भारत में गर्मियों की आमद के साथ ही बिजली की मांग में एकदम बढ़ोतरी हो जाती है. जहां लोग गर्मी से बेहाल होते हैं, वहां बिजली कटों का बढ़ना उनकी तल्खी को और बढ़ा देता है. इस साल बिजली की मांग कुछ ज़्यादा ही बढ़ गई है, इसके साथ ही अप्रैल महीने से ही शुरू हुए तथाकथित कोयला संकट का भी शोर-शराबा चल रहा है. अप्रैल महीने के शुरू से ही हमें ‘कोयला ख़त्म होने की क़गार पर’, ‘फलाने थर्मल में बचा 2 दिन का कोयला’ जैसी बातें सुनने को मिल जाती हैं. वैसे तो हर बार गर्मी की आमद पर बिजली संकट का शोर होता है, बिजली के कट बढ़ते हैं, पर इस बार ‘कोयले की कमी’ का शोर कुछ ज़्यादा ही सुनने को मिल रहा है. क्या सच में भारत के पास कोयला ख़त्म होने वाला है ? इसके बारे में थोड़ा विस्तार में बात करते हैं.
इसमें कोई शक नहीं कि पिछले सालों के मुकाबले भारत में बिजली की मांग बढ़ने के कारण और कोयला बिजली पैदावार का मुख्य साधन होने के कारण कोयले की मांग बढ़ी है. 26 अप्रैल 2022 की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में बिजली की मांग 201 गीगावाट के पार हो गई है, इसी कारण भारत में कोयले की मांग भी 13,200 करोड़ यूनिट तक पहुंच गई है, जो 2019 में 10,660 करोड़ यूनिट थी. इसके साथ ही अप्रैल के शुरू से ही भारतीय थर्मल प्लांटों में कोयले के भंडार 17% रह जाने की ख़बरें आनी शुरू हो गईं. इसका प्रतिशत ‘द हिंदू’ अख़बार ने 25% बताया.
भारत की 70% बिजली की मांग की पूर्ति थर्मल प्लांटों से होती है. देश में कोयले की मांग एक अरब टन है, जिसमें से 80 करोड़ टन देश की कोयला खदानों में से पैदावार होती है और 20 करोड़ टन दक्षिणी अफ़्रीका, इंडोनेशिया और ऑस्ट्रेलिया से आयात किया जाता है. कहा जा रहा है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोयले की क़ीमतों में उतार-चढ़ाव, रूस-यूक्रेन जंग, गर्मी बढ़ने आदि की वजह से भारत में कोयले की कमी हो गई है. यहां तक कि सरकार को यात्री रेलगाड़ियां बंद करके कोयला ढोने वाली रेलों के रूट बढ़ाने पड़े.
वहीं ‘केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण’ का डाटा बताता है कि ’19 अप्रैल 2022 तक कोयले के थर्मल प्लांटों की पैदावार क्षमता 182.39 गीगावाट थी, जिनके पास कोयले के भंडार 34% हैं.’ अप्रैल के शुरू होने से ही हम कोयला ख़त्म होने की ख़बरें पढ़ रहे हैं जबकि कोयले के भंडारों में भारत चौथे नंबर का देश है और कोयला बाहर भेजने के मामले में चीन के बाद भारत का नंबर आता है. आखिर कोयला संकट को ज़ोर-शोर से क्यों प्रचारित किया जा रहा है ?
इसका कारण है कोयले की नक़ली कमी पैदा करके कोयले की खदानों को अडानी एंटरप्राइज़, वेदांता, टाटा आदि जैसे पूंजीपति घरानों को कौड़ियों के दाम बेचना क्योंकि 2020 में ही ‘खनिज क़ानून (संशोधन) अध्यादेश, 2020’ लागू करके सरकार ने तब से ही कोयला खदानों को निजी घरानों के लिए खोल दिया था, जिन पर 2014 तक कई तरह के प्रतिबंध थे.
मीडिया के कई घरानों और किराए के कलमघसीटों द्वारा मौजूदा कोयले के संकट में से उभरने के लिए निजी कंपनियों की हिस्सेदारी द्वारा कोयले के इस तथाकथित संकट से निकलने के सुझाव ऐसे ही नहीं दिए जा रहे हैं. यानी ‘कोल इंडिया लिमिटड’ जैसे सरकारी संस्थान जो भारतीय कोयले की 80% ज़रूरतों को पूरा करते हैं, उन पर निजीकरण की तलवार चलानी है. और हमें यह भी पता है कि मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए ये निजी घराने, कोयले की खदानों पर इजारेदारी स्थापित होने पर सरकार को कोयला मनमाने दाम पर बेचेंगे. चाहे सरकार इस क़ानून का खनिजों के अमीर राज्य विरोध कर रहे हैं, जिसका सर्वोच्च अदालत में केस भी चल रहा है.
