Home गेस्ट ब्लॉग पूंजीवाद के अंत की कहानी, एक मजदूर की जुबानी

पूंजीवाद के अंत की कहानी, एक मजदूर की जुबानी

50 second read
0
0
448
हम सबके लिए बुनियादी मार्क्सवाद को समझना बहुत जरूरी है ताकि हम सब कार्ल-मार्क्स द्वारा दिखाए इन्कलाब या क्रांति के रास्ते की बुनियादी चीजों को समझ सकें और क्रांति के लिए सही रास्ता अपना सकें. यहां यह बताना महत्वपूर्ण होगा.कि मार्क्सवादी दर्शन लगातार खुद को विकसित करता रहा है, जिसने मार्क्सवाद से लेनिनवाद और माओवाद तक का सफर तय किया है. माओवाद मार्क्सवादी दर्शन का अबतक का सबसे विकसित मंजिल है. इसलिए आज जब हम मार्क्सवादी दर्शन कहते हैं तब स्वतः ही उसमें मार्क्सवाद, लेनिनवाद और माओवाद जुड़ जाता है.
प्रस्तुत आलेख में मैंने राजनितिक अर्थशास्त्र को एक कहानी के रूप में पेश करने की कोशिश की है ताकि चीजें आसानी से समझ आयें. पुराने साथियों को तो पढना ही चाहिए लेकिन नये साथियों को जरुर पढना चाहिए ताकि वे अपने बुनियादी सवालों को हल कर सकें और अपना रास्ता तय कर सकें. अगर कोई कमी हो तो जरुर बताएं, क्योंकि मुझे भी सीखने को मिलेगा. बहुत सारे बुनियादी सवालों का जवाब इस कहानी से मिल सकता है. हां कुछ तकनीकी शब्दों की जगह पर जानबूझकर आम भाषा के शब्दों को डाला गया है ताकि आम आदमी भी इसको समझ सकें – राकेश आजाद
पूंजीवाद के अंत की कहानी, एक मजदूर की जुबानी
पूंजीवाद के अंत की कहानी, एक मजदूर की जुबानी

कोई भी उत्पाद (वस्तु) जो अपने उपयोग के लिए नहीं बल्कि लेन-देन (विनिमय या exchange) के लिए पैदा किया जाता है, उसे माल (COMMODITY) कहते हैं. और हर उत्पाद का एक मूल्य (VALUE) होता है. मान लें, जैसे एक आदमी जूता (माल) तैयार करता है और कोई दूसरा आदमी कपड़ा (माल) तैयार करता है. अब पहला आदमी अपने जूते (माल) के मूल्य के बराबर दूसरे आदमी से कपड़ा (माल) ले लेता है.

इस तरह दोनों आदमियों में मालों का लेन-देन (विनिमय या exchange) हुआ ताकि दोनों अपनी जरूरतें पूरी कर सकें. इस तरह मालों के लेन-देन ( विनिमय या आदान-प्रदान या exchange) पे आधारित व्यवस्था को ही पूंजीवादी व्यवस्था (CAPITALIST SYSTEM) कहते हैं. अगर एक आदमी अपना माल बेचता है तो खरीदने वाला उसके माल के मूल्य के बराबर उसको पैसा (मुद्रा) दे देता है. यही पूंजीवाद का नियम है. मालों के इस तरह आदान-प्रदान (exchange) को ही व्यापार कहते हैं.

मजदूर के काम करने की जो शक्ति (ताकत या सामर्थ्य) होती है, उसे श्रम-शक्ति कहते हैं. इस श्रम-शक्ति से मजदूर कपास को सूत में, चमड़े को जूते में, लोहे को औजारों में आदि में बदल सकता है. मतलब कि किसी भी कच्चे माल को उपयोगी माल (वस्तु) में बदल सकता है. लेकिन मजदूर के पास अपना कुछ नहीं होता सिवाय इस श्रम शक्ति के. और इस व्यस्व्था में ये श्रम शक्ति भी एक माल होती है.

