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मोदी के विष गुरु भारत का बदनाम चेहरा

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मोदी के विष गुरु भारत का बदनाम चेहरा

गिरीश मालवीय

कल से सोशल मीडिया पर धमाल मचा हुआ है कि बीजेपी के पूर्व केंद्रीय मंत्री व राष्ट्रीय प्रवक्ता राजीव प्रताप रूडी के अमनौर स्थित कार्यालय परिसर में 40 एंबुलेंस खड़ी है और जनता महामारी के इस दौर में मरीज़ों को अस्पताल पहुंचाने के लिए परेशान हो रही है, दर दर की ठोकरें खा रही है. दरअसल यह सारा मामला पप्पू यादव के ट्वीट से शुरू हुआ. उसके बाद क्या घटनाक्रम चल रहा है वो आप सब खबरों के जरिए जान ही लेंगे उसे बताने में मेरी रूचि भी नहीं है.

मुद्दे की बात तो यह है कि जब ऐसी महामारी चल रही है तो ये सारी एम्बुलेंस आखिर खड़ी हीं क्यों थी ! दरअसल इसको समझने के लिए आपको सांसद विकास निधि का गणित समझना होगा. इसे सिर्फ राजीव प्रताप रूड़ी और पप्पू यादव की आपसी राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के रूप में मत देखिए. यह बड़ी पिक्चर है.

क्या आप जानते हैं कि हर संसद सदस्य को अपने क्षेत्र के विकास के लिए हर साल 5 करोड़ का फंड अलॉट किया जाता है ? इस फंड के अंतर्गत संसद सदस्य अपने संसदीय क्षेत्र में विकास के छोटे-मोटे कार्य करा सकता है. फंड की मॉनिटरिंग केन्द्रीय सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय द्वारा की जाती है. फिलहाल 6 अप्रैल 2020 को मोदी सरकार ने इसे दो साल के लिए सस्पेंड कर दिया गया है शायद 500 से अधिक संसद सदस्यों को देने के लिए मोदी सरकार के पास फंड ही नहीं है.

दरअसल इस फंड में जमकर भ्रष्टाचार होता है लेकिन यह भ्रष्टाचार सामने नहीं आता, क्योकि सेटिंग जबरदस्त होती है. स्कीम के मुताबिक़, सांसद सिर्फ़ कामों की अनुशंसा कर सकते हैं लेकिन असल में होता ये है कि सांसद अनौपचारिक रूप से ज़िला प्रशासन को बताते हैं कि काम किसे दिया जाना है ? खरीदी कैसे होनी है ? कौन सी संस्था / NGO उनकी फेवरेट हैं, जिसे यह वाहन चलाने को देने चाहिए ?

सांसद क्षेत्र विकास निधि की स्कीम जिस तरह से चल रही है वो सिर्फ सांसदों के फायदे के लिए है. एम्बुलेंस खरीदना भी इस फंड को ठिकाने लगाने का बहुत बढ़िया रास्ता है क्योंकि कीमत चुकाने में अच्छी खासी कमीशन बाजी होने की संभावना रहती है.

रूड़ी जी की एम्बुलेंस खरीद तो कुछ भी नहीं है. दिल्ली के सांसद मनोज तिवारी ने सांसद निधि से 3 गुना दामों में 200 ई-रिक्शा खरीदवा लिए जो ई-रिक्शा 60-70 हजार रुपए मिल जाता है, उसे 2.25 लाख रुपये में खरीदा गया. अब वह सब कबाड़ हो रहे हैं. भाजपा की ईस्ट एमसीडी के गराज में दो साल पहले खरीदी गई 200 गाड़ियां खड़ी-खड़ी कूड़े में तब्दील हो गयी.

एम्बुलेंस बनाने में भी वाहनों में कुछ अंदरूनी परिवर्तन किए जाते हैं और कुछ तकनीकी परिवर्तन भी होते हैं जैसे GPS लगाना आदि. इससे कीमतों में अनाप-शनाप बढ़ोतरी दिखा दी जाती है और उसे सांसद और जिला प्रशासन की मिलीभगत से बड़ी खरीद का ऑर्डर देकर एक ही बार में सांसद निधि को निपटा दिया जाता है. यह बहुत कॉमन प्रेक्टिस है लेकिन रूड़ी जी का मामला एक ओर स्टेप आगे बढ़ गया था.

