आने वाले दिनों में गुजरात में चुनाव होने वाले हैं. तिरंगा अभियान के तहत 20 करोड़ घरों पर तिरंगा फहराने का योजना है. 25 रुपए प्रति झंडे के दर से मोदी सरकार ने एक झटके में 500 करोड़ का बिजनेस खड़ा कर दिया. गुजरात में हज़ारों लाखों लोगों को तीन महीने के लिए अच्छा काम मिला है. क्या तिरंगा अभियान के पीछे गुजरात के ठंडे पड़े कपड़ा उद्योगों में जान डाला गया है ताकि चुनाव के समय लोगों को भ्रम हो कि काम मिलने लगा और कुछ पैसा भी हाथ आ जाए ?
प्रधानमंत्री मोदी ने अपील की है कि सभी नागरिक 2 से 15 अगस्त के बीच सोशल मीडिया पर अपनी तस्वीरों की जगह तिरंगा झंडे की तस्वीर लगाएं. ऐसी ही अपील गृहमंत्री अमित शाह ने कही थी कि 22 जुलाई से ऐसा करना शुरू कर दें लेकिन खास असर नहीं हुआ. मगर प्रधानमंत्री की अपील के बाद कई मंत्रियों ने अपनी डीपी यानी डिस्प्ले पिक्चर में तिरंगा झंडे की तस्वीर लगानी शुरू कर दी है.
कहीं घर-घर तिरंगा अभियान के नाम पर चंद लोगों की जेबें तो नहीं भरी जा रही हैं ? घर-घर तिरंगा अभियान के लिए कर्मचारियों के वेतन से पैसे काटे जा रहे हैं. रकम बहुत मामूली है लेकिन उनकी इजाज़त और जानकारी के बिना ही पैसे काट लिए जा रहे हैं. दूूसरा यह पैसा सबके खाते से निकाल कर कहां जमा हो रहा है और किसे दिया जा रहा है ? खादी का झंडा बनाने वालों को कितना दिया जा रहा है और सूरत के व्यापारियों को कितना दिया जा रहा है ? कौन एजेंसी है जो कई प्रकार के विभागों के कर्मचारियों की सैलरी से पैसे निकाल कर जमा कर रही है और ख़र्च कर रही है ? सरकार को जवाब देना चाहिए. तिरंगा का अभियान है, इतनी नैतिकता और पारदर्शिता तो होनी ही चाहिए.
कई बैंक के कर्मचारियों ने लिखा है कि उनकी सैलरी से बिना इजाज़त तीस या पचास रुपये काट लिए गए हैं. अगर यह सही है तो बैंक के कर्मचारियों और संगठनों को बोलना चाहिए. इस तरह से वे ग़ुलाम का जीवन जीने लगेंगे. इतना तो बोलें कि वे तीस नहीं सौ रुपये देने के लिए तैयार हैं, मगर कोई उनसे पूछे. स्वेच्छा से देना चाहेंगे न कि ऊपर से आदेश आएगा. पूरा ही मामला अवैध और अनैतिक लगता है.
कायदे से सरकार को खुलेआम पैसा लेना चाहिए. ऐलान करना चाहिए कि सभी कर्मचारियों से तीस रुपये लिए जाएंगे या फिर आयकर के साथ बीस रुपये अधिक ले लिए जाते. एक कर्मचारी की सैलरी से तीस रुपया निकाल लिया जाता है, फिर वह अपने लिए भी खरीदता है तो वह डबल पैसा खर्च कर रहा है.
इस अभियान से जिस तरह से सूरत का कपड़ा उद्योग चल पड़ा है, वह अच्छा है. लोगों को काम मिल रहा है लेकिन मामला इतना सरल नहीं है. आने वाले दिनों में गुजरात में चुनाव होने वाले हैं. वहां हज़ारों लाखों लोगों को तीन महीने के लिए अच्छा काम मिला है. क्या तिरंगा अभियान के पीछे गुजरात के ठंडे पड़े कपड़ा उद्योगों में जान डाला गया है ताकि चुनाव के समय लोगों को भ्रम हो कि काम मिलने लगा और कुछ पैसा भी हाथ आ जाए ?
