‘बदलते पर्यावरण के मद्देनज़र, कार्य क्षेत्र पर सुरक्षा एवं स्वास्थ्य सुनिश्चित करना’, विषय पर ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ की रिपोर्ट, 22 अप्रैल 24 को प्रकाशित हुई. मज़दूर वर्ग से प्रतिबद्धता रखने वाले, संवेदनशील व्यक्ति के लिए, इस रिपोर्ट को पढ़ना बहुत मुश्किल काम है. समूची दुनिया में आज पूंजी का राज़, पूंजीवाद क़ायम है. पूंजीवाद में, पूंजी और श्रम के बीच प्रमुख अंतर्विरोध शुरू से अंत तक क़ायम रहता है.
इन दो पहलवानों के बीच युद्ध, जब निर्णायक दौर में पहुंच जाता है और श्रम, पूंजी को चारों खाने चित्त कर देता है, तब ही, समाज को पूंजी की जकड़बंदी से मुक्ति मिलती है, जिसे क्रांति कहा जाता है. परिणामस्वरूप, समाज अपनी उन्नत अवस्था, ‘समाजवाद’ में प्रवेश करता है. ‘पैसे’ की जगह ‘मेहनत’ को सम्मान मिलता है. तब तक, पूंजी और श्रम के बीच, कभी छुपा और कभी खुला संघर्ष ज़ारी रहता है. पूंजीवाद के लगभग 200 साल के इतिहास में, पूंजी का पलड़ा, इतना भारी कभी नहीं रहा, जैसा आज़ है.
‘विश्व जनसंख्या घड़ी’ के अनुसार, दुनिया की मौजूदा कुल आबादी 810 करोड़ है, जिसमें कुल 340 करोड़ मज़दूर हैं. ‘सुई से लेकर जहाज़ तक और अन्न के दानों से लेकर ताज़ तक’, सारा निर्माण और उत्पादन करने वाली, मज़दूरों की ये विशाल सेना ना सिर्फ़ इन्तेहा गुर्बत में जीने को मजबूर है, बल्कि बदलते पर्यावरण की सबसे घातक मार भी ये लोग ही झेल रहे हैं.
इसी बात का जायज़ा लेने के लिए आईएलओ ने, दुनियाभर के मज़दूरों पर यह शोध किया, जिसकी इसी सप्ताह ज़ारी रिपोर्ट, समूचे मानव समाज की संवेदनशीलता को झकझोरने के लिए काफ़ी है, बशर्ते, संवेदनशीलता को पूंजी की आंच ने पूरी तरह सुखा ना दिया हो.
1. मज़दूरों पर बे-इन्तेहा गर्मी की मार
साल 2023, इतिहास का सबसे गर्म साल रहा. 2011 से 2020 के बीच के 10 सालों में, धरती का औसत तापमान, 1.1 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ गया. दुनिया में, कुल 241 करोड़ मज़दूर भयानक गर्मी/ लू की चपेट में आए. इनमें सबसे ज्यादा मज़दूर खेती तथा निर्माण कार्य करने वाले हैं. 2.3 करोड़ मज़दूर, हीट-वेव से गंभीर रूप से प्रभावित हुए, जिनमें 8,970 की मौत हो गई तथा 20,90,000 मज़दूरों में, अधिक तापमान में, लगातार काम करते रहने से, ऐसी शारीरिक अपंगता/ कमज़ोरियां पैदा हुईं, जो उनकी मौत के साथ ही गई. अर्थात, ये लोग धीमी, कष्टदायक मौत मरे.
अधिकतर देशों में, मालिकों ने, विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा ‘कार्य क्षेत्र पर सुरक्षा एवं स्वास्थ्य’ के सुझावों, जैसे निश्चित तापमान से ज्यादा होने पर काम ना करने देना, तथा शरीर में नमी बनाए रखने के पेय उपलब्ध कराना, नस्म सूती कपड़े पहनना और शारीरिक श्रम की बजाए यंत्रों का उपयोग करना आदि को पैरों तरह कुचलते हुए, जला डाल देने वाली गर्मी में, काम करने को मज़बूर किया. कई जगह मज़दूरों को आधे-नंगे बदन काम करना पड़ा. अधिकतर देशों ने, आईएलओ के निर्देशों, क़ायदे-क़ानूनों की जगह, अपने नियम-क़ायदे बना लिए हैं. मतलब, मालिक जो कहें, वही क़ायदा है.