दरअसल एम्बुलेंस ख़रीदी के बाद जिला प्रशासन इसे चलाने के लिए किसी NGO को दे देता है और उसे प्रतिमाह लाख-दो लाख रुपये इन एम्बुलेंस के संचालन के लिए जिला प्रशासन को देने होते हैं और इस नाते NGO संचालक मोटा भाड़ा मरीजों से वसूलता है. जब यह होता है तब स्थानीय सांसद महोदय का पेट दुखने लगता है क्योंकि उसे लगता है कि माल तो उसने लगाया और कमाई कोई और खा रहा है यानी लालच का मोटा-सा कीड़ा उनके दिमाग मे कुलबुलाने लगता है. वो सोचते हैं कि यह NGO वाला काम भी अपने अंडर ही करवाए. राजीव प्रताप रूड़ी वाले केस में एग्जेक्टली यही हुआ है.

रूडी जिस लोकसभा सीट से आते हैं वो एक ग्रामीण बाहुल्य इलाका है इसलिए उन्होंने अपने संसदीय कोष से करोड़ों की एंबुलेंस खरीद तो लिया लेकिन किसी एक NGO को सौंपने के बजाए उसे अलग-अलग ग्राम पंचायतों में संचालन के लिए अलग-अलग पंचायत प्रतिनिधियों को सौंपने का निर्णय लिया, ताकि पूरा कंट्रोल रहे. इसके लिए उन्होंने एक बडी मीटिंग बुलाई और ‘सांसद-पंचायत एंबुलेंस सेवा’ की शुरुआत की (न्यूज़ 18 में इस बाबद पूरी रिपोर्ट विस्तार से छापी हैं.) लेकिन इन एंबुलेंस को संचालित करने से पंचायत प्रतिनिधियों ने इनकार कर दिया, उसके एग्रीमेंट की शर्तों से वह सहमत नहीं थे.

जिला प्रशासन भी इस विवाद में पड़ना नहीं चाहता क्योंकि रूड़ी सत्ताधारी दल के मजबूत सांसद हैं, केंद्रीय मंत्री रहे हैं और राष्ट्रीय प्रवक्ता भी है. इसलिए पिछली मीटिंग के बाद से ही वह सारी एम्बुलेंस उनके कार्यालय के पीछे खड़ी हुई है. इसे डेढ़ साल से भी ऊपर हो चुका है और पड़े पड़े एम्बुलेंस वाहन कबाड़ में बदल रहे हैं.

तो यह थी रूड़ी जी की दर्जनों एंबुलेंस की असली अनटोल्ड स्टोरी. अगर आप अपने जिले के सांसद की सांसद निधि की अंदरूनी जानकारियां निकलवाएंगे तो आपको भी ऐसी ही कई कहानियां पता चल जाएंगी.

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दो तिहाई बहुमत से चुनी हुई सरकार को शपथ ग्रहण से पहले ही अपदस्थ कर वहाँ राष्ट्रपति शासन लगा दिया जाए यह मांग उठ रही है, जबकि हम सब अच्छी तरह से जानते हैं कि शपथ ग्रहण से पूर्व प्रशासन की पूरी जिम्मेदारी चुनाव आयोग की होती है. निश्चित रूप से बंगाल में हो रही राजनीतिक हिंसा की घटनाएं गलत है. नही होना चाहिए लेकिन बंगाल का एक लम्बा राजनीतिक इतिहास रहा है ऐसी घटनाओं का. पर क्या इन्ही लोगो ने जो एक चुनी हुई सरकार को बर्खास्त करने की माँग कर रहे हैं इन्होंने कभी ऑक्सीजन की कमी से हो रही हजारों मरीजो की मृत्यु पर मोदी से या उनके मंत्रियों से इस्तीफा मांगा है ?

दो महीने पहले ही जॉर्डन के स्वास्थ्य मंत्री ने राजधानी अम्मान के निकट एक अस्पताल में ऑक्सीजन आपूर्ति की कमी के चलते कम से कम छह लोगों की मौत होने के बाद अपने पद से इस्तीफा दे दिया था. तीन हफ्ते पहले ऑस्ट्रिया के स्वास्थ्य मंत्री रूडोल्फ एंशोबर ने अपने इस्तीफे की घोषणा करते हुए कहा कि ज्यादा कामकाज करने से उन्हें लगातार स्वास्थ्य संबंधी समस्या रहने के चलते वह कोरोना वायरस महमारी से निपटने में देश की मदद करना जारी नहीं रख सकते हैं, इसलिए वह इस्तीफा दे रहे हैं.

अर्जेंटीना में स्वास्थ्य मंत्री को इसलिए इस्तीफा देना पड़ा क्योंकि वहां उन  पर प्राथमिकता समूह के बाहर लोगों को टीकाकरण की सिफारिश करने का आरोप लगाया गया था.

कोरोना वायरस से सबसे बुरी तरह से प्रभावित विश्व के तीसरे मुल्क ( दूसरे स्थान पर भारत है ) ब्राजील में स्वास्थ्य मंत्री नेल्सन टीच ने अपने पद से इस्‍तीफा इसलिए दे दिया क्योंकि उन्होंने स्वयं को राष्‍ट्रपति बोल्‍सनारो कोरोना वायरस की वास्‍तविकताओं को समझाने में नाकाम पाया. ब्राजील में एक साल में तीन स्वास्थ्य मंत्रियों को बदला गया है.