इसलिए मजदूर को अगर अपने जीने के लिए कुछ जरूरी चीजें चाहिए तो उसको भी मंडी में अपने माल (श्रम-शक्ति) को किसी दूसरे को बेचना होगा, ताकि उसके बदले में वो अपने जीने के लिए किसी दूसरे माल को (मतलब जीने के लिए जरूरी चीजें या वस्तुएं) हासिल कर सके. और इस मंडी में उसकी मुलाकात होती है पूंजीपति से. और तब वो कहानी शुरू होती है जो सारी दुनिया के दुःख-तकलीफों, कंगाली और दरिद्रता का कारण बनती है.

पूंजीपति मजदूर को कहता है – ‘तुम मुझे अपना माल दो और इसके बदले में मैं तुम्हें उसके मूल्य के बराबर अपना माल दूंगा. मतलब इतना पैसा (मुद्रा) दूंगा कि तुम अपने जीने के लिए जरूरी चीजें हासिल कर सको. मै सिर्फ 8 घंटे (एक दिन का श्रम काल) के लिए तुम्हारा श्रम-शक्ति (मेहनत) खरीदूंगा और बदले में तुम्हें 100 रूपये दूंगा. (क्योंकि मान लीजिये 100 रूपये में मजदूर के जीने के लिए जरूरी चीजें चीजें आ जाती हैं)’.

पूंजीपति की सारी चालाकियों से अनजान, बेचारा भोला भाला मजदूर इस सौदे के लिए तैयार हो जाता है. पूंजीपति की फैक्ट्री में एक मशीन (उत्पादन का साधन) है जो सूत से कमीजें बनाती है. एक दिन में 2 किलो सूत से एक कमीज तैयार की जा सकती है. पहले दिन मजदूर ने पूरी ईमानदारी से काम किया और पूरे 2 किलो सूत से एक कमीज तैयार कर दी. दिन ख़तम होने पर पूंजीपति ने पूरे 100 रूपये मजदूर के हाथ में रख दिए.

मजदूर बहुत खुश हुआ कि मालिक (पूंजीपति) कितना अच्छा है, जो मेरे श्रम का पूरा मूल्य दे देता है, जिससे मैं अपने जीने के लिए सारी चीजें हासिल कर सकूंगा. पूंजीपति ने भी इस कमीज को 400 रूपये में आगे बेच दिया. इस तरह दिन बीते, फिर महीने और साल बीते. 20 साल बाद मजदूर ने देखा कि वो लगातार गरीब होता जा रहा था और पूंजीपति लगातार अमीर होता जा रहा था. पर मजदूर को ये समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा क्यों हो रहा है ?

उसको लग रहा था कि शायद पूंजीपति उसकी बनाई कमीज को बाहर दुकानों में महंगे भाव पर बेच देता होगा, जिससे उसका मुनाफा बढ़ता गया होगा और वो अमीर होता गया होगा. क्योंकि बेचारे इस पूंजीपति ने तो उसके श्रम का पूरा मूल्य दिया और इसने मेरे साथ कोई बेईमानी भी नहीं की. लेकिन उसको ये बात बिलकुल समझ नहीं आ रही थी कि वो कमीज तो खुद बनाता है और दिन रात मेहनत करता है पर उसकी आमदनी क्यों नहीं बढ़ रही और अब तो बल्कि उसके हालत तो दिन-ब दिन बदतर होती जा रही है.

वह परेशान होकर सोचता है कि शायद भगवान की इसी में मर्जी होगी. इसी उधेड़ बुन में उसकी जिंदगी खत्म होने के कगार पर आ गयी. तभी एक दिन उसका एक दोस्त कार्ल-मार्क्स उसको मिला और उसने उसके कानों में कुछ समझाया. उसकी (कार्ल मार्क्स की) बातें सुनते ही मजदूर की समझ के ऊपर पड़े सारे काले-काले बादल छंट गये और सब साफ़-साफ़ दिखाई देने लगा. और फिर अगले दिन वह मजदूर पूंजीपति के पास गया. उसने पूंजीपति को कडक आवाज में कहा, ‘आज मुझे समझ आया कि तुम तो मुझे इतने सालों से लूट रहे थे, पर मैं तुम्हें इतने सालों से देवता मानता रहा.’

