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सरकार और समाज दोनों में एक स्थाई कॉन्फ्लिक्ट है

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सरकार और समाज दोनों में एक स्थाई कॉन्फ्लिक्ट है
सरकार और समाज दोनों में एक स्थाई कॉन्फ्लिक्ट है (चित्र- बेस्टिल का पतन)

सरकार और समाज दोनों में एक स्थाई कॉन्फ्लिक्ट है. समाज बदलाव चाहता है. लोगों की बेहतरी, उसके जीने की परिस्थितियों में लगातार बदलाव, स्तर में ऊंचाई के लिए नियमित अपडेशन पर निर्भर है. तो उसके सवाल, अपेक्षाएं, डिलीवरेबल्स बदलते रहते हैं. जो डिलीवर सरकार को करना है. आसान काम नहीं, तो सरकार जनता की मनोस्थिति पर ही नियंत्रण चाहती है.

नई अपेक्षाओं का प्रसार, और उसके संघर्ष को धीमा रखना चाहती है. या कहें, सरकार यथास्थिति को बरकरार रखना चाहती है. बदलाव की चाह, और यथास्थिति बनाये रखने की कोशिश, इन दो पाटों के बीच वक्त चलता है. यह बात देशी, विदेशी, लोकतांत्रिक, तानाशाही, संवैधानिक या रॉयल किंगशिप-हर तरह की गवर्मेंट, हर दौर पर लागू है. बदलाव की कोशिश के दो टूल है.

पहला है- संचार माध्यम : विचार प्रवाह के लिए एक दौर में मजमें और बैठकें होती. बदलाव का आकांक्षी घूम घूमकर लोगों से सीधे बात करता- वन टू ग्रुप या वन टू वन, जिसे उनके चेले, किताबों या साहित्य के माध्यम से प्रकाशित कर लोगों तक पहुंचा देते.

ईसा, वुद्ध, नानक सबने यही किया. वे बदलाव के मीडिया थे. लेकिन बाबे, पादरी, मदारी जिन्हें सौ लोग बैठकर सुने, वे भी संचार का माध्यम थे. मार्टिन लूथर जैसों को छोड़ दें, तो ये ठहराव का मीडिया होते.. राज्य पोषित. उनका इंस्टिट्यूशन, रेजीम से चंदे पर ही चलता. वे भटकाव भी करते ताकि लोग, बदलाव की इच्छा को वह अपनी किस्मत, ईश्वर, और रेजीम के चरणों मे तिरोहित कर दें.

दौर बदला, अखबार, टीवी, सोशल मीडिया संचार के टूल्स हुए. यहां भी इसमें बदलाव का मीडिया और ठहराव/भटकाव का मीडिया- दो भाग हैं.

बदलाव का दूसरा टूल है संगठन : सबसे मजबूत संगठन सरकार के पास होता है. फौजी/पुलिस संगठन. यह डंडा है. और सिविल प्रशासनिक संगठन. जहां पैसा है. जो टैक्स वसूल, इन संगठनों का खर्च निकालता है. मंत्री, सूबेदार, जिलेदार, लम्बरदार, जमींदार..धन लेकर सत्ता को सपोर्ट करते हैं. ताकत और कानून के जरिये, बदलाव रोकते, यथास्थिति बनाये रखते हैं.

उधर जनता के पास संगठन बनाने, चलाने का कोई तरीका नहीं सिवाय (1) विचारधारा (2) धर्म के. ये 2 ऐसे तत्व है, जिससे जनसंगठन बन सकता है.

पर विचारधारा से सबका माइंडसेट बदलना कठिन है. फ्लॉलेस फलसफे, नियम, संयम और आचार व्यवहार सुनिर्धारित करना, लोगों को उसमे फिट होने को प्रेरित करना दुरूह है. कम लोग कर पाए. आसान तो है बदलाव को धार्मिक मोटिव, ईश्वरी मैंडेट बताना. रेस, रंग, भाषा के आधार पर संगठित करना. किसी का डर दिखाना.

जब जनसंगठन पैदा होते है तो रेजीम को भय होता है. ईसा से तेगबहादुर तक, गांधी से विपक्षी राजनैतिक दल तक…भिंडरवाले से अलकायदा तक, ये संगठन, उसके सदस्य, नेतृत्वकर्ता, सरकारों के लिए खतरा होते हैं.