इसलिए यह अभियान इतना सरल नहीं है. तिरंगा को लेकर अभियान हो और लोग दबी ज़ुबान में बातें करें कि पैसा काट लिया, यह अनुचित है. यह राहजनी हुई कि आपने किसी से पैसे छिन लिए, छिनतई है. व्यापारियों से भी सीएसआर और स्वेच्छा के नाम पर यही हुआ है. उनके चुप हो जाने से कोई बात सही नहीं हो जाती.
अगर सरकार सार्वजनिक ऐलान करती और अपील करती तो संदेह समाप्त हो जाते. हम जानते हैं कि खादी उद्योग अकेले करोड़ों झंडा नहीं बना सकता मगर इस देश में लाखों सेल्फ हेल्फ ग्रुप हैं. महिलाओं को लगाया जा सकता है लेकिन इस तरह से इसकी प्लानिंग हुई कि ज़्यादातर आर्डर सूरत पहुंचे.
भारत के लोग हमेशा से पंद्रह अगस्त के लिए अनगिनत जगहों पर तिरंगा फहराते हैं. मैंने हर हाउसिंग सोसायटी में देखा है. झुग्गियों और गलियों में लोग फहराते हैं. सार्वजनिक समारोह होते हैं. लोग ख़रीदते हैं. सरकार ने अगर अभियान तय किया है तो उसकी पारदर्शिता होनी चाहिए. अमित शाह ने 17 जुलाई को औपचारिक एलान किया. अब इसी तारीख को आधार बना कर आप सूरत की जिन मिलों में तिरंगा बनाया जा रहा है, उनका पता कीजिए.
क्या वे पहले से तिरंगा बनाने लगे थे ? उन्हें कैसे पता चला ? यह भी पता होना चाहिए कि कौन आदमी, कौन विभाग सबके खाते से पैसे निकाल कर जमा कर रहा है ? यह पैसा किस किस को जा रहा है ? यह जानना इस अभियान का विरोध नहीं करना है. यह जानना ज़रूरी है ताकि लोगों को यह न लगे अभियान तो घर-घर तिरंगा का है लेकिन जेबें कुछ लोगों की ही भरे जा रही हैं.
पिछले आठ वर्षों में इस तरह के जन अभियानों की लंबी परंपरा बन गई हैं. लोगों को जगाने के नाम पर पहली बार ऐसे अभियान नहीं आए हैं. आप याद करेंगे तो पता चलेगा कि आपको कई बार जगाया जा चुका है. आइये आज हम उस पहले अभियान को याद करते हैं जिसमें हमें जगाया गया था. पहले याद करते हैं फिर सवाल करेंगे.
याद कीजिए 2 अक्तूबर, 2014 का दिन. प्रधानमंत्री दिल्ली के मंदिर मार्ग थाने के बगल स्थित बाल्मीकि मंदिर गए थे. यहां पर झाड़ू लगा कर परिसर की सफाई की और देश भर में स्वच्छता का बिगुल फूंक दिया था. उस दिन ऐसा लगा कि देश भर में स्वच्छता को लेकर जागृति आ चुकी है. अब कूड़ा करकटों की खैर नहीं. यह कहना ग़लत होगा कि कुछ दिन इसका असर नहीं रहा, बिल्कुल रहा लेकिन यह मानने के कई ठोस कारण हैं कि असर कुछ ही दिन रहा.
उस साल कई केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री, फिल्म अभिनेता झाड़ू लेकर उतर पड़े थे और सफाई करने लगे थे. विवाद भी हुए कि कहीं से कूड़ा उठाकर, झाड़ू लगाने की तस्वीर खिंचा ली गई तो साफ सुथरी ज़मीन पर ही झाड़ू लगाने की तस्वीरों से विवाद हुआ. यह सवाल हाल तक उठता रहा जब प्रधानमंत्री ने दिल्ली में एक टनल का उदघाटन किया और वहां पड़े एक बोतल को उठा कर स्वच्छता का संदेश दिया.
प्रश्नकर्ताओं ने पूछा कि प्रधानमंत्री के कार्यक्रम की जगह से तिनका-तिनका साफ हो जाता है, यह बोतल कहां से आ गया ? इसी तरह चीन के शी जिनपिंग भारत आए तो उनकी यात्रा के बीच प्रधानमंत्री समंदर के किनारे कचरा बिनने लगे. प्रश्नकर्ताओं ने तब भी पूछा कि जहां वे जाने वाले हों, क्या उनके जाने से पहले इतनी भी सफाई नहीं हुई ? मगर संदेश तो संदेश होता है, अभिनय से हो या सक्रिय भूमिका से, जैसे भी जाए अच्छा ही होता है.