2. प्राण-घातक अल्ट्रा-बायलेट किरणों से बचाव ना होना
खेती, निर्माण कार्य, बिजली विभाग, माली तथा बंदरगाहों पर काम कर रहे मज़दूरों को, बाहर, खुले आकाश में काम करना होता है, जहां प्राण-घातक अल्ट्रा वायलेट किरणों से कोई बचाव नहीं होता. त्वचा में जलन, फफोले पड़ना, त्वचा का कैंसर, आँखों में नुकसान, एक विशिष्ट प्रकार का मोतियाबिंद, रोगों से लड़ने की शारीरिक क्षमता नष्ट अथवा कम हो जाना, ये सभी रोग प्रमुख रूप से सूरज की अल्ट्रा वायलेट किरणों से होते हैं.
दुनियाभर में 16 लाख मज़दूर, अल्ट्रा वायलेट किरणों की गंभीर चपेट में आए, जिनमें 18,960 मज़दूरों की मौत, अकेले नॉन-मलेनोमा नाम के त्वचा कैंसर से हुई. विश्व स्वास्थ्य संगठन के निर्देश हैं कि सभी मज़दूरों को छाया में कार्य करने का बंदोबस्त किया जाए. जहां ये संभव नहीं वहां मज़दूरों को पीपीई किट, गर्मी और घातक किरणों से बचाव के चश्मे तथा त्वचा पर सुरक्षा क्रीम लगाकर ही, काम की अनुमति दी जाए, इन ‘निर्देशों’ का कितना अनुपालन होता है, हमारे देश में बच्चा-बच्चा जानता है. वैसे भी निर्देश ही तो हैं, निर्देशों का क्या !!
3. ख़तरनाक मौसम की जानलेवा घटनाएं
मेडिकल व्यवसाय, आग बुझाने वाले कर्मचारी, खेती, निर्माण कार्य, सफ़ाई कर्मचारी, मछली पालन मज़दूर तथा अन्य कई आपातकालीन सेवाओं में काम करने वाले मज़दूरों के प्राण, ज़रूरी सुरक्षा उपायों के ना होने की वज़ह से मौसम की चरम-तीखी अवस्था ने वक़्त से पहले ही ले लिए. इन परिस्थितियों से कुल कितने मज़दूर प्रभावित हुए, वह आंकड़ा तो विश्व स्वास्थ्य संगठन भी इकट्ठा नहीं कर पाया. हां, रिपोर्ट में इतना ज़रूर उल्लेख है कि 1970 से 2019 तक, कुल 20,60,000 मज़दूर काम करते वक़्त विपरीत मौसम की भेंट चढ़े. मौसम द्वारा अचानक उग्र रूप धारण कर लेने पर, आईएलओ ने बहुत से आपातकालीन उपाए सुझाए हैं, जिनकी व्यवस्था करना, तथाकथित विकसित देशों ने भी छोड़ दिया है, भारत जैसे देशों का तो कहना ही क्या !!
4. कार्यस्थल पर दूषित वातावरण
लगभग सभी मज़दूर, कार्यस्थल पर दूषित/ विषाक्त वातावरण में कार्य करने को विवश हैं. मज़दूरों में तरह-तरह की साँस की बीमारियां, फेफड़ों का कैंसर तथा हृदय रोग बहुत सामान्य हैं, और ये सब कार्यस्थल पर अस्वस्थ वातावरण होने की ही सौगात हैं. इसी रिपोर्ट के अनुसार, 16 लाख से भी अधिक मज़दूर, कार्यस्थल पर दूषित वातावरण के फलस्वरूप घातक जानलेवा रोगों की चपेट में आए. हर साल लगभग 8,60,000 मज़दूरों के प्राण, दूषित कार्यस्थल वातावरण लेता है. धीमी मौत मर रहे मज़दूरों की तो गिनती ही असंभव है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने, कार्यस्थल पर स्वस्थ वातावरण सुनिश्चित करने के लिए, लम्बे-चौड़े सुझाव दिए हैं, काफ़ी कागज़ काले किए हैं. लिखने वाले, उपदेश देने वाले भी अच्छी जानते हैं ये सब लिखने की बातें हैं. धरातल पर, मालिकों की मुनाफ़े की अज़गरी भूख के सामने, सारी लिखावट दम तोड़ देती है.
5. मक्खी-मच्छर-कीटाणु जनित रोग
सभी मज़दूर, हर वक़्त, रोगों के इन कारकों से घिरे रहते हैं. कार्यस्थल से भी ज्यादा भयावह हालात, उनकी झुग्गी-झोंपड़ियों में होते हैं, जिनका गंदे नाले के किनारे होना आवश्यक शर्त है, जहां ख़तरनाक मच्छरों के घने बादल हर वक़्त मंडराते रहते हैं. मक्खी-मच्छर-कीटाणु ही तो मज़दूरों के हर वक़्त के साथी हैं. मज़दूरों, उनके मासूम बच्चों, महिलाओं को लगातार उनसे युद्ध करते रहना होता है. मौत, हर वक़्त, उनकी झोंपड़ियों का दरवाजा खटखटाती रहती है, वे, हर रोज़ मौत की तरफ़ खिसकते जाते हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने, 132 पेज की अपनी रिपोर्ट में, ये पता करने की कोशिश नहीं की कि मज़दूरों की औसत आयु इतनी कम क्यों है ? उन्हें भी तो, मज़दूरों का कल्याण करने का दिखावा ही तो करना होता है. ये रस्म अदायगी कितनी क्रूर है !!
मलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया से ही ना जाने कितने मज़दूर हर रोज़ मरते हैं. संगठन ने रिपोर्ट में ठीक ही कहा, सही आंकड़े मुमकिन नहीं !! उसके बावजूद हर साल 15,170 मज़दूरों की मौत इस वज़ह से होनी बताई गई है. मतलब तुक्का ही मारा है !!
6. ख़तरनाक रसायन
खेती-बाड़ी में, कीटनाशक के रूप में इस्तेमाल होने वाले ज़हर और रासायनिक उद्योगों से लगातार बहते ज़हर, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से, कुल कितने लोगों की मौत की वज़ह बन रहे हैं, आकलन असंभव है. खाने-पीने में धीमा ज़हर, मतलब धीमी गति से मौत, मस्तिष्क के रोग, पागलपन, तरह-तरह के कैंसर, प्रजनन क्षमता ख़त्म होना, अवसाद, शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कमजोर होना, रोगों की बहुत ही लम्बी लिस्ट में, ये प्रमुख नाम हैं, जो ख़तरनाक रसायनों से हर रोज़ हो रहे हैं.
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की इस रिपोर्ट के मुताबिक़, अकेले खेती में लगे, खेत मज़दूरों तथा लघु-सीमांत किसानों में से 87.30 करोड़ लोग, ख़तरनाक रसायनों के सीधे और गंभीर शिकार हो चुके हैं. वैसे तो ज़हरीले खाद्यान्न, फल, संब्जियां खाकर कितने लोग, हर रोज़, कितना ज़हर अपने शरीर में जमा करते जा रहे हैं, हिसाब लगाना संभव नहीं. रिपोर्ट के मुताबिक़ हर साल, 3 लाख से अधिक लोग ज़हरीले रसायनों की वज़ह से मौत के मुंह में धकेले जाते हैं. इस बाबत बहुत सारे क़ानून हर देश में मौजूद हैं, श्रम संगठन के सुझाव तो बहुत ही व्यापक हैं जो सिर्फ पढ़कर खुश हो जाने के लिए ही हैं. अधिकतम मुनाफ़े की हवश के सामने, कोई क़ानून कहीं नहीं ठहरता.
‘अमृत काल’ में, भूखा-कंगाल भारत, मज़दूरों की असुरक्षा के मामले में ‘विश्वगुरु’ बन चुका है !!
‘बदलते पर्यावरण के मह्देनज़र, कार्य क्षेत्र पर सुरक्षा एवं स्वास्थ्य सुनिश्चित करना” विषय पर, विश्व स्वास्थ्य संगठन की इस रिपोर्ट से हम ये समझने में ज़रूर क़ामयाब हो जाते हैं कि भारत के बाहर भी, मतलब दुनिया के दूसरे देशों में भी मज़दूर, काम करते-करते मर जाने के लिए छोड़ दिए गए हैं. इस देश में तो श्रम कार्यालयों में मौजूद ‘स्वास्थ्य एवं सुरक्षा विभाग’ में ताले लटक रहे हैं. ये विषय, सरकार के एजेंडे से कब का गायब हो चुका. जो मज़दूर जिंदा है, वह अपनी बदौलत ही जिंदा है.
सरकारी आंकड़ों के ही अनुसार, हर रोज़, औसत 3 मज़दूर, कारखानों में ज़रूरी सुरक्षा उपकरण ना होने की वज़ह से अपनी जान गंवाते हैं. श्रम मंत्रालय ने संसद को बताया कि 2016-21 वाले पांच सालों में, कुल 6500 मज़दूर कारखानों में काम के दौरान मारे गए, ट्रेड यूनियनों ने इन आंकड़ों को मानने से, यह कह कर इंकार किया कि दुर्घटनाओं में मज़दूरों के अपांग हो जाने अथवा मौत हो जाने पर, जब ‘दुर्घटना रिपोर्ट” ही बननी बंद हो गईं’, कसूरवार मालिकों पर कोई कार्यवाही ही नहीं होती, तो ये आंकडे सरकार के पास कहां से आई ? मोदी सरकार, असुविधाजनक आंकडे इकट्ठे ही ना करने, कर लिए तो प्रकाशित ना करने और आंकड़ों में फर्जीवाड़ा करने में विशेष योग्यता हांसिल कर चुकी है !!
