाओ ये तुम्हारी जमीन है. अब वहां पहले से किसी यादव साहब का, किसी ठाकुर साहब का, किसी पंडित जी का कब्ज़ा है. वो आदिवासी कैसे उस जमीन पर जाकर कब्ज़ा ले लेगा ? विस्थापन हुआ है लेकिन पुनर्स्थापन नहीं हुआ है.

तो ये जो आप गलत कर रहें है, उसके साथ साथ संसाधनों पर मुनाफे कमाने का अधिकार आप कैसे सिर्फ एक पूंजीपति को दे सकते हैं ? सविधान कहता है कि राज्य नागरिकों के मध्य समानता बढ़ाने की दिशा में कार्य करेगा लेकिन जब आप लाखों आदिवासियों की जमीन को छीन कर सिर्फ एक पूंजीपति को देते हैं तो आप असमानता बढ़ा रहें हैं. आप संविधान के विरुद्ध कार्य कर रहें हैं.

हम कहते हैं कि आप ऐसा मत करो. अगर आपको माइनिंग करनी है तो आदिवासियों को उसका शेयर होल्डर बनाइये, उस माइनिंग से जो मुनाफे हो उस इलाके के विकास पर खर्च कीजिये. आप ऐसे तरीकों से कीजिये जिससे आदिवासी उसमें भाग ले सके. उनको रोजगार में, प्रदुषण कम से कम हो, कम से कम माइनिंग की जाये. तो ये बहुत से उपाय है जिन पर बात करने की जरुरत है. लेकिन सरकार बात नहीं करती है और जो सामाजिक कार्यकर्त्ता सरकार से बात करते हैं, उन्हें जेल में डाल दिया जाता है.

आज हमारे 16 सामाजिक कार्यकर्त्ता जेलों में बंद है, फादर स्टेन स्वामी जो आदिवासियों के पक्ष में आवाज उठाते थे, उन्हें तो जेल में मार दिया गया.सुधा भारद्वाज हैं. ऐसे बहुत से लोग हैं. ये तरीका ठीक नहीं है कि आप ज़बरदस्ती हथियारों का इस्तेमाल करके आदिवासियों को लुटे, आदिवासियों की जिंदगी हराम कर दे. ये सब रोके और जो सही तरीके हैं उन पर बात कीजिये. इस देश में आपको सही राय देने वाले लोग हैं. आप आदिवासियों से बात कीजिये और सबकी भागीदारी से रास्ते निकाल कर काम कीजिये.

प्रश्न- आज हमारे सामने पर्यावरण का संकट सबसे बड़े खतरे के रूप में सामने है लेकिन आदिवासी समाज तो बहुत पहले से अपने जल, जंगल की लड़ाई के द्वारा पर्यावरण को बचाने की लड़ाई लड़ रहा है. अगर हम सच में पर्यावरण को बचाना चाहते हैं तो क्या हमें आदिवासियों की लड़ाई से जुड़ने की जरुरत है ?

हिमांशु – देखिये पर्यावरण का संकट ही नहीं हमारा जीवन बचाने का मुद्दा है, हम ज़िंदा रहेंगे या नहीं ये मुद्दा है. पर्यावरण नष्ट होगा तो हम नष्ट होंगे. आज पेड़ गिर जाये तो हम पट से गिर कर मर जायेंगे. तो आदिवासी जो बचा रहा है वो तो शहर वालों की जिंदगी बचा रहा है, पेड़ नहीं रहेगा तो शहर वाला भी मर जायेगा. हम सोच रहें हैं कि वो हमारा दुश्मन है इसलिए हम आदिवासी को मारने वाली सरकार का समर्थन कर रहें हैं. हमसे बड़ा बेबकूफ कौन होगा ? आदिवासी आज जो लड़ रहा है वो तो हमारी जिंदगी बचाने की लड़ाई लड़ रहा है उनकी लड़ाई में साथ देना तो हमारी जरुरत है.

प्रश्न- आपने पर्यावरण का जिक्र किया उसी के साथ अन्य प्रकार के संकटों का भी आज हम सामना कर रहें हैं जैसे कि आर्थिक संकट, लोकत्रंत का संकट. हमारे देश और दुनिया में दक्षिणपंथी राजनीति का प्रभाव बढ़ रहा है. क्या राजनीतिक रूप से हम एक ऐसे दौर में प्रवेश कर रहें हैं जहां लोकत्रंत ख़त्म होता नजर आ रहा है और अब हम एक अधिनायकवादी दौर की तरफ जा रहें हैं ?

