अशफाक अहमद
जब मुंबई में रहता था तो कुछ वहीं के दोस्त थे, जिनमें दो सांताक्रूज़ में रहते थे. उन दोस्तों के जो दोस्त थे— उनसे भी जान-पहचान थी. उनमें से एक दोस्त का भाई थोड़ा ग्रे शेड का बंदा था— मतलब कारनामे ठीक नहीं थे. उसके बारे में एक दिन पूछा कि यह करता क्या है, मतलब खर्चा कैसे चलता है इसका— दोस्त ने बताया कि साल में एक दो विजिट करता है बाहर की तो निकल आते हैं उसके खर्चे भी. विजिट का मतलब दूसरे दोस्त ने समझाया कि मुंबई में बहुत पयसा है बीड़ू, लेकिन भारत में बहुत ग़रीबी है. यह (दोस्त का भाई) अकेला नहीं है, इसके जैसे बहुत से मिल जायेंगे यहां— इस गरीबी का फायदा उठाने वाले.
यह जाते हैं, बंगाल, उड़ीसा, बिहार जैसे राज्यों के घनघोर गरीबी में जीते पिछड़े इलाकों में, और वहां से लड़कियां ख़रीद लाते हैं. इधर मुंबई में उनकी अच्छी कीमत मिलती है. टाॅप क्लास की लड़की थोड़ा पाॅलिश-वाॅलिश करके गल्फ भेज दी जाती है, या आर्गेनाइज्ड प्रास्टीच्यूशन में लगा दी जाती है, या मुंबई के बारों में खपा दी जाती है. गांव में इनके घरवाले ही इन्हें बेच देते हैं, कभी पांच सौ में तो कभी सौ-दो सौ तक में. इस बिक्री में भी एक उम्मीद रहती है कि लड़की उस घनघोर गरीबी से निकल कर अच्छी ज़िंदगी जी लेगी, और पैसा कमाने लगेगी तो पीछे घरवालों की भी थोड़ी मदद हो जायेगी. यह उम्मीद तो हर खरीदार को देनी पड़ती है.
जो लड़कियां इन तीनों जगहों पर खपाई जाती थीं, उनमें अक्सरियत बंगाल, बिहार, उड़ीसा की ज़रूर होती थी, लेकिन होती और भी इलाकों की थी. राजस्थान में भी बेची जाती हैं. यह वे लड़कियां हैं जिन्हें उनके घरवाले स्वेच्छा से बेचते हैं— उस बिक्री से अलग, जो पूरी दुनिया में वैसे भी लड़कियों की होती है. इसके सिवा दूसरी ज़रूरतों के लिये भी बेची जाती हैं, मसलन घरेलू कामकाज या मजदूरी के लिये, या शादी के लिये अनुपलब्धता की स्थिति में— जैसे हरियाणा वाले खरीदते हैं. मेरे दो जानने वाले बिहार से खरीद कर लाये थे— लेकिन यह गरीबी में जीती उन लड़कियों के लिये तो ठीक ही था, जिन्हें इस बहाने रोटी, छत और एक बीवी/बहू होने का सम्मान ही मिल गया. मुझे उनमें खुशी नज़र आई.
मुंबई में मेरा एक बंगाली दोस्त था— पैदाईश से मुस्लिम था, लेकिन कल्चरल रूप से हिंदू ही था. तब्लीग वालों के जनजागरण अभियान से पहले बंगाल के बहुसंख्यक मुस्लिम एक तरह से हिंदू संस्कृति ही फाॅलो करते थे. मुंबई वाले उस बंगाली दोस्त की वजह से मैं ढेरों बंगालियों को जान सका कि वे मुस्लिम थे, जबकि मैं उन्हें हिंदू ही समझता था. कुछ तो मेरे पास काम भी करते थे. वे अपनी मुस्लिम पहचान तो छोड़ो, नाम तक ख़ुद से रखे हुए बताते थे जो हिंदू ही होते थे. अब इसमें व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी वालों को इस्लामिक साजिश या लव जिहाद की संभावनाएं नज़र आयेंगी, लेकिन हकीक़त में वे इस्लाम से जुड़े ही नहीं थे, न अपनी इस्लामिक पहचान के साथ सहज थे.