अक्तबूर 2014 में प्रधानमंत्री ने हैशटैग आंदोलन की रूपरेखा भी तय की और 9 लोगों को ट्विटर से आमंत्रित कर दिया कि वे भी इस अभियान में हाथ बंटाए. इन 9 लोगों में कांग्रेस नेता शशि थरूर, क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर, बाबा राम देव, कमल हसन, सलमान ख़ान, अनिल अंबानी जो बाद में डिफाल्टर हो गए, न जाने कितने बैंकों का पैसा साफ कर गए लेकिन तब स्वच्छता अभियान के ब्रांड एंबेसडर बने थे. टीवी सीरियल तारक मेहता का उल्टा चश्मा की टीम. प्रियंका चोपड़ा का भी नाम था. पता नहीं वो किस देश में हैं और स्वच्छता का काम कर रही हैं. इसके बाद तो हर दूसरा अगले 9 लोगों को टैग करने लगा और सफाई के लिए आमंत्रित करने लगा. जल्दी ही यह अभियान बंद हो गया. 9 से 9 होते हुए देश भर में स्वच्छता के कितने ब्रांड अंबेसडर बने और उन लोगों ने क्या किया, किसी को पता नहीं, इस शहर में अकेला मैं ही याद दिलाने में लगा हूं.
प्रधानमंत्री का आह्वान एक सीज़न के लिए नहीं था, देश को हमेशा साफ करने के लिए था मगर सांसद से लेकर अभिनेता तक सब धीरे धीरे उस अभियान को भूल गए. कूड़ा करकटों को याद रहा कि जहां हुआ करते थे, वहीं रहा जाए. हम केवल अभियान की समीक्षा कर रहे हैं. इसका हमारे जन-मानस पर कितना असर पड़ता है. गनीमत थी कि महीना अक्तूबर का था, गर्मी नहीं थी, दिल्ली के इंडिया गेट पर शहर के पचास स्कूलों के ढाई हज़ार बच्चे बुलाए गए थे, गुब्बारे फुलाए गए थे. इन स्कूलों में केवल सरकारी स्कूलों के बच्चे नहीं थे, प्राइवेट स्कूलों के भी थे.
2014 में देश नया सपना देख रहा था, ज़ाहिर है बच्चों को भी देखना था. इस समारोह के लिए फिल्म अभिनेता आमिर ख़ान भी बुलाए गए थे बाद में उनका एक बयान क्या आया कि मीडिया से भी भगाए गए थे. आमिर खान ने भी शपथ ली थी, वे भी बताएं कि साल में सौ घंटे स्वच्छता के लगाते हैं या नहीं ? कहां पर लगाते हैं ?
ढाई हज़ार शपथ की ध्वनि गूंज रही थी. प्रधानमंत्री, उप राष्ट्रपति वेंकैया नायडू और परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने भी बहुत ध्यान से शपथ पत्र का पाठ किया था. इन 2500 छात्रों ने शपथ ली थी कि गांधी ने देश को आज़ादी दिलाई. हम भी देश को साफ सुथरा कर भारत माता की सेवा करेंगे. साल में 100 घंटे सफाई का काम करेंगे. हर हफ्ते दो घंटे स्वच्छता का काम करेंगे. न तो हम कूड़ा फैलाएंगे, न फैलाने देंगे.
दिल्ली में ढाई हज़ार छात्रों ने शपथ ली थी कि साल में सौ घंटे स्वच्छता के काम में लगाएंगे. क्या किसी ने उन्हें ऐसा करते हुए देखा है या उनमें से कोई बता सकता है कि शपथ का पालन कैसे कर रहे हैं ? क्यों भूल गए ? क्या उन्होंने स्वच्छता की शपथ के बाद कोई झाड़ू ख़रीदी थी ? इन प्रश्नों का भी जवाब दे सकते हैं. क्या इस तरह के अभियान वाकई लोगों को प्रेरणा से भर देते हैं ? उनके भीतर जोश आ जाता है और समाज बदल जाता है ?