उसकी बातें सुनकर पूंजीपति भौंचक्का रह गया. थोडा संभलते हुए पूजीपति ने कहा, ‘मैंने कोई लूट नहीं की. मैंने तुम्हारे माल (श्रम) का पूरा मूल्य वेतन के रूप में दे दिया है तो फिर लूट कैसे हुई ?’ तब मजदूर ने गुस्से से जवाब देना शुरू किया, ‘तुम्हारा यह वेतन रूप ही तो मेरी लूट को छिपाता है जबकि हम दोनों तो आपस में व्यापार (आदान-प्रदान या विनिमय या exchange के जरिए) कर रहे थे और तुम्हें मेरे माल का पूरा मूल्य (VALUE) देना था, अपने माल के रूप में.’

तो पूंजीपति ने पूछा, ‘हां, तो श्रम का तो पूरा ही मूल्य दिया ना, तो इसमें लूट कैसी ?’ तब मजदूर ने जवाब दिया, ‘यहीं तो झूठ बोल रहे हो. मैंने तुम्हें श्रम नहीं बल्कि श्रम शक्ति (LABOUR POWER) बेची है जो खुद एक माल है. और मेरा माल (श्रम शक्ति) बाकी मालों से इसलिए अलग है कि इससे (श्रम शक्ति से) पैदा होने वाले माल में ये अपने मूल्य से ज्यादा एक नया मूल्य (VALUE) जोड़ देता है. और मुझे इस श्रम शक्ति को रोजाना पैदा करने के लिए सिर्फ 4 घंटे श्रम (आवश्यक श्रम) करना जरूरी है (अर्थात अपने आपको जिन्दा रखने के लिए जरूरी चीजों को खरीदने के लिए 4 घंटे काम करना जरूरी है).

क्योंकि सौदा करते वक्त तुमने मुझसे कहा था कि तुम मुझसे सिर्फ उतना ही काम करवाओगे, जिससे मैं अपने जीने के लिए जरूरी चीजें खरीद सकूं. और इसका मतलब बनता है कि 4 घंटे श्रम करवाने का मूल्य बनता है 100 रूपये, लेकिन तुमने मुझसे काम करवाया 8 घंटे, मतलब 4 घंटे ज्यादा श्रम (बेशी श्रम या SURPLUS LABOUR) करवाया और इस अतिरिक्त 4 घंटे श्रम का मूल्य बनता है 100 रूपये. इसका मतलब मेरी श्रम शक्ति ने 100 रूपये का नया मूल्य (बेशी मूल्य या SURPLUS VALUE) को उत्पाद (कमीज) में जोड़ दिया.

सूत को कमीज में बदलने के लिए जो तुम्हारी मशीन (POWERLOOM or means of production या उत्पादन के साधन) की घिसाई हुई और साथ में 2 किलो सूत का मूल्य मिला के 200 रुपया खर्चा आया था. मतलब कमीज का कुल मूल्य 400 रूपये हो गया और तुमने इसको 400 रूपये में ही बेचा. मतलब तुम मेरे द्वारा बनाए माल को बाहर दुकानों में महंगा बेचने से अमीर नहीं हुए क्योंकि तुमने तो इसको 400 रूपये में ही बेचा था, लेकिन फिर भी तुम्हें हर कमीज में 100 रूपये फायदा हुआ.

असलीयत अब यह है कि तुमने हर रोज़ 8 घंटे में से मेरे 4 घन्टे के श्रम (बेशी श्रम या SURPLUS LABOUR) की लूट करके, अपनी कमीज का दाम 400 रूपये रखा और इस 400 रूपये की कमीज में, मेरी श्रम शक्ति से ही जो 100 रूपये (बेशी मूल्य या SURPLUS VALUE) के रूप में जुड़े थे, वही 100 रुपया तुम्हें मुनाफे के रूप में कमीज को बेचने पर प्राप्त हुआ, और यही मुनाफा (बेशी मूल्य या SURPLUS VALUE का ही एक रूप) तुम्हारी पूंजी (CAPITAL) बनता गया और उससे ही तुम इतने सालों में आज अरबपति बन गये और मैं बदहाली की खाई में गिरता रहा.

तुम हमेशा कोशिश करते रहे कि तुम्हारा मुनाफा लगातार बढ़ता रहे इसलिए हमेशा इस 8 घंटे (एक कार्य-दिवस) के समय में मेरी श्रम शक्ति को ज्यादा से ज्यादा निचोड़ने के तरीके निकलते रहे. जैसे कभी 8 घन्टे के कार्य-दिवस बढ़ा कर 12 घंटे करते रहे या कार्य दिवस नहीं भी बढ़ाया तब भी इसी 8 घंटे में मुझे निम्बू की तरह निचोड़ कर मेरा जूस मतलब मेरी श्रम शक्ति चूसने के लिए नई-नई तेज मशीनों को लाते रहे.’