तो दो बातें समझ ली आपने. पहला- सरकार और समाज में एक स्थाई कॉन्फ्लिक्ट होता है. दूसरा- बदलाव की के दो टूल है. संचार माध्यम और संगठन.

अंग्रेज बुद्धिमान थे. तो पुलिस एक्ट, IPC पैनल तो बहुत बाद बाद 1860, 1861 में लाये. 1799 में वे प्रेस सेंसरशिप एक्ट लाये. 1860 में सोसायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट. ढाई साल पहले, वहाबियों के संगठन ने कम्पनी राज उखाड़ फेंका था. अब क्राउन खुद सत्ता सूत्र हाथ में ले चुका था. रिस्क नहीं लेना था.

अब संगठन बनाना है, तो उसके लीडर, मेंबर, ऑफिस, पते सब बताओ. उसके नियम, उद्देश्य, पर्पज एप्रूव कराओ, उसके खर्चे, चंदे, का सालाना ब्यौरा पेश करो. यह कानून तब से आज तक लागू है. सब पर लागू है. आजादी के बाद की सरकारें एक संगठन पर यह कानून लागू करने में फेल रही. उसका नतीजा सामने है.

पैसे का स्रोत मायने रखता है. आधुनिक दौर में करेंसी, या ट्रांसफर के जरिये एक देश से दूसरे देश में धन भेजना आसान है. विदेशी ताकतें, इन संगठनों का इस्तेमाल, घरेलू शासन को अस्थिर करने को कर सकती हैं.

इंदिरा को इमरजेंसी पूर्व हुए अराजक आंदोलन में विदेशी धन लगे होने के प्रमाण थे. आज वे प्रमाण, सार्वजनिक हो चुके हैं. पर तब, यह एक घिरे हुए नेता का उल जलूल आरोप जैसा प्रतीत होता था. फिर भी इंदिरा एक एक्ट लाई. फॉरेन कॉन्ट्रिब्यूशन रेगुलेशन एक्ट. कोई भी संगठन, विदेशी धन लेने के लिए सरकार से अनुमति लेगा. एक पंजीयन कराएगा.

खास खाते में ही राशि लेगा. जिसका नम्बर सरकार के पास होगा. विदेशी धन के खर्च का सालाना हिसाब देगा. साथ ही बैंक भी उसे वेरिफाई करेगा. ऐसा न करने पर बड़े खतरनाक सजाये थी. इसमें नियम है कि राजनीतिक उद्देश्यों के लिए विदेशी धन नहीं लिया जा सकेगा. 2010 में इसमें प्रावधान और कड़े हुए. नए जमाने के धन विनिमय के तौर तरीकों के अनुसार यह अपडेट हुआ. भारत में विदेश से धन लेना, छुपा लेना इतना आसान नहीं है.

USAID एक चैरिटेबल संस्था है. इसकी आड़ में वे खेल खेलते हैं, यह भी सच है. लेकिन भारत में जैसे कानून और सिस्टम है, सरकार मिनट में किसी का कच्चा चिट्ठा सामने रख सकती हैं. एक रुपये की बेईमानी है, तो जेल भेज नेता का करियर खत्म कर सकती है.

कांग्रेस पर विदेशी धन लेने के आरोप वैसे ही हैं, जैसे राहुल गांधी पर एक सांसद को धक्का देने का आरोप. धक्के की बात जोर शोर से चलाई जाती है, पर सीसीटीवी के फुटेज नहीं दिखाये जाते. झूठ पकड़ा जो जाएगा.

बहरहाल, यह भी एक भटकाव है. वर्तमान से ध्यान हटाने के लिए, पीछे औरंगजेब और सम्भाजी हैं. तो आगे 2047 का सपना…वर्तमान की बात में फंसा जा सकता है. आखिर 2022 में किसान की आय दोगुनी नहीं हुई, 2023 में सबको अपना घर मिला नहीं. तो अब लक्ष्य 2047 है. उस वक्त तक फेलियर पर सवाल करने को न मौजूदा वोटर रहेगा, न जवाब देने को नेता.

लेकिन सवाल करना, उम्मीद रखना, जवाब मांगना मानवीय धर्म है, सामाजिक कर्तव्य है. इंसानी बेहतरी, उसके जीने के हालात में उठाव व्यवस्था के नियमित अपडेशन पर निर्भर है और इसलिए, सरकार और समाज…में एक स्थाई कॉन्फ्लिक्ट है.

  • मनीष सिंह 

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ROHIT SHARMA

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