उन्हें किसी को मुसलमान बनाने की सनक नहीं थी, ख़ुद कभी कभार मस्जिद की शक्ल देखते थे. बहरहाल, तो मेरा दोस्त, जो मेरे साथ ही रहा कुछ वक़्त— वह बारबाजी का शौकीन था. बार जाते-जाते एक लड़की पूजा से इश्क हो गया. पूजा एक गैंग की खरीदी हुई बंगाली लड़की थी, तो बिना उसका पैसा अदा किये उसे आज़ाद नहीं करा सकते थे. पैसे का इंतज़ाम किया गया, उसे आज़ाद कराया गया— फिर दोस्त ने उससे शादी की. उसका बार का काम छुड़ा दिया. उसे बंगाल अपने घर ले गया कि अपने घर-खानदान में उसे स्वीकार्यता दिला सके.
लेकिन पूजा ने वहां रहना गवारा न किया, उसे मुंबई की आज़ाद लाईफ की लत लग चुकी थी— एक दिन छोड़ कर चली गई. भाई वापस लौट आया और कुछ दिन के मातम के बाद फिर उसी रुटीन लाईफ को जीने लगा. एक साल बाद उसे दूसरे किसी बार में सुवर्णा टकरा गई, जो एक बंगाली ब्राहमण लड़की थी, मगर बिक कर वहां पहुंची थी. अच्छी बात थी कि अपनी कीमत चुका चुकी थी, दोनों में ट्यूनिंग बनी और फिर दोनों ने शादी कर ली.
मैं एक दो दिन रहा था उनके साथ— दिन में घर होती थी और रात को बार में. दोस्त ने पूजा वाली गलती नहीं की, और उसे उसके तरीके से जीने दिया. मैंने उससे पूछा था अतीत के बारे में— कहानी वही नार्मल सी थी, जो उसके जैसी लाखों लड़कियों की होती है. वह अपनी रोज़ की कमाई एक कापी पर लिखती थी, उसकी काॅपी देख कर मुझे पता चला कि हैप्पी न्यु ईयर जैसे मौकों पर बार में बैठने वाले पियक्कड़ नर्तकियों पर काफी पैसा उड़ाते हैं.
वह दोस्त मुस्लिम था. मेरे सामने उसने दो बंगाली हिंदू लड़कियों से शादी की— धर्म से उसे कुछ लेना-देना नहीं था, पर इतना पता था कि निकाह न किया तो शादी मान्य नहीं होगी, तो बस उसी स्टाईल में शादी कर ली जैसे धरम पा जी ने हेमा मालिनी से की थी— लेकिन फिर अपने धर्म का कुछ मनवाने की कोशिश नहीं की, जो वह दोनों पहले थीं, वही बाद में रहीं. कोर्ट मैरिज में शायद कुछ तकनीकी दिक्कतें थी और ख़ुद फेरे लेकर या हिंदू रीति से शादी करता तो शायद खुद न हजम कर पाता…, इतना थोड़ा सा इस्लाम जरूर उसके अंदर बाकी था.
यह 97-98 की बात है, आज के दौर की होती तो पक्का ‘लव जिहाद’ में लिस्टेड हो जाता. इस तरह की शादियों में बस पसंद, इश्क या ज़िद कारण हो सकते हैं— लेकिन सिर्फ मुसलमान बनाने के लिये कोई प्यार करके शादी करेगा, ऐसा सिर्फ उस कंडीशन में मुमकिन है, जब लड़का उतना मज़हबी हो. अब लड़का मज़हबी है तो यह उसकी बातों से, उसकी हरकतों से ज़ाहिर हो जाता है— अगर कोई हिंदू लड़की ऐसे लड़के के इश्क में पड़ रही है तो फिर यह उसकी नादानी ही कही जायेगी.
ऊपर जो कथा लिखी, वह यह बताने के मकसद से लिखी, कि प्रचारित ‘लव जिहाद’ का व्यापक सच ऐसा ही है— कुछ केस वैसे हो सकते हैं, जिन्हें सेंटर में रख कर इस पूरे मैटर को जनरलाईज कर दिया जाता है. दूसरे जिन लाखों लड़कियों को उस तरह बिकना पड़ता है, जिसका यहां ज़िक्र है— उनमें 99% लड़कियां हिंदू ही होती हैं. मुझे उस ब्रिगेड के चिंतन में वे लड़कियां कभी नहीं दिखीं— जिनके चिंतन में वह लड़कियां रहती हैं, जो किसी मुस्लिम युवक के प्यार में पड़ जाती हैं. कभी सिर्फ ‘हिंदू’ होने के नाम पर वे गरीबी में बिकती उन लड़कियों की फिक्र भी दिखा पाये, तब उनकी चिंता को ईमानदार माना जा सकता है…, वर्ना है तो बस अपनी नफरत को जस्टिफाई करने का बहाना भर ही.
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