तो पूंजीपति झल्ला के पूछता है, ‘ऐसा कैसे सम्भव है कि 8 घन्टे से ज्यादा कार्यदिवस न बढ़ाने पर भी मैंने तुम्हें लूटा हो ?’ तब मजदूर कहता है कि अगर एक मजदूर अपनी जिंदगी में कुल 20 साल काम कर सकता है तो मेरी श्रम शक्ति का वह मूल्य (VALUE) जो तुम मुझे रोज देते हो, वो उसके कुल मूल्य (20 साल के कुल मूल्य का) का 7300वां (मतलब 1365×20 वां) हिस्सा बनता है. लेकिन तुम अगर मेरी श्रम शक्ति को 20 साल के बजाय 5 साल में ही खर्च कर डालते हो तब तुम मुझे मेरी श्रम शक्ति के कुल मूल्य का 1825वां (मतलब 1365×5वां) हिस्सा देने कि बजाए 7300वां (मतलब 1365×20 वां) हिस्सा ही देते हो.

मतलब कि मेरे दैनिक मूल्य का सिर्फ चौथा हिस्सा (मतलब 1/4 हिस्सा) ही देते हो. और इस तरह तुम रोज़ मेरे माल के तीन हिस्से (मतलब 3/4 हिस्सा) रोज़ मुझसे लूट लेते हो. तुम मुझे दाम दोगे एक दिन की श्रम शक्ति का और इस्तेमाल करोगे 4 दिन की श्रम शक्ति का ! और यह हम लोगों के करार (समझौते) और विनिमय (exchange) के नियम के खिलाफ है. इसलिए अपनी मुक्ति के लिए मैं इस करार को तोड़ दूंगा. अब चाहे तुम मुझे बोनस, काम के कम घंटे, कार्य के अनुसार वेतन या प्रति पीस वेतन जैसा कोई भी लालच दो लेकिन मैं तुम्हारी मक्कारी से भरी चिकनी चुपड़ी बातों में नहीं आऊंगा क्योंकि ये सभी रूप मेरे शोषण को और भीषण हद तक बढ़ा देते हैं.

और मेरी मेहनत को लूट कर तुम्हें जो बेशी मूल्य (SURPLUS VALUE) का फायदा या मुनाफा होता है, उसी से कुछ हिस्सा तुम सरकार को और उसके अधीन काम करने वाली ब्यूरोक्रेसी को, न्यायालयों को, सेना को, मध्यम वर्ग को देते हो ताकि तुम उन सबको मेरे खिलाफ मतलब पूरे मजदूर वर्ग के खिलाफ खड़ा कर सको. इन सबको अपने इशारों पर नचवाने के लिए तुमने एक ऐसा संविधान बना रखा है, जिसमें तुमने सिर्फ और सिर्फ अपनी लूट के काले साम्राज्य को बढ़ाने के के लिय कानून बना रखे हैं, जिसकी वजह से ये सब संस्थाएं तुम्हारी कठपुतली की तरह काम करती हैं.

और इसी बेशी मूल्य (SURPLUS VALUE) से और ज्यादा लूट बढ़ाने के लिए तुमने तरह-तरह की कम्पनियां बना रखी हैं, जिनमें से बहुत सारी कम्पनियां किसानों द्वारा पैदा किए माल (मतलब अनाज जो खुद भी एक माल का रूप है) को खरीदती हैं लेकिन इसमें सबसे ज्यादा नुकसान छोटे किसानों का होता है, क्योंकि उनको तुम्हारी ये कम्पनियां बहुत कम दाम देती है.

इसको ऐसे भी कह सकते हैं कि किसानों (एक तरह से छोटे पूंजीपति) द्वारा पैदा किए माल की और कम्पनियों (बड़े पूंजीपति) के माल के बीच बाज़ार में स्पर्धा (COMPETITION) होती है, जिस वजह से किसानों (छोटे) को कभी अपनी फसलों (माल) का बाज़ार में सही दाम नहीं मिलता. जिस वजह से हमेशा उसको नुकसान ही सहना पड़ता है और ये नुकसान एक दिन इतना ज्यादा हो जाता है कि अंत में उसे आत्महत्या करनी पडती है. इस वजह से इन छोटे किसानों की प्रवृति हमारी तरफ (मजदूर वर्ग या सर्वहारा में) शामिल होने की ही होती है.

