चोर

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चोर
चोर

इन दिनों चोरों से हलकान रहता हूं. मोबाइल पर किसी को फ़ोन लगाऊं तो सबसे पहले पनामा पेपर चोर का भाषण सुनना पड़ता है. मज़ेदार बात ये है कि यही चोर कुछ दिनों पहले कोरोना से किसी तरह मरते मरते बचा. इस चोर को पूछना चाहिए कि कोरोना से बचाव के लिए तूने अपने सुझाए गए उपाय अपनाया था कि नहीं ? ख़ैर, मैं तो उन डॉक्टरों को कभी भी दिल से माफ़ नहीं कर सकूंगा जिन्होंने इस चोर को कोरोना से बचा लाया.

दूसरा चोर तो हर अख़बार के मुखपृष्ठ पर सुबह-सुबह दिख जाता है. ये राफाएल चोर भी है और चोरी फ़ंड का मालिक भी. चुनावी चंदा चोर भी है. इसकी नींव बचपन में ही मां के गहने चुरा कर घर से भागने के समय हो गई थी. ये विचित्र चोर आजकल दाढ़ी बढ़ाए हुए है; तिनकों की संख्या बढ़ गई है शायद !

टीवी खोलूं तो पतंजलि चोर, विभिन्न उत्पादों के चोर मालिकों से निजात कहां ? देखते-देखते देश का नया बजट क़रीब आ रहा है. मेरी जेब से मेरे ख़ून पसीने की कमाई को निकालने का नया-नया नुस्ख़ा लेकर एक मुंह टेढ़ी चोरनी लाल कपड़े में बांध कर लाएगी. टीवी वाले बजट पर बहस का मतलब राफाएल चोर ने कितनी बार मेज़ थपथपाया समझते हैं.

ख़ैर, यही सब उल जूलूल सोचते हुए रात बारह बजे नींद आने ही वाली थी कि नीचे गली में शोर शराबा होने लगा. मुहल्ले के चौकीदार ने एक चोर पकड़ा था. यूं तो हमलोगों ने कई सालों से एक चौकीदार पाल रखा है लेकिन उसने आज तक किसी चोर को नहीं पकड़ा था. हमें इस बात का अफ़सोस तो था, लेकिन इस बात की ख़ुशी भी थी कि चौकीदार के रहते हुए मुहल्ले में कोई चोर नहीं भटक पाता. इसलिए, जब इतने सालों बाद चौकीदार ने एक चोर पकड़ा तो सारे मुहल्ले वालों की ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा.

सारे लोग अपने अपने गर्म बिस्तरों से निकल कर गली में दौड़े आ गए. वहां जा कर देखा कि एक बारह तेरह साल का लड़का, ठंढ और भय में कांपता हुआ एक कोने में खड़ा था. चौकीदार के रोबीले चेहरे के सामने उसकी धिघ्घी बंधी हुई थी. लोग सवाल पर सवाल पूछ रहे थे – कौन है, नाम क्या है, कहां से और क्यों आया है ? वो बेचारा लड़का कुछ भी कहने में असमर्थ था. बस रोए जा रहा था.

मैंने सोचा, वजह और पहचान कुछ भी हो, यह बच्चा तो किसी हाल में सेंधमार नहीं हो सकता. रोटी की तलाश में दूसरे इलाक़े के कुत्ते के हमारे मुहल्ले में भटक जाने पर जिस तरह हमारे मुहल्ले के कुत्ते उसे घेर कर काटने को दौड़ते हैं, मुझे अपने मुहल्ले वालों के साथ खड़े हो कर कुछ कुछ वैसा ही लग रहा था.

मैं आगे बढ़ा.

अरे ये तो भारत है, मेरे गांव से आया है. मेरे घर का पता भूल गया होगा. ‘चल बेटे, घर चल. आप सब भी अपने अपने घर जाईए, इसकी तरफ़ से मैं मुआफ़ी मांगता हूं.’

मैं जल्दी से उस अंजान बालक को लेकर घर में घुस गया.

दूसरे दिन शाम को क्लब में अरोड़ा जी ने छूटते ही पूछ लिया – ‘मैं जानता हूं कि वह लड़का आपका कोई सगा नहीं है, फिर आपने झूठ क्यों कहा ?’

मुझे इसी बात का डर था. और कोई समझे न समझे अरोड़ा जी को बेवकूफ बनाना मुश्किल है. मंजे हुए आईएएस थे, रिटायर्ड चीफ़ सेक्रेटरी, भारत सरकार.

मैंने उनसे पूछा – ‘क्या आपने कभी इस बच्चे को किसी उत्पाद की मार्केटिंग करते देखा ?’

‘नहीं.’

‘क्या आपने कभी इस बच्चे को कभी दिन में सात बार कपड़े बदलते देखा ?’

‘नहीं.’

‘क्या आपने कभी इस बच्चे को किसी ‘बड़े आदमी’ के साथ ग़ुलामी की हंसी हंसते हुए फ़ोटो खिंचवाते देखा ?’

‘नहीं.’

‘क्या आपने कभी किसी टीवी या अख़बार में इस बच्चे को बहस का मुद्दा बनते देखा ?’

‘नहीं.’

‘फिर आप कैसे कह सकते हैं कि ये बच्चा चोर है ?’

‘लेकिन आपके गांव का भी तो नहीं है ?’

‘बिल्कुल है, चोरों की दुनिया के बाहर जितना थोड़ा-सा हिंदुस्तान बचा हुआ है, उतना ही भर मेरा गांव है. आपका नहीं है क्या ?’

  • सुब्रतो चटर्जी

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