मज़दूरों के स्वास्थ्य एवं सुरक्षा में कार्यरत एनजीओ, ‘सेफ इन इंडिया फाउंडेशन’ ने हरियाणा और महाराष्ट्र में, ऑटो सेक्टर सप्लाई चेन में, काम कर रहे मज़दूरों की सुरक्षा एवं स्वास्थ्य का सर्वे किया. उनकी रिपोर्ट ‘कुचले गए 2023’ (Crushed 2023) में उपलब्ध आंकडे भयावह हैं. हरियाणा में, प्राणघातक दुर्घटनाओं का मात्र 6% ही रिपोर्ट होता है. उनमें भी सज़ा नहीं होती. हाथ-पैर कटने अथवा मौत हो जाने वाले दुर्घटनाओं में, 25% की वज़ह ये है कि आधुनिक मशीनों में अत्यंत कुशलता वाले काम में, चौक से लाए दिहाड़ी मज़दूरों को ही लगा दिया जाता है. पीड़ित मज़दूर कहते हैं, सुपरवाइजर ने उन्हें ये काम करने को मज़बूर किया. दूसरी वज़ह, बिना आराम, लगातार ओवरटाइम से उत्पन्न थकान. 70% दुर्घटनाएं, जिनमें मज़दूरों की उंगलियां कट गई, जिन्हें ‘डबल स्ट्रोक’ और ‘लूस पार्ट्स’ कहा जाता है, इस वज़ह से हुईं, क्योंकि मशीन की नियमित मरम्मत नहीं कराई गई.
73% दुर्घटनाओं में, ईएसआई कार्ड दुर्घटना होने के बाद ही बना. मालिक ईएसआई की कटौती खा जाते हैं, यह अब सामान्य बात हो गई है. यही तो है, मोदी सरकार द्वारा, उद्योगपतियों को उपलब्ध, ‘व्यवसाय की सुगमता’ है !! झोले भर-भर कर, चुनावी बांड, यूं ही, बेवज़ह नहीं दिए जा रहे !!
उंगलियां कटने, कुचले जाने की 97% वारदातें, फैक्ट्री के अंदर होती हैं, जबकि मालिक, उन्हें अक्सर बाहर सड़क पर हुई दुर्घटनाएं बताते हैं. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में, 2022 में कुल 800 मज़दूरों ने अपनी उंगलियां गवाई, जो कि 2021 के मुकाबले 81% अधिक हैं. ‘सेफ इन इंडिया’ संस्था ने पाया कि उंगलियां कटने वाले मज़दूरों में, लगभग आधे मज़दूरों की उम्र 30 साल से कम थी, 90% को मालिकों ने काम से निकाल दिया और उनके परिवार कंगाली-भुखमरी में डूब गए, इन मज़दूरों में अधिकतर विस्थापित मज़दूर थे. फैक्ट्री में या तो कोई यूनियन नहीं थी, या मालिकों की बनवाई हुई यूनियन थी. वैसे भी मज़दूरों से यूनियन बनाने का, 1926 में हासिल, उनका अधिकार छिन चुका है. रिपोर्ट यह हकीक़त भी बताती है कि मज़दूरों के हाथ-उंगलियां कटने के मामले में, उत्तराखंड की स्थिति हरियाणा और महाराष्ट्र से भी बदतर है.
अधिकतर दुर्घटनाएं ‘प्रेस मशीन’ में ही होती हैं. हरियाणा और महाराष्ट्र में, ऐसी गंभीर दुर्घटनाओं की ज़िम्मेदार किसी भी प्रेस मशीन में, ‘सेफ्टी सेंसर’ नहीं मिला, जिसका होना अनिवार्य है. 91% प्रेस मशीन में सेफ्टी सेंसर है ही नहीं. उंगलियां गवां चुके मज़दूरों का यह भी कहना था कि मशीन का सेफ्टी ऑडिट, उनकी याद में या तो हुआ ही नहीं, या होते वक़्त उन्हें बाहर निकाल दिया गया. जहां हर साल सैकड़ों मज़दूर, मामूली ऑक्सीजन मास्क ना मयस्सर होने से, सीवर टैंक की सफ़ाई करते हुए दम घुटकर मर जाते हों, आग बुझाने के संयत्र ना होने से, मज़दूर, हर रोज़, जिंदा जलकर मर रहे हों, वहां प्रेस मशीनों में ‘सेफ्टी सेंसर’ की क्या उम्मीद की जाए !! मुनाफ़े की चक्की चकनाचूर हुए बगैर मज़दूरों को सुरक्षा नहीं मिलने वाली.
- सत्यवीर सिंह
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