और तुम सिर्फ इतना ही नहीं करते हो बल्कि गांव में कृषि में लगी पूंजी से तुम उजरती (वेतनभोगी) मजदूरों या खेत मजदूरों का भी श्रम लूटते हो और उनसे पैदा हुए बेशी मूल्य से अपनी ताकत में लगातार मुनाफा करते हो. इसलिए अब मैं सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि पूरे मजदूर वर्ग की पूर्ण मुक्ति के लिए लडूंगा और इसमें मेरे साथ वो छोटे किसान भी शामिल होंगे, जिन्हें कृषि में लगे उजरती मजदूरों ने दिशा दी है कि उनकी मुक्ति सिर्फ हमारे साथ मिलकर संघर्ष करने से ही होगी.

इसमें बेरोजगारों की या तुम्हारी कम्पनियों या फैक्ट्रियों में बहुत कम वेतन प्राप्त करने वाले निम्न मध्यम वर्ग के वो मेहनतकश लोग भी शामिल होंगे, जो खुद मजदूर नहीं हैं बल्कि तुम्हारी इस व्यवस्था के भयानक दमन का शिकार हैं. और तुमसे जीतने के बाद एक ऐसी व्यवस्था कायम करूंगा, जिसमें मनुष्य के हाथों मनुष्य का शोषण खत्म होगा और पूरी मानवजाति इस दरिद्रता और कंगाली से हमेशा के लिए आज़ाद हो जाएगी !

तो पूंजीपति चीख उठता है, ‘ऐसी कोई व्यस्व्था हो ही नहीं सकती. जब तक दुनिया में पूंजी रहेगी, हमेशा हमारा राज रहेगा.’ तो मजदूर हंसते हुए जवाब देता है, ‘सबसे पहले तुम्हारी पूंजी का ही नाश करूंगा और फिर ‘माल’ उत्पादन की व्यवस्था को खत्म करूंगा. तुमने मुझे भी इन्सान समझने की जगह हमेशा अपने माल ही की तरह समझ के ख़रीदा है इसलिए मैं अपने इस ‘माल’ रूप को भी खत्म कर दूंगा.’

तब पूंजीपति हंस पड़ता है और कहता है, ‘फिर तुम पूंजी के बिना जिओगे कैसे ? पूंजी से ही तो सभी संसाधन मिलते हैं. ‘माल उत्पादन’ को हो खत्म कर दोगे तो जीने के लिए जरूरी चीजें कहां से पैदा करोगे ? अपने इस रूप को ही खतम कर दोगे तो फिर तुम्हें कौन खरीदेगा और तुम्हें जीने के लिए जरूरी चीजें कौन देगा ?’ तब मजदूर पूरे आत्मविश्वास से जवाब देता है, ‘जिस व्यवस्था की बात मैं कर रहा हूं, उसे समाजवाद कहते हैं. और इस में ही सबसे पहले उस पूंजी का नाश होगा.

इसका मतलब सिर्फ यह है कि मेरी मेहनत के एक हिस्से (बेशी श्रम या SURPLUS LABOUR) को लूट कर जो तुमने मेरे द्वारा पैदा किए बेशी मूल्य (SURPLUS VALUE) को पूंजी (CAPITAL) में बदला है और जिसके साथ तुम पूरी दुनिया के मजदूरों को लूटते हो हम उस पूंजी का नाश करेंगे. मतलब दुनिया के हर मजदूर की लूट का नाश करेंगे. और इसका एक ही तरीका है कि मैं तुम्हारे हाथों से तुम्हारी सूत से कपड़ा बनाने वाली मशीन (उत्पादन के साधन) छीन कर इसको समाज की सम्पत्ति बनाऊंगा और तब सारे मजदूर सिर्फ अपने लिए और पूरे समाज के लिए उत्पादन करेंगे ना कि किसी पूंजीपति की मुनाफे की हवस पूरी करने के लिए !