सिर्फ़ इतना ही नहीं निजी घरानों को इस क्षेत्र में घुसाने के लिए मोदी सरकार ने इन घड़ियालों के लिए खदानों की क़ीमत कम करके, पैसे में छूट आदि देने का ऐलान भी किया है. इससे भी आगे बढ़कर सरकार कोयले की खदानों में से सुचारु रूप से कोयला निकालने के लिए 2030 तक कोयले की खदानों के इर्द-गिर्द 500 अरब डॉलर ख़र्च करके आधारभूत ढांचा विकसित करेगी, इसका ऐलान भी वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 16 मई 2020 को ही कर दिया था.
उसने कहा था, ‘सरकार कोयला खदानें लेने के नियमों को ढीला करने जा रही है, जिसके साथ कोई भी कोयला खदानों में लगाव रखने वाली पार्टी कोयला ब्लॉकों की बोली लगा सकेगी और इसे खुले तौर पर बेच सकेगी. दूसरा कोयला निकालने के आधारभूत ढांचे में सरकार 50,000 करोड़ ख़र्च करेगी. इसी वजह से भारत सरकार को उम्मीद है कि निजी कंपनियां 2030 तक 35-40 करोड़ टन कोयला पैदा करने लगेंगी. ‘संघीय कोयला मंत्रालय’ के एडिशनल सचिव एम नागराजू ने ‘इंडियन कोल मार्केट्स कांफ्रेंस’ में बताया कि मार्च 2023 तक निजी कंपनियां 60% के आस-पास तक़रीबन 13-13.5 करोड़ टन पैदावार बढ़ा देंगी.
नए ‘खनिज क़ानून (संशोधन) अध्यादेश, 2020’ के चलते निजी कंपनियों को व्यापारिक हितों के लिए कोयला खानें दी जाएंगी, वह भी बिना किसी शर्त के. इससे निकला कोयला बाहर भी बेचा जा सकता है. यानी मोदी सरकार मेहनतकशों के ख़ून-पसीने से बने देश के प्राकृतिक खनिजों/खदानों को पूंजीपति घरानों को कौड़ियों के दाम लुटाने के अपने असली एजेंडे को आगे बढ़ा रही है.
कोयले की 100 खदानों को बेचने के लिए सरकार ने अडानी एंटरप्राइज़, टाटा पावर, एसेल माइनिंग, जे.एस.डब्ल्यू. और जिंदल स्टील जैसों के साथ सलाह-मशवरा भी कर चुकी है. इसी के चलते पिछले दिनों ‘कोल इंडिया लिमिटेड’ की सब्सिडरी सी.एम.पी.डी.आई.एल. (केंद्रीय खदान योजना और डिज़ाइन इंस्टिट्यूट) के 10% शेयर बेचने के लिए भारत सरकार ने कोल इंडिया लिमिटेड के पास भी पहुंच की. सरकार ने ‘इसके कामों में सुधार होगा’ का तर्क दिया, चाहे बाद में यह ख़बर दबा दी गई.
उपरोक्त सारे तथ्यों से हम यह देख सकते हैं कि असली मुद्दा कोयले की कमी नहीं है, बल्कि कोयले की नक़ली कमी पैदा करके और इस नक़ली कमी के शोर-शराबे में कोयला खदानों को निजी कंपनियों को कौड़ियों के दाम बेचना है इसीलिए कोयले की कमी का तो फ़िलहाल सवाल ही कोई नहीं है.
हां, यह बात है कि कोयला ऊर्जा पैदा करने का वह साधन है जो दोबारा इस्तेमाल नहीं किया जा सकता इसलिए आने वाले समय में इसकी कमी हो सकती है, जिसके लिए सरकार पानी, हवा, सौर ऊर्जा जैसे अक्षय साधनों से भी बिजली की कमी पूरी कर सकती है. पर यह काम वर्तमान पूंजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी मार्का सरकारों से होने की उम्मीद कम ही है. हां, अगर इनके मालिकों (पूंजीपतियों) को बिजली के इन वैकल्पिक साधनों से मुनाफ़े आने का सवाल हुआ तो यह काम ज़रूर करेंगी, पर जनता को सस्ती बिजली देने के लिए, राहत की सांस दिलाने के लिए नहीं.
गेहूं की सरकारी ख़रीद घटाकर सार्वजनिक वितरण प्रणाली में कटौती कर रही मोदी सरकार
अभी ख़त्म हुए गेहूं के सीजन में भारत सरकार ने इस बार सिर्फ़ 195 लाख टन गेहूं की ही ख़रीद की है. यह उससे पहले के निर्धारित लक्ष्य 4.55 करोड़ टन से 56 प्रतिशत कम है. 2021-22 के दौरान भी केंद्र सरकार ने 450 लाख टन की ख़रीद की थी, पर इस बार सरकार सीधा 260 लाख टन कम ख़रीद कर रही है. गेहूं की ख़रीद कम होने से लोगों को विभिन्न योजनाओं के तहत सस्ता या मुफ़्त अनाज देने की सार्वजनिक वितरण प्रणाली और गेहूं की क़ीमतें बुरे ढंग से प्रभावित होने का पूरा अंदेशा है.
