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वे मजदूर थे

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सभ्यता की पहली ईट उन्होंने ही रखी थी
उनके सख्त हाथों ने उकेरे थे दुनिया के रास्ते
उनके आने भर से शहरों के शहर आबाद हुए
समंदरों में उतारे गए जहाज
गाड़ियों में चढ़ा पहिया
मकानों में मजबूती थी उनके ही दम से

वो राजा नहीं थे पर राजा थे उनके दम से
वो व्यापारी नहीं थे पर व्यापारी थे उनके दम से
वे देश नहीं थे पर देश टिका था उनके ही दम से

वे मजदूर थे
हां वो मजदूर थे

शहरों में कोई जगह उनके लिए नहीं थी
राजा का कोई आदेश उनके लिए नहीं था
यहां तक कि उनके लिए कोई देश भी नहीं था

झुण्ड के झुण्ड चींटियों की तरह
निकल आए थे सड़कों पर
की शहरों ने पहली बार उनके होने को जाना था
उनके इस तरह निकल पड़ने पर
पैरों के नीचे से खिसक गई थी कालीनें
थर्रा उठे थे राजपथ
हिल उठे थे बादशाहों के मुकुट

पर वे जा रहे थे शहरों से दूर
हजारों हजार मीलों का सफर तय करके
अपने घरों को सर पर उठाए
भूखे बेहाल अपमान से भरे
पुलिस की लाठियां को सहते
भाग रहे थे इधर से उधर

इधर राजा के आदेश पर जश्न के उन्माद में डूबा था शहर
मोमबत्ती पटाखों की रोशनी में दिख रहा था
इस सभ्यता का सबसे क्रूर और करूप चेहरा

सब डरे थे
कही अगर मांग लेते अपना हिस्सा
श्रम की लुटेरी व्यवस्था भरभरा कर
गिर जाती उनके कदमों में
सत्ता उनके बागी होने से डरी थी
पर उनकी खामोशी में भी थी
एक बगावत उनके अंदर
फूटने को बेचैन किसी ज्वालामुखी की तरह

  • लॉकडाउन के समय कॉमरेड खालिद ए. खान द्वारा लिखी गयी कविता

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