ऐसे कितने ही अभियान फेल कर जाते हैं, लेकिन हम उनके कारणों की पड़ताल तक नहीं करते इसीलिए हम स्वच्छता की कसम खाने वालों से पूछ रहे हैं. अनिल कपूर की फिल्म कसम का गाना नहीं गा रहे, कसम क्या होती है. कसम वो होती है. वेजवाड़ा विल्सन सफाई कर्मचारी आंदोलन के सक्रिय नेता हैं. हमने उनसे पूछा कि झाडू उठाकर ब्रांड अंबेसडर बनाने और कसम खिलाने से सफाई संस्कृति पर क्या असर पड़ा ?
केंद्र सरकार ने संसद में बताया है कि 2017 से लेकर अभी तक सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान 347 लोगों की जान जा चुकी है. पिछले तीन साल में 188 लोगों की जानें गई हैं. सरकार दावा करती है कि हाथ से मैला साफ करने वालों में से किसी की मौत नहीं हुई है. पिछले तीन साल में 2016 से भारत में हर साल स्वच्छता सर्वेक्षण रिपोर्ट जारी होती है. इस सर्वेक्षण में लगातार पांच साल से इंदौर ही पहले स्थान पर आता है. क्या दूसरे किसी शहर ने इंदौर के जैसी तरक्की ही नहीं की ?
केरल का एक शहर है आलप्पुझा. 2017 में इसे संयुक्त राष्ट्र ने सालिड वेस्ट मैनेजमेंट में शानदार काम करने के लिए दुनिया के पांच शहरों में रखा है, मगर उस साल केरल का यह शहर भारत की स्वच्छता रैकिंग में 380 वें नंबर में था. देश भर के स्कूलों में 2014 के साल में स्वच्छता दिलाई गई होगी, लेकिन कितने छात्रों ने अपनी शपथ पर अमल की, हम नहीं जानते. बनारस प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र हैं. दस लाख से अधिक की आबादी वाले शहरों के स्वच्छ सर्वेक्षण में बनारस का स्थान 48 शहरों में 30 वां यह 2021 की रैकिंग है. इसका मतलब है बनारस में ही स्वच्छता ने कोई मानक नहीं बनाया है. यूपी के शहरों में ही बनारस की रैकिंग नीचे की तरफ है.
बिहार की राजधानी पटना स्वच्छता के मामले में 44 वें स्थान पर है. कई साल से पटना का यही प्रदर्शन है. यह बता रहा है कि जागरुकता अभियान पर जिस तरह ज़रूरत से ज़्यादा ज़ोर दिया है, जागरुकता उस मात्रा में पनप नहीं रही है, वरना पटना औऱ बनारस नंबर वन शहर होते. 17 जुलाई को गृह मंत्री अमित शाह घर घऱ तिरंगा अभियान का औपचारिक एलान करते हैं. 31 जुलाई को प्रधानमंत्री ने कहा कि दो अगस्त से यह अभियान शुरू हो और पंद्रह अगस्त तक परवान चढ़े. सभी भारतीय अपने घरों में और सोशल मीडिया की साइट पर तिरंगा फहराएं और तस्वीर लगाएं.
इसके बाद तिरंगा खरीदने और लगाने की खबरों की भरभार हो गई है. जगह जगह तिरंगा बनने लगा है. केंद्रीय पर्यटन और संस्कृति मंत्री जी कृष्णा रेड्डी ने विजयवाड़ा में कहा है कि खादी ग्रामोद्योग तिरंगा की मांग पूरी नहीं कर सकते इसलिए अनुमति दी गई है कि पोलियेस्टर का बना तिरंगा झंडा आयात किया जाए. खादी और कुटीर उद्योगों को भी आर्डर दिए गए हैं लेकिन करोड़ों की झंडे की मांग इनसे पूरी नहीं हो सकती. आज के ‘द हिन्दू’ में जी कृष्ण रेड्डी का बयान छपा है. घऱ घऱ तिरंगा अभियान का एक मकसद है आज़ादी की लड़ाई में शामिल सभी के योगदानों को याद करना. किसी अभियान के सभी पहलुओं के बारे में जाने बगैर एक सिरे से फैसला देना ठीक नहीं रहेगा. हम बस सवाल के तौर पर अपनी बात रखना चाहते हैं.