हिमांशु – हां ये एक बहुत ही खतरनाक रास्ता भारत के लोगों ने अपना लिया है. हम जिस तरह से धार्मिक कटटरपंथ को बार बार चुनावों में जीता रहे हैं उससे धीरे धीरे तानाशाही बढ़ती जा रही है, लोकत्रंत कम होता जा रहा है. हम देख रहें हैं कि सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेलों में डाला जाता है, छात्रों के फीस विरोधी आंदोलनों पर गुण्डों द्वारा हमला किया जाता है. किसानों के आंदोलन पर पुलिस और गुण्डों द्वारा हमला किया जाता है. महिलाओं के आंदोलन को बदनाम किया जाता है, उनके लिए अपशब्द कहे जाते हैं. बलात्कार करने वालों को संरक्षण दिया जाता है, उनके पक्ष में रैलियां निकाली जाती हैं.

मुस्लिम महिलाओं को ऑनलाइन नीलाम किया जाता है. नीलाम करने वालों पर पुलिस कार्यवाही करने में हिचकिचाती है, तो जिस तरीके की राजनीति को हम लोग समर्थन दे रहें हैं, वो न सिर्फ हमारे आर्थिक और राजनीतिक जीवन को नष्ट करेगा बल्कि हमारे सामाजिक जीवन को भी नष्ट करेगा और ये दुनिया हमारे बच्चों के रहने लायक नहीं बचेगी. हमारे बच्चे ऐसे माहौल में पैदा होंगे जहां चरों तरफ कट्टरता और हिंसा होगी, और हमारे बच्चे भी इसका शिकार बनेंगे. ये बहुत ही आत्मघाती रास्ता हमने अपनाया है.

प्रश्न- आज आरएसएस एक बहुत ताकतवर व विशाल संगठन है, जिसका प्रभाव भारतीय समाज में भी काफी है. लेकिन दूसरी तरफ जो प्रगतिशील धड़ा जिसमें तमाम प्रगतिशील विचार जैसे कि वामपंथी, गांधीवादी, आंबेडकरवादी और भी तमाम प्रगतिशील धारा के लोग शामिल हैं, वो सब भारतीय समाज से अपनी पकड़ खोते जा रहें हैं, इसके क्या कारण हैं ?

हिमांशु – ये बहुत महत्वपूर्ण सवाल है. इस पर हम सबको मिलकर सोचने की जरुरत है कि हम इतने प्रभावी क्यों नहीं हो पा रहें हैं जितने प्रभावी ये दक्षिणपंथी लोग हो रहें हैं ? इसका एक सामान्य कारण जो है दक्षिणपंथ की राजनीति है जो नीचे गिरने की राजनीति है. आप लोगों से कहे कि आपका धर्म अच्छा है दूसरे का ख़राब है तो हर व्यक्ति इस बात को स्वीकार करने को तैयार है लेकिन आप कहे कि नहीं सब धर्म बराबर हैं, सब जातियां बराबर है, तो ये ऊपर उठने का रास्ता है.

ऊपर की चढाई हमेशा तकलीफदेह और मेहनत मांगती है. नीचे गिरने में कोई मेहनत नहीं है तो आरएसएस की राजनीति नीचे गिरने की राजनीति है. वो पुरषों को कहती है कि महिला तो हमारी गुलाम और सेवा करने के लिए बनी है. वो हिंदुओं से कहते हैं कि हिन्दू महान है और मुसलमान ख़राब, तो हिन्दू खुश होकर इन्हे वोट दे देता है. वो बड़ी जातियों को कहते हैं कि वो महान है छोटी जाती वालों को दब के रहना चाहिए, दलित और ओबीसी को मुसलमानों का डर दिखा कर अपने साथ ले लेते हैं.

भले है ये हमेशा सवर्ण द्वारा सताए जाते हैं लेकिन उनको एक झूठे धार्मिक स्वाभिमान का भ्रम देकर अपने साथ जोड़ लेते हैं. तो ये जो नीचे गिराने वाली राजनीति में सफल हो रहें हैं और हम जो ऊपर उठाने वाली राजनीति करते हैं उसमे हमेशा थोड़ी दिक्कत आती है. ये एक स्वाभाविक बात है लेकिन फिर भी हमें अपनी रणनीतियां निर्धारित करनी पड़ेगी. अपनी कमजोरियों को पहचानना पड़ेगा. कमजोरियों को दूर करके नई ताकत के साथ देश को और समाज को बचाने की जरुरत है.

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