तब किसी मजदूर का कोई भी शोषण नहीं कर पायेगा क्योंकि बेशी मूल्य (SURPLUS VALUE) ही पैदा नहीं होगा और न ही बेशी मूल्य को पूंजी में बदला जा सकेगा और न ही फिर इस हत्यारी पूंजी (CAPITAL) द्वारा मजदूरों का विनाश होगा. माल उत्पादन को नष्ट करने से मेरा मतलब है कि इस पूंजीवादी व्यवस्था में जो उत्पाद (चीजें या वस्तुएं) अपने उपयोग के लिए नहीं बल्कि दूसरों के साथ विनिमय (आदान-प्रदान या लेन-देन या exchange) के लिए बनाई जाती हैं या पैदा की जाती हैं, उसको ‘माल’ कहते हैं, और इनके उत्पादन (PRODUCTION) को ही ‘माल’ उत्पादन कहते हैं।

लेकिन समाजवाद में चीजों का उत्पादन तो होगा लेकिन व्यापार के लिये (या विनिमय या exchange या लेन देन) के लिए नहीं बल्कि समाज के सभी इंसानों की जरूरतें पूरी करने के लिए होगा. तो जब विनिमय (लेन-देन या आदान-प्रदान) ही नहीं होगा तो वस्तुओं (उत्पादों) के नाम के साथ जुड़ा शब्द ‘माल’ हट जाएगा. मतलब इस ‘माल’ का उत्पादन नहीं होगा बल्कि सिर्फ चीजों (या वस्तुओं) का उत्पादन होगा, जिसपर पूरे समाज का हक़ होगा. और ‘मालों’ का उत्पादन वाली व्यवस्था को ही तो पूंजीवादी व्यवस्था कहते हैं. मतलब हम इस पूंजीवादी व्यवस्था को ही नष्ट करेंगे और तब एक नयी व्यवस्था समाजवादी व्यवस्था की स्थापना हो जाएगी.

तुम मुझे भी (मतलब श्रम शक्ति) सिर्फ भी एक माल की तरह रोजाना खरीदते हो और वेतन की आड़ में मेरे द्वारा पैदा किए उत्पाद के एक नये मूल्य (बेशी मूल्य या सरप्लस वैल्यू) को लूट कर ले जाते हो क्योंकि इस मशीन पे तुम्हारा कब्ज़ा है. और जब ये मशीन समाज की सम्पति बन जाएगी, तब मेरी श्रम शक्ति ‘माल’ नहीं रह जाएगी और मैं उसको किसी को बेचूंगा नहीं (इसका एक मतलब ये भी बन सकता है कि मैं इसको खुद को ही बेचूंगा), बल्कि इस श्रम शक्ति से जो उत्पादन करूंगा उसे मैं अपने वर्तमान और भविष्य के लिय पैदा करूंगा ना कि किसी पूंजीपति के लूटने के लिए और मानवता को बर्बाद करने के लिए.

यह सुनकर पूंजीपति के रोंगटे खड़े हो गये और वो समझ गया कि अब मजदूर मुझसे डरने वाला नहीं है और मुझसे मेरी मशीन (उत्पादन के साधन) छीन कर ले जायेगा और मेरे ये लूट के काले साम्राज्य का अंत हो जायेगा. इसलिए पूंजीपति अपने पैसे पर पलने वाली सरकार, सेना, पुलिस और ब्यूरोक्रेसी को अपनी रक्षा के लिए बुला लेता है.

लेकिन अब मजदूर जाग चुका था. अब वह अपने दोस्त कार्ल मार्क्स के दिखाए रास्ते को पूरी तरह समझ चुका था और उसको अपना चुका था. उसकी आंखों में एक ऐसी दुनिया का सपना था, जिसमें मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का अंत होने वाला था और दुनिया की सारी कंगाली, दरिद्रता का अंत होने वाला था. इसलिए अब वह पूरे मजदूर वर्ग को जगा रहा था, साथ में छोटे किसानों, बेरोजगारों और इस व्यवस्था के भयानक दमन के शिकार हर तबके को भी लड़ने के लिए तैयार कर रहा था. क्योंकि मजदूर जानता था कि ये संघर्ष हथियारबंद भी हो सकता है या बिना हथियार के भी.