अमृत महोत्सव के सरकारी कार्यक्रमों में किस किस को याद किया गया और किसे नहीं.? इसका जवाब समग्र अध्ययन से ही दिया जा सकता है. हिन्दी अखबारों में पिछले एक साल में आज़ादी के आंदोलन को लेकर जो छपा है, उसके आधार पर यह सवाल उठा रहा हूं. जिसका सरकार के अभियान से संबंध नहीं है. मैंने देखा कि दो हिन्दी अखबारों में लगातार आज़ादी के नायकों को याद किया गया. लेकिन ऐसा लग रहा था कि उन अखबारों में भुला दिए गए क्रांतिकारियों को याद करने के नाम पर खास लोगों को भुलाया भी जा रहा था.
भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में कई तरह के नायक थे मगर केंद्र में गांधी और गांधीवादी आंदोलन ही था. 2 अक्तूबर 2014 को स्वच्छता अभियान के शपथ में लिखा है कि गांधी ने आज़ादी दिलाई. इन अखबारों का अध्ययन ही बता सकता है कि क्या इन्होंने एक समानांतर राष्ट्रीय आंदोलन को खड़ा करने का प्रयास किया ? राष्ट्रीय आंदोलन को पीछे करने का प्रयास हुआ ?
क्या जानबूझ कर गांधी और उनके आंदोलन के नायकों को भुला दिया गया. उन्हें कम जगह दी गई ? हमारा आग्रह यह नहीं कि केवल गांधी और गांधीवादी आंदोलन के नायक ही याद किए जाएं, हमारा ज़ोर उन्हें कम दिखाने की नियत को उजागर करने पर है. जबकि प्रधानमंत्री हमेशा गांधी को केंद्रीय शक्ति के रुप में याद करते हैं. अस्सी और नब्बे के दशक में इतिहास लेखन में भी राष्ट्रवादी नज़रिए को चुनौती दी गई थी. इस आग्रह के साथ कि इतिहास केवल नायकों का नहीं होता है, जनता का भी होता है और सबालटर्न इतिहास का नया दौर आया था. दीपेश चक्रवर्ती, सुमित सरकार, शैल मायाराम, रणजीत गुहा, ज्ञान पांडे, शाहिद अमीन जैसे इतिहासकारों ने पहल की थी. ये इतिहास लेखन में वैचारिक टकराव का दौर था. लेकिन राजनीति वैसा नहीं कर रही है. वह एक तरह के नायकों को भुलाकर दूसरी तरह के नायक खड़े कर रही है.
इतिहास में किसी को भुला देना, किसी को याद करना, इतनी सरल प्रक्रिया नहीं है. ऐसा हो ही नहीं सकता कि यह प्रक्रिया राजनीति से होकर न गुज़रे. प्रधानमंत्री जो बात कह रहे हैं वही बात इतिहासकार तीस चालीस साल से कह रहे हैं बल्कि लिख रहे हैं. ये वही इतिहासकार हैं जिनका नाम सुनते ही खास राजनीतिक धारा के लोग भड़क जाते हैं. उन्होंने कहा, आजादी का संग्राम केवल कुछ वर्षों का, कुछ इलाकों का, या कुछ लोगों का इतिहास सिर्फ नहीं है. ये इतिहास, भारत के कोने-कोने और कण-कण के त्याग, तप और बलिदानों का इतिहास है. हमारे स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास, हमारी विविधता की शक्ति का, हमारी सांस्कृतिक शक्ति का, एक राष्ट्र के रूप में हमारी एकजुटता का प्रतीक है.’
इतिहास के इस गौरवगान में स्मृति और विस्मृति का खेल है. इनमें से ज़्यादातर नायक पहले भी याद किए जा चुके हैं. किसी पुस्तकालय में घुस जाइए या पिछले 75 साल में 15 अगस्त या 26 जनवरी पर निकलने वाले पत्रिका-विशेषांकों को ही पलट लें तो बात साफ़ हो जाएगी. कोई नया शोध तो है नहीं, न ही नज़रिया नया है. बस मुहर नई है, जो तथाकथित रुप से भुला दिए गए नायकों को याद करने के बहाने हथिया लेने और अपने राष्ट्रवादी बायोडेटा को भरने की चतुर कोशिश से ज्यादा नहीं लगती. आज कल तो लोग अपना पासवर्ड याद नहीं रख पाते.