जहां एक तरफ़ सरकारी ख़रीद कम की गई है और सार्वजनिक वितरण प्रणाली में कटौती की गई है, वहीं विश्व बाज़ार में गेहूं बेचकर मुनाफ़ा कमाने के लिए भी पूरा ज़ोर लगाया जा रहा है. रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में गेहूं के दाम बढ़े हुए हैं. चूंकि दोनों देश गेहूं के बड़े निर्यातक हैं, विश्व में पैदा होने वाले कुल गेहूं में 28 प्रतिशत इन दोनों देशों में पैदा होता है. एक अनुमान के अनुसार युक्रेन का गेहूं उत्पादन 35% से लेकर 50% कम हो सकता है. भारत सरकार इस अवसर का फ़ायदा उठाते हुए गेहूं निर्यात कर डॉलर कमाना चाहती है.
वर्ष 2021-22 के दौरान भारत ने कुल 70 लाख टन गेहूं का निर्यात किया था. इस वर्ष अगर अब तक की बात करें तो सिर्फ़ अप्रैल माह में ही 11 लाख टन का निर्यात भारत कर चुका है और अब तक 40 लाख टन निर्यात करने का समझौता हो चुका है. वर्ष 2022-23 के लिए भारत सरकार ने 100 लाख टन गेहूं अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में बेचने का लक्ष्य निर्धारित किया है. यानी देश के लोगों के मुंह से निवाला छीनकर केंद्र सरकार डॉलर कमाने में लगी हुई है और यह डॉलर सरकार ने बड़े-बड़े अमीरों की जेबों में ही डालने हैं. इसका परिणाम देश के अंदर सरकारी ख़रीद कम होने, सार्वजनिक वितरण प्रणाली में कटौती होने और महंगाई बढ़ने के रूप में सामने आ रहा है.
भारत में इस वर्ष गेहूं का उत्पादन मौसम की मार (बेमौसम बारिश और मार्च-अप्रैल में पड़ी गर्मी) के कारण कम हुआ है. पहले अनुमान यह था कि इस वर्ष गेहूं का उत्पादन 1113 लाख टन होगा. अब सरकार के अपने अनुमान के अनुसार ही उत्पादन 60 से 100 लाख टन कम हो सकता है. कृषि विशेषज्ञ इससे ज़्यादा कम होने के अनुमान लगा रहे हैं. कृषि से जुड़े लोगों के अनुमान के अनुसार गेहूं उत्पादन 25 से 30% कम हो सकता है. पर फिर भी अनुमानित 1050 लाख टन में से सिर्फ़ 195 लाख टन गेहूं की ख़रीद करना मोदी सरकार के मंसूबों पर सवाल खड़े करता है.
भारत सरकार ने 2021-22 के दौरान प्रधानमंत्री ग्राम कल्याण अन्न योजना, मिड-डे-मील समेत सार्वजनिक वितरण प्रणाली की सभी योजनाओं के तहत 450 लाख टन गेहूं वितरित किया था, जिसे इस बार कम करके सरकार ने सिर्फ़ 300 लाख टन कर दिया है. मतलब सीधा 150 लाख तक की वितरण में कटौती की गई है. सरकार ने कहा है कि गेहूं की कटौती की पूर्ति चावल से की जाएगी. यानी, सरकार 150 लाख टन गेहूं की जगह 55 लाख टन चावल देगी !
गेहूं की इस कमी को पूरा करने के लिए सरकार द्वारा निजी व्यापारियों या अंतरराष्ट्रीय बाज़ार से गेहूं ख़रीदने की अभी तक कोई योजना नहीं है. देश की 70 करोड़ आबादी पूरी तरह से अपनी रोटी के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर निर्भर है. पहले से चली आ रही सार्वजनिक वितरण प्रणाली भी काफ़ी कमज़ोर है और इसका घेरा व्यापक करने, इसे मज़बूत करने की आवश्यकता है.
पिछले समय के दौरान जिस ढंग से रोज़गार का हाल बुरा हुआ है और महंगाई बढ़ी है, उसमें सार्वजनिक वितरण प्रणाली के सहारे की आवश्यकता और भी बढ़ गई है. पर इसे मज़बूत करने की जगह मोदी सरकार इसे ख़त्म करने के रास्ते पर चली हुई है. केंद्र सरकार द्वारा लाए गए तीन कृषि क़ानून जोकि जनसंघर्ष की बदौलत वापस लिए गए हैं, उनके तहत सरकारी ख़रीद ख़त्म करने की योजना थी, जिससे सार्वजनिक वितरण प्रणाली ख़त्म हो जानी थी. अब सरकार ख़रीद घटाकर अप्रत्यक्ष ढंग से उन क़ानूनों को ही लागू कर रही है.
दूसरा, भारतीय खाद्य निगम की वेबसाइट के अनुसार इस वर्ष के वित्तीय वर्ष की शुरुआत (अप्रैल 2022) में उसके पास 190 लाख टन गेहूं का भंडार था, जो कि नई ख़रीद (195 लाख टन) के साथ 385 लाख टन हो जाएगा. सार्वजनिक वितरण प्रणाली और प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण योजना के तहत वर्ष 2022-23 के दौरान 300 लाख टन गेहूं की खपत हो