न्यूजीलैंड के स्वास्थ्य मंत्री डेविड क्लार्क ने कोरोना वायरस वैश्विक महामारियों के दौरान अपनी निजी गलतियों के कारण इस्तीफा दिया. उन्होंने बस एक बार लॉकडाउन संबंधी नियमों को तोड़ दिया था, उन्होंने इस कारण सार्वजनिक रूप से खुद को ‘बेवकूफ’ कहा.

जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने स्वास्थ्य कारणों के चलते अपने पद से इस्तीफा दे दिया. शिंजो आबे सबसे लंबे समय तक जापान के प्रधानमंत्री रहे है लेकिन देश में कोरोनावायरस महामारी को सही तरीके से नहीं संभालने पर उनकी लोकप्रियता में भी गिरावट दर्ज की जा रही थी, यह भी उनका इस्तीफा देने की बड़ी वजह बना.

इसके अलावा पराग्वे के प्रधानमंत्री समेत पूरी कैबिनेट को इस्तीफा देना पड़ा क्योकि वह महामारी से निपटने में नाकाम रहे. यह दुनिया के उन तमाम देशो की हालत. जो आज कोरोना वायरस से जूझ रहे हैं और एक हमारा देश है जहाँ बेशर्मी से मुँह उठाकर बोल दिया जाता है कि ‘मोदी सरकार में इस्तीफे नही होते.’ शर्म की बात पर गर्व करना कोई इस देश से सीखे ! हम इस बात में वाकई विश्व गुरु है.

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दुनिया मे मोदी जी ने डंका ही नहीं बजवाया है बल्कि डोंडी पिटवा दी है. मोदी सरकार ने अपने पब्लिक सेक्टर के बैंकों को कह दिया है कि वे अपने विदेशी करेंसी अकाउंट्स से पैसे निकाल लें क्योंकि इन बैंकों का कैश सीज किया जा सकता है. क्योंकि अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता न्यायाधिकरण ने भारत सरकार और ब्रिटिश फर्म केयर्न के मध्य हुए विवाद में केयर्न के पक्ष में फैसला सुनाया था और भारत सरकार को केयर्न को 1.4 अरब डॉलर का भुगतान करने को कहा था. यह फैसला दिसंबर 2020 में आया था.

अब केयर्न एनर्जी इन बैंकों का कैश सीज करने की कोशिश कर सकती है. रॉयटर्स की रिपोर्ट के मुताबिक, यह बात दो सरकारी अधिकारियों और एक बैंकर ने कही है.

केयर्न ने इस फैसले के बाद भारत के खिलाफ अमेरिका, ब्रिटेन, नीदरलैंड, कनाडा, फ्रांस, सिंगापुर, क्यूबेक की अदालतों में पहले ही अपील दायर कर दी थी इसलिए उसको भारत सरकार की विदेशी संपत्तियों को सीज करना और मध्यस्थता न्यायाधिकरण द्वारा तय रकम की वसूलना बहुत आसान है.

वित्त मंत्रालय ने इस तरह की नकदी की रक्षा के लिए बैंकों को अतिरिक्त सतर्कता बरतने के लिए कहा है, ताकि केयर्न द्वारा किए गए ऐसे किसी भी प्रयास की तुरंत शिकायत की जा सके. भारत सरकार परिसंपत्तियों को जब्त करने के खिलाफ कानूनी विकल्पों का सहारा ले सकेगी, क्योंकि बैंकों में जमा धन भारत सरकार का नहीं, बल्कि जनता का है.

मोदी सरकार पिछले साल अंतराष्ट्रीय पंचनिर्णय अदालतों में एक ओर चर्चित मामले में मुकदमा हार गयी थी. यह वोडाफोन कम्पनी से जुड़ा मामला था, जिसमें सरकार ने टैक्स के तौर पर 20 हजार करोड़ रुपये की मांग की थी. अंतरराष्ट्रीय कोर्ट ने इस मामले में भी भारत सरकार के खिलाफ फैसला सुनाते हुए वोडाफोन को बरी कर दिया था.

लेकिन यहां सरकार केयर्न से यह रकम वसूल कर चुकी है, जब केयर्न से जुड़े शेयरों को आयकर विभाग ने अपने कब्जे में ले लिया था. कुछ महीने पहले जब बीच का रास्ता निकल सकता था तब वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने केयर्न के CEO से मिलने से इनकार कर दिया था. तो अब आप मानेंगे कि डंका नही बज रहा बल्कि डोंडी पिट रही है ?

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