सुब्रतो चटर्जी
अंबानी के कलर्स पर कांग्रेस के विज्ञापनों की बाढ़ आई है. कुछ दिनों पहले जब मैंने एक कॉमरेड को कहा था कि इस चुनाव में अंबानी कांग्रेस के पक्ष में होगा तो उसने मेरी राजनीतिक समझ की हंसी उड़ाई थी. उस समय समयाभाव के कारण मैंने इस विषय पर कुछ नहीं लिखा, लेकिन आज बताने की कोशिश करता हूं कि मुझे ऐसा क्यों लगा था.
पिछले दिनों एक खबर आई है कि अदानी को पीछे छोड़ कर अंबानी अब एशिया के सबसे बड़े धन पशु बन गए हैं. यह कोई मामूली ख़बर नहीं है, ख़ास कर मोदी युग में जबकि पूरे देश की सरकार अदानी के पांव पर बिछी हुई है और सारी सरकारी संपत्तियों को अदानी को औने पौने भाव में दी जा रहीं हैं, फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि अंबानी ने अदानी को पछाड़ दिया ?
दरअसल चुनावी बॉण्ड के चंदे में जो अघोषित स्रोतों से हज़ारों करोड़ रुपये घाटे में चल रही कंपनियों ने मोदी को दिया, उसके पीछे अदानी की शेल कंपनियों का पैसा लगता है. अब जबकि सारे राज़ खुल गए, कोई राज़दार न रहा वाली स्थिति है तो अदानी ने शायद अपनी व्यापारिक गतिविधियों, यानि देश की संपत्तियों के अधिग्रहण पर रोक लगा दी है. वैसे भी आचार संहिता के तहत मोदी नीतिगत निर्णय नहीं ले सकते हैं.
दूसरी तरफ़, अंबानी को मालूम है कि मोदी अब एक डूबता हुआ जहाज़ है. ऐसे में अंबानी का कांग्रेस के पाले में आना कोई आश्चर्य की बात नहीं है. वैसे भी धीरूभाई अंबानी को स्थापित करने में ईंदिरा गांधी और महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री ए. आर. अंतुले की भूमिका सबको मालूम है.
यहां पर गौर करने की बात है कि अंबानी वेल्थ क्रिएटर हैं जबकि अदानी एक धंधेबाज़ हैं. अदानी की समग्र कंपनियों में मात्र चौबीस हज़ार कर्मी हैं जबकि अंबानी के जामनगर रिफ़ाइनरी में ही इससे ज़्यादा हैं. इस परिदृश्य में राहुल गांधी का अदानी पर अंबानी से ज़्यादा आक्रामक होना एक इशारा था कि कांग्रेस ने अंबानी के लिए दरवाज़े को खुला रखा है.
दक्षिणपंथी राजनीतिक बिसात पर कॉरपोरेट वार के कई आयाम होते हैं, उनमें से एक लॉबी की लड़ाई होती है. अमरीका में यह हथियार लॉबी, फ़ार्मा लॉबी और तेल लॉबी के रूप में हम देख सकते हैं.
कॉंग्रेस के मैनिफेस्टो आने के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि सत्ता में आने की सूरत में कांग्रेस मोदी समर्थक व्यापार लॉबी को कहीं का नहीं छोड़ेंगे. लेकिन एक बात राहुल खुले तौर पर नहीं कह रहे हैं, वह यह कि क्या सत्ता में आने पर राहुल विनिवेश के माध्यम से या एसेंट मॉनिटाईजेशन के द्वारा कौड़ियों के भाव अदानी को दिए गए देश की संपत्तियों का राष्ट्रीयकरण करेंगे ? यही वह बिन्दु है जहां पर कांग्रेस ने अंबानी के लिए दरवाज़े को खुला रखा है.
एक महत्वपूर्ण बात यह है कि क्रोनी पूंजीवाद और मोनोपोलिस्टिक अर्थव्यवस्था के चलते सिर्फ़ साधारण लोगों का जीवन ही नर्क नहीं बन गया है, सिकुड़ती हुई अर्थव्यवस्था, क्रय शक्ति की भीषण कमी, मध्यम वर्ग का ह्रास, यह सब कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिनका असर उद्योग जगत पर भी नकारात्मक पड़ा है.
2016 की नोटबंदी के बाद से आज तक औद्योगिक विकास दर 4 प्रतिशत को भी नहीं छू पाया है. ऐसे में आपको क्या लगता है कि अदानी जैसे धंधेबाज़ को छोड़कर औद्योगिक जगत के दूसरे नायकों को यह स्थिति बहुत स्वागत योग्य लग रहा है ? क़तई नहीं.
रिसेशन से बचने के लिए पहले बाज़ार ने वर्टिकल मार्केटिंग के ज़रिए अपने मुनाफ़े को बचाने की कोशिश की लेकिन मध्यम वर्ग के क्रमिक ह्रास ने इसे भी फेल कर दिया. इसके बाद होराईजेंटल मार्केटिंग को अपनाने की कोशिश की गई, जिसके नतीजे में shrinkflation किया गया, यानि पार्ले बिस्किट दस रुपए का ही बना रहा, लेकिन 100 ग्राम के बदले 75 ग्राम का हो गया.
इतने पर भी औद्योगिक विकास की दर 3.7% से आगे नहीं बढ़ पाई. ऐसी स्थिति में उद्योग जगत ने यह समझा कि दुनिया की समूची जनसंख्या के पांचवें हिस्से को ढोते हुए भारत में मोनोपोली नहीं चलेगी और न ही ट्रिकल डाउन इकोनोमी.
यहां पर जनता की क्रय शक्ति ही उद्योगों का आधार है, क्योंकि कमजोर होते रुपये और तकनीकी पिछड़ेपन के चलते हम अपनी अर्थव्यवस्था को निर्यात पर निर्भर नहीं कर सकते हैं, जो कि पश्चिमी देश करते हैं. वैसे भी पश्चिमी देश हमें उनके बाज़ार में नहीं घुसने देंगे, लेकिन इस विषय पर फिर कभी.
इस परिदृश्य में राहुल गांधी का न्याय पत्र विभिन्न लोक कल्याण और सरकारी सहायता के ज़रिए ग़रीबी के उपर सीधे प्रहार करती है. क्रियान्वयन होने पर उपभोक्ताओं का एक विशाल वर्ग पुनर्जीवित हो जाएगा और बाज़ार में आर्थिक गतिविधियों के नये आयाम भी खुलेंगे.
उद्योग जगत के लिए यह राहत की बात है. बाज़ार, क्रय शक्ति, मुनाफ़ा और बाज़ार की साइज़, सब कुछ एक साथ चलता है. शायद अब आप समझ गए होंगे कि क्यों मैंने कहा था कि इस चुनाव में अंबानी कांग्रेस के साथ खड़े रहेंगे.
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