लेकिन ज्यादा सम्भावना हथियारबंद संघर्ष की ही होती है इसलिए उसकी भी पूरी तैयारी कर ली थी. मजदूर उन सबमें क्रांति का एक नया जोश भर रहा था, सबको एक नया सपना दे रहा था और सबको संगठित कर रहा था. पूरा मजदूर वर्ग एक पार्टी के रूप में अपनी पूरी ताकत के साथ उठ खड़ा हुआ था और इस पूंजीपति को अपनी सरकार और सेना के साथ नेस्तनाबूद करने के लिए तैयार था ताकि उस मशीन (उत्पादन के साधन) पे कब्ज़ा कर सके जिससे पूरी मानवता की मुक्ति होने वाली थी. और अब बस वो घड़ी आ गई जब पूरा मजदूर-मेहनतकश वर्ग इस पूंजीपति के सामने खड़ा था, उसकी सदियों की गुलामी का अंत करने के लिए.

विगत डेढ़ सौ वर्ष के इतिहास में मजदूरों ने सबसे पहले ‘पेरिस कम्युन’ के रुप में अपना राज कायम किया, जिसे पूंजीपतियों ने मजदूरों के खून में डूबोकर इस राज को नष्ट कर दिया. इसके बाद 1917 ई. में अजेय सोवियत संघ का स्थापना किया, जिसने मजदूरों के राज की एक से बढ़कर एक आश्चर्यजनक रुप में मजदूरों के सपनों को साकार करते हुए आधी दुनिया में अपना राज कायम किया,.

लेकिन दुर्भाग्य से ख्रुश्चेव नामक गद्दार के कारण 1953 में मजदूरों का यह राज 36 साल के बाद खत्म हो गया और 1976 आते आते एक और गद्दार तेंग श्याओपिंग के कारण सारी दुनिया से मजदूरों का यह राज खत्म हो गया. इस तात्कालिक असफलताओं से सबक लेकर मजदूरों ने नये सिरे से दुनियाभर में मजदूरों के राज को कायम करने, समाजवाद को वापस लाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, हर संभव तरीके अपना रहे हैं. हमारे देश भारत में भी यह महान संघर्ष जारी है, जिसमें जरूरत है हर मजदूरों, किसानों समेत अन्य तमाम तबकों को एकजुट हो जाने की.

नोट : यहां पूंजीपति शब्द पूरे पूंजीपति वर्ग को दर्शा रहा है, मजदूर शब्द पूरे मजदूर वर्ग (सर्वहारा) को दर्शा रहा है, सूत से कपड़ा बनाने वाली मशीन सारे उत्पादन के साधनों को दर्शा रही है और ये कमीज बनाने वाली फैक्ट्री पूरी पूंजीवादी व्यवस्था को दर्शा रही है.

Read Also –

हिटाची के संघर्षरत मज़दूरों के समर्थन में ज़ोरदार प्रदर्शन
आऊटसोर्सिंग कर्मचारियों के शोषण और लूट के लिए कुख्यात IGIMS
चंद्रयान बनाने वाले मज़दूरों (वैज्ञानिकों) को 17 महीने से वेतन नहीं
मार्क्स की 200वीं जयंती के अवसर पर
मई दिवस : हे मार्केट के शहीदों का खून
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास, 1925-1967

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]

scan bar code to donate
scan bar code to donate
Pratibha Ek Diary G Pay
Pratibha Ek Diary G Pay

ROHIT SHARMA

BLOGGER INDIA ‘प्रतिभा एक डायरी’ का उद्देश्य मेहनतकश लोगों की मौजूदा राजनीतिक ताकतों को आत्मसात करना और उनके हितों के लिए प्रतिबद्ध एक नई ताकत पैदा करना है. यह आपकी अपनी आवाज है, इसलिए इसमें प्रकाशित किसी भी आलेख का उपयोग जनहित हेतु किसी भी भाषा, किसी भी रुप में आंशिक या सम्पूर्ण किया जा सकता है. किसी प्रकार की अनुमति लेने की जरूरत नहीं है.

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

कामरेडस जोसेफ (दर्शन पाल) एवं संजीत (अर्जुन प्रसाद सिंह) भाकपा (माओवादी) से बर्खास्त

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने पंजाब और बिहार के अपने कामरेडसद्वय जोसेफ (दर्शन पाल…