इतिहास भुला देने का आरोप अक्सर वही लगाते हैं जो कभी इतिहास की दो किताब नहीं पढ़ते. केवल बंटवारे पर ही सैंकड़ों किताबें और लेख हैं. इसके बाद भी बंटवारे का इतिहास लेखन आज तक पूरा नहीं हो सका, औऱ न ही इसे अंतिम रुप से समझ लेने का दावा किया जाता है. लेकिन कहीं से कोई नेता आता है और भुला देने का भाषण शुरू करता है, उसके बाद खुद ही भूल जाता है. सार्वजनिक जीवन में डाक टिकट जारी करने, जयंति मनाने और मूर्तियां लगाने की अपनी भूमिका है, होती रहे मगर याद करने का यही श्रेष्ठ और अंतिम तरीका है, इस पर बहस होनी चाहिए.
देखना चाहिए कि इतिहास के विभागों में कितने प्रोफेसर हैं, रिसर्च का बजट क्या है, और लोग क्यों इंजीनियर और मेडिकल की पढ़ाई करना चाहते हैं, इतिहास की नहीं. बाद में वही इंजीनियर एक दिन न्यूयार्क से आकर बोलता है कि इतिहास में हमें पढ़ाया नहीं गया. ये नहीं कहता कि उसने इतिहास नहीं पढ़ा. हम बात कर रहे हैं कि आने वाले पंद्रह दिनों तक घर घऱ तिरंगा अभियान चलने वाला है. इस दौरान जो भी जागृति आए, स्वच्छता अभियान की तरह न आए हो कि लोग शपथ लेने के बाद भी भूल जाएं. सेल्फी खिंचाई, वीडियो अपलोड किया और भूल गए.
कोरोना के समय भी यही हुआ. प्रधानमंत्री के एक आह्वान पर लोग थाली लेकर बालकनी में आ गए. हालांकि दुनिया के दूसरे देशों में ऐसी घटना हो चुकी थी, लोग खुद से कोरोना योद्दाओं के समर्थन में थाली या ताली बजा चुके थे मगर भारत में यह काम प्रधानमंत्री के आह्वान पर हुआ. उन्होंने बकायदा समय का एलान किया और लोगों ने भी उस समय पर थाली बजाई और दीप जलाए. यह उनकी लोकप्रियता का पैमाना माना गया.
लेकिन थोड़े ही दिनों बाद कोरोना योद्धा सड़क पर आ गए. वे अपने भत्तों को लेकर आंदोलन करने लगे. किसी को बीमा नहीं मिला तो किसी को अतिरिक्त भत्ता नहीं मिला. कई जगहों से स्वास्थ्य कर्मी निकाले गए. वे याद दिलाते रहें कि कुछ दिन ही पहले उनके सम्मान में आसमान से अस्पतालों पर फूल बरसाए गए थे, सेना के बैंड को कहा गया था कि अस्पताल के बाहर बैंड बजाकर स्वास्थ्यकर्मियों का मनोबल बढ़ाएं जबकि अस्पतालों के बाहर शोर करना मना होता है. जनता ने यह सवाल भी नहीं पूछा.
हमारा सवाल यही है कि स्वास्थ्यकर्मियों के मनोबल को बढ़ाने के लिए जो किया जाना चाहिए वो करना चाहिए लेकिन क्या यह मनोबल केवल थाली और ताली बजाने से बढ़ता है या एक निश्चित और नियमित व्यवस्था बनाने से होती है. यहां तक कि कोरोना से मरने वाले डाक्टरों की सरकारी संख्या और इंडियन मेडिकल एसोसिएशन में ही अंतर नज़र आता है. IMA का कहना है कि कोरोना से 1000 से अधिक डाक्टरों की मौत हुई है. सरकारी आंकड़ा इससे काफी कम है.
आज़ादी का अमृत महोत्सव. भले इसकी रिपोर्टिंग कम हुई मगर जगह जगह पर इसके तहत कार्यक्रम मनाए गए हैं. आज भी संस्कृति मंत्रालनय ने आज़ादी का अमृत महोत्सव के तहत एक स्लोगन प्रतियोगिता का एलान किया है जिसमें आप भाग लेकर 30,000 तक जीत सकते हैं. यह भी लिखा है कि स्लोगन हिन्दी या अंग्रेज़ी में हो और कम से कम तीन मित्रों को टैग करें. स्वच्छता के समय 9 लोगों को टैग करने के लिए कहा गया था. एक और प्रतियोगिता है. Snap a selfie with #Tiranga और एक लाख तक का इनाम जीतें. जल्दी करें यह प्रतियोगिता 4 अगस्त को बंद हो जाएगी. इंस्टा और ट्विटर पर सेल्फी अपलोड करनी है.
