कक्षा पांचवीं को अब्बल दर्जे से पास करने के बाद तकनीकि कारणों से अगली कक्षा छः में मेरा एडमिशन नही हो पाया था. घर पर ही किसी तरह तैयारी कर अगले वर्ष कक्षा सातवीं में मैंने प्रवेश लिया. सातवीं कक्षा के प्रथम टर्मिनल परीक्षा में मुझे किसी तरह हिन्दी और संस्कृत में पास मार्क दिया गया जबकि अन्य गणित, विज्ञान समेत तमाम पेपर में शून्य से तीन तक मार्क्स मिला.
किसी तरह और तैयारी कर द्वितीय टर्मिनल परीक्षा में इसी विषय में 15 से 25 तक अंक मिला. और ज्यादा तैयारी और ट्यूशन करने के बाद जाकर सातवीं कक्षा के फाइनल परीक्षा में अच्छे अंक हासिल कर अगली कक्षा आठवीं में एडमिशन लिया. चूंकि पढ़ने में थोड़ा ठीक-ठाक होने और विज्ञान के प्रति अधिक रूचि होेने के कारण अगली कक्षा आठवीं में मैं अपने कक्षा में टॉप कर गया.
खुद को उपरोक्त अनुभव बयां करने के पीछे मकसद यह है कि जब मेरा एक साल स्कूली पढ़ाई बंद रहा और मैं घर पर ही रहकर पढ़ता रहा फिर भी मेरा अगले वर्ष की कक्षा में मैं सबसे कमजोर छात्र बनकर उभरा था. अब जब मैं अपने इसी अनुभव को विस्तार देकर जब देखता हूं कि समूचे देश के तमाम शिक्षण संस्थानों को पूरे दो वर्ष तक बंद कर छात्रों को घर बैठने पर विवश कर दिया गया, और अब तीसरे वर्ष भी स्कूलों को खोलने में आनाकानी की जा रही है, तब सोचता हूं कि लगातार तीन वर्ष तक घर बैठने वाले छात्र अपनी अधूरी पढ़ाई को आखिर कैसे पूरा कर पायेगा ? जबकि इस तीन वर्षों के दौरान घर पर अकेले बैठकर पढ़ने के अलावा ट्यूशन पढ़ने की भी व्यवस्था न थी.
आखिर खानापूर्ति के लिए बनाये गये ऑनलाईन क्लास अपनी उपयोगिता किस प्रकार साबित कर पायेगी ? अभी खबरों में एक खबर तैर रही है, जब इसी ऑनलाईन पढ़ाई में ठीक से पढ़ाई न हो सकने के कारण इंदौर की एक छात्रा ने खुदखुशी कर ली. यह स्थिति तब है जब देश में पहले से ही शिक्षा का स्थिति दयनीय थी, तो आगे और भी भयावह दुष्परिणाम आने बांकी है.
भारत घटिया शिक्षा वाली 12 देशों की सूची में दूसरे स्थान पर
विश्व बैंक ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि भारत घटिया शिक्षा वाली 12 देशों की सूची में दूसरे स्थान पर हैं, जहां दूसरी कक्षा के बच्चे छोटे से छोटे पाठ का एक शब्द भी नहीं पढ़ पाते हैं. रिपोर्ट के मुताबिक 12 देशों की इस सूची में मलावी पहले स्थान पर है. भारत समेत निम्न और मध्यम आय वाले देशों में अपने अध्ययन के निष्कर्षों का हवाला देते हुए विश्व बैंक ने चेतावनी दी है कि बिना सिखाए स्कूली शिक्षा विकास के अवसर को खत्म कर देती है. ऐसी शिक्षा बच्चों और युवाओं के साथ अन्याय है.
विश्व बैंक ने ‘वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट 2018: लर्निंग टू रियल लाइफ एजुकेशन प्रॉमिस’ नाम की यह रिपोर्ट जारी की थी. रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण भारत में तीसरी कक्षा के तीन चौथाई छात्र 2 अंकों का घटाव तक हल नहीं कर सकते हैं. यही नहीं 5वीं के आधे छात्र भी ऐसा नहीं कर पाते हैं. वर्ष 2016 में ग्रामीण भारत में पांचवीं कक्षा के केवल आधे छात्र हैं जो दूसरी कक्षा के स्तर की आसान किताब अच्छे से पढ़ सकते हैं. वहीं वर्ष 2010 में आंध्र प्रदेश में पांचवी कक्षा के छात्र पहली कक्षा के सवाल का भी सही जवाब नहीं दे पाए.
