सीमा ‘मधुरिमा’
खेली खायी औरत
हां यही कहा जाता रहा उसे
जिसने ठान लिया था
समाज के रीति-रिवाजों को ना मानकर
स्वतंत्र जीवन व्यतीत करने का
जहां जाती, जहां उठती, जहां बैठती
उसके लिए पीठ पीछे एक ही बात होती
जो उड़ते उड़ते उसके कानों तक भी आती
यह उच्च दर्जे की खेली खाई औरत है…
वह सोच में पड़ जाती
आखिर कौन से खेल की बात हो रही है
ज्यादा माथापच्ची करने के बाद उसको समझ में आता
उसके द्वारा पुरुष के साथ बनाए गए संबंधों को
कहा जाता है खेली खायी औरत
वह डिक्शनरी उठाती और ढूंढने लगती
बार-बार एक ही शब्द टाइप करती
‘खेला खाया मर्द’
और उसे कहीं नहीं मिलता परिभाषा
वह सोच में पड़ जाती
बिना मर्द के औरतें कैसे खेल सकती हैं
और अगर मर्द भी साथ में खेल रहे हैं तो
उनके लिए शब्दावली क्यों नहीं गढ़ी गई ?
पर यह शब्दावली गढ़ेगा कौन ?
क्योंकि स्त्री तो पुरुष की मां होती है
बहन होती है
साथी होती है
प्रेमिका होती है
वह पुरुष के जीवन को सहलाती है
सजाती है
संवारती है
फिर वह अपने ही कोख से
जन्मे पुत्र को कैसे दे सकती है
निष्ठुर शब्द –
“खेला खाया मर्द’
यहीं स्त्री मात खा जाती है
और सदियों से मात खाती आ रही है
इसलिए यह सारे संबोधन
केवल स्त्रियों के लिए बने
जो पुरुषों ने बनाए
पुरुषों के लिए कोई निष्ठुर संबोधन
इसलिए नहीं बने
क्योंकि स्त्रियों ने नहीं बनाए !!!
- सीमा ‘मधुरिमा’
लखनऊ
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