स्लोगन प्रतियोगिता, सेल्फी विद तिरंगा, इन्हें व्यर्थ कहना व्यर्थ है. माहौल तो बनता ही है. अब उस माहौल में कैसी राजनीति होती है, देखने की बात होगी पर सवाल है कि आज़ादी के अमृत महोत्सव के लिए जिन लक्ष्यों को तय किया गया था, उनकी चर्चा क्यों नहीं हो रही है ? इस साल के लिए बीजेपी ने 75 लक्ष्य तय किए थे. 2019 के घोषणा पत्र में 75 संकल्पों का ज़िक्र हैं, उनके पूरा होने का साल यही है तो उसे लेकर घर घर अभियान क्यों नहीं हो रहा है ? उन्हें कितना हासिल किया गया, उसे लेकर स्लोगन प्रतियोगिता क्यों नहीं होती है ? 2019 से पहले 2017 में प्रधानमंत्री ने एक संकल्प पत्र जारी किया था, उसमें 75 संकल्प नहीं थे, केवल 6 संकल्प थे.
2022 तक भारत को गरीबी से मुक्त कराना था, धूल और गंदगी से मुक्त कराना था, भ्रष्टाचार और आतंकवाद से मुक्त कराना था, जातिवाद से मुक्त कराना था, सांप्रदायिकता से मुक्त कराना था. इन सबसे मुक्ति के बाद एक नया भारत बनना था. तरह-तरह के अभियानों और शपथों से माहौल बनता है लेकिन उसी दिन और हफ्ते के आस-पास बनता है. वक्त गुज़रने के साथ अभियान और शपथ भुला दिए जाते हैं और उनकी जगह नया अभियान आ जाता है.
क्या हम नहीं जानते कि 2022 में सांप्रदायिकता किस चरम पर है ? गंदगी और भ्रष्टाचार का आलम क्या है ? पैसे से विधायक खरीदे जा रहे हैं तो विधायकों के यहां से पैसों का अंबार निकल रहा है. ये तो केवल छह संकल्पों का हाल है. क्या हम सांप्रदायिकता को मिटा पाए ? ये तो और बढ़ गई है. कहीं ऐसा तो नहीं कि इन्हीं संकल्पों से पीछा छुड़ाने के लिए घर घर तिरंगा अभियान लाया जा रहा है ताकि उन पर बात ही न हो और देश को एक नए अभियान में लगा दिया जाए, ऐसा अभियान जिसका कोई विरोध ही न कर सके. 2015 के बजट में ही तत्कालीन वित्त मंत्री ने एलान कर दिया था कि 2022 में आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाया जाएगा, तब उन संकल्पों की बात क्यों नहीं कर रहे हैं, जो 2022 के लिए तय किए गए थे ?
2 फरवरी के प्राइम टाइम में हमने यह बयान दिखाया था और संकल्प से सिद्धि और अमृत महोत्सव के लक्ष्य की बात की थी. 2022 आने के पहले तक शोर होता था कि नया इंडिया बनेगा, अब ज़ोर है कि घर घर तिरंगा फहराना है. नया इंडिया कहां चला गया ? 2022 में गंगा साफ नहीं हुई, किसानों की आमदनी दोगुनी नहीं हुई.
9 अगस्त 2017 को प्रधानमंत्री अपने ट्विट में नया इंडिया इस्तेमाल करते हैं. 2020 के टारगेट की बात नहीं हो रही है, नया इंडिया की बात नहीं हो रही है. नया अभियान आ गया है उसी की बात हो रही है. इतिहास भुला देने वाला अपना वर्तनाम ही भूलते जा रहे हैं. इतने सारे अभियानों का क्या नतीजा निकल रहा है ? इन पर खर्च होने वाले पैसे का क्या नतीजा निकल रहा है ? इसका मूल्यांकन करने का वक्त ही नहीं मिलता, तबतक नया अभियान आ जाता है.
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