विश्व बैंक की यह रिपोर्ट तब की है जब कोरोना जैसी मायावी महामारी का शिगुफा नहीं छोड़ा गया था और स्कूल सामान्यतः चल रहा था. अब जब केन्द्र की मोदी सरकार के भारत को विश्व गुरु बनाने के सपनों से जगमगाते आंखों में धूल झोंक कर कोरोना के नाम पर लॉकडाऊन कर छात्रों को दो साल तक लगातार स्कूलों से महरुम रखकर अनपढ़ों का रिकार्ड बनाया है, तब की बेहद वीभत्स स्थिति की केवल कल्पना ही की जा सकती है.
कोरोनाकाल के बीच छात्रों का शिक्षा स्तर
एनसीईआरटी के ऑल इंडिया स्कूल एजुकेशन सर्वे में चौथी से दसवीं तक के बच्चे पर किए गए सर्वे ने चौंकने वाला रिपोर्ट दिया है. कोरोना के नाम पर लॉकडाऊन कर ऑनलाइन पढ़ाई का असर बच्चों के लेखन क्षमता पर भी पड़ा है. बिहार के चौथी से दसवीं तक के 65 फ़ीसदी छात्र लिखना भूलते जा रहे हैं, उनके लिखने की गति कम हो गई है और लिखावट तो अधिकतर छात्रों की खराब हो गई है. निजी स्कूलों से ज्यादा सरकारी स्कूलों के बच्चे प्रभावित हुए हैं.
कोरोनाकाल के बीच 10,000 सरकारी और निजी स्कूलों के छात्रों के बीच सर्वे किया गया. इसमें पता चला कि राष्ट्रीय स्तर पर 55 प्रतिशतत बच्चे लिखना भूलते जा रहे हैं जबकि 45 प्रतिशतत की लिखावट खराब हो गई है. लिखावट में आत्मविश्वास की कमी झलक रही है. उनके हाथ कांपने लग रहे हैं. झारखंड के 74 प्रतिशत, दिल्ली के 45 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश के 55 प्रतिशत और उत्तराखंड के 50 प्रतिशत बच्चों की यही स्थिति है.
इसी तरह बिहार के 75 प्रतिशत, झारखंड के 66 प्रतिशत, दिल्ली के 54 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश के 60 प्रतिशत, उत्तराखंड के 65 प्रतिशत बच्चों की लिखावट खराब हुई है. उन बच्चों पर इसका ज्यादा असर हुआ है जो ऑनलाइन पढ़ाई में भी शामिल नहीं हुए यानी सरकारी स्कूलों के बच्चों की लेखन क्षमता ज्यादा प्रभावित हुई है.
किशोरों के टीकाकरण तक इंतजार करना अज्ञानता
विश्व बैंक के वैश्विक शिक्षा निदेशक जैमे सावेद्रा ने कहा कि महामारी को देखते हुए स्कूलों को बंद रखने का अब कोई औचित्य नहीं है और अगर नई लहरें भी आती हैं तो भी स्कूलों को बंद करना एक अंतिम उपाय होना चाहिए. उन्होंने यह भी कहा कि सार्वजनिक नीति के नजरिए से बच्चों के टीकाकरण तक इंतजार करने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि इसके पीछे कोई विज्ञान नहीं है.
उन्होंने कहा – रेस्तरां, बार और शॉपिंग मॉल को खुला रखने और स्कूलों को बंद रखने का कोई मतलब नहीं है. कोई बहाना नहीं है. विश्व बैंक के विभिन्न सिमुलेशन के अनुसार, अगर स्कूल खोले जाते हैं तो बच्चों के लिए स्वास्थ्य जोखिम कम होता है और बंद होने की लागत बहुत अधिक होती है.
विश्व बैंक के वैश्विक शिक्षा निदेशक जैमे सावेद्रा ने कहा कि हम यह देखने में सक्षम हैं कि क्या स्कूलों के खुलने से वायरस के संचरण में कोई प्रभाव पड़ा है ? और नए डाटा से पता चलता है कि ऐसा नहीं होता है. कई काउंटियों में भी लहरें थीं जब स्कूल बंद थे तो जाहिर है कि कुछ में स्कूलों की कोई भूमिका नहीं थी. भले ही बच्चे संक्रमित हो सकते हैं और ओमिक्रॉन के साथ यह और भी अधिक हो रहा है, लेकिन बच्चों में मृत्यु और गंभीर बीमारी अत्यंत दुर्लभ है. बच्चों के लिए संक्रमण का जोखिम कम हैं, जबकि स्कूल बंद रहने से नुकसान ज्यादा है.
भारत में 70 प्रतिशत बच्चों पर स्कूल बंद होने का असर पड़ा है. वर्ल्ड बैंक के अध्ययन के अनुसार पिछले दो साल के दौरान भारत में स्कूल बंद होने से 10 साल तक के 70 फीसदी बच्चों की सीखने की क्षमता पर असर पड़ा हैं. इसे लर्निंग पावर्टी कहा जाता है. इसमें 10 साल तक के बच्चों को सामान्य वाक्यों को भी पढ़ने और लिखने में मुश्किलें आती हैं.
वहीं यूनीसेफ के दिसंबर, 2021 में जारी रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में लगभग 100 से अधिक देशों में स्कूल फिर से खुल गए हैं. अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा और जापान में हुए शोध के अनुसार स्कूल खोलने से संक्रमण फैलाव पर बहुत कम असर पड़ता है. मैक्सिको, फिलीपींस जैसे कुछ ही देश हैं जिन्होंने ओमिक्रॉन संक्रमण की लहर के दौरान स्कूलों को बंद किया है. कोरोना काल के दौरान स्कूल बंद होने से दुनिया भर में लगभग 30 करोड़ बच्चे प्रभावित हुए थे.
स्कूल बंद होने से बच्चों की पढ़ाई पर बहुत अधिक असर पड़ता है. वर्ल्ड बैंक के एक अनुमान के अनुसार भारत की अर्थव्यवस्था को इससे आने वाले समय में लगभग 30 लाख करोड़ रुपए का घाटा होने की आशंका है और बच्चों की भविष्य की कमाई पर इसका विपरीत असर पड़ता हैं.
आखिर बंद क्यों कर दिये गये स्कूल ?
बिना किसी वैज्ञानिक जांच या रिसर्च के आखिर क्यों बंद कर दिये गये हैं स्कूल समेत तमाम शिक्षण संस्थान ? तो इसका एक मात्र कारण है देश की विशाल आबादी को शिक्षा से दूर रखना ताकि वे बेआबाज गुलाम मजदूर बनाये जा सके. जिसके सहारे देश में मनुस्मृति को लागू किया जा सके. लोगों के बीच भय और आतंक का प्रसार किया जा सके. क्योंकि पढ़े लिखे शिक्षित लोगों को जल्दी बरगलाया नहीं जा सकता है. वे अपने अधिकार की बातें करते हैं, और उसके लिए लड़ते भी हैं.
भाजपा का एक मुख्यमंत्री देश में लोगों को शराब पीकर टल्ली होने के लिए प्रोत्साहित करते हैं ताकि वे कुछ न सोचे, तो दूसरे प्रत्याशी लोगों को सस्ती कीमत पर शराब देने का चुनावी वादा करता है, तो वहीं दूसरा मुख्यमंत्री अपने अधिकारियों को बताता है कि स्कूल बंद कर देने से लोगों के बीच आतंक बहुत तेजी से फैलता है, जो कि सरकार का मुख्य मकसद भी है.
विकल्प तैयार करना फौरी जरूरत
देश की शिक्षा व्यवस्था को लगातार खत्म करने की सरकारी कवायद के खिलाफ जरूरी है कि देश के जागरूक तबकों को अपना स्वतंत्र शिक्षण व्यवस्था का निर्माण करना होगा. यह नवीन शिक्षण व्यवस्था न केवल एक नवीन व्यवस्था के निर्माण का नींब ही रखेगी अपितु नये मानव समाज की रचना में अपना अमूल्य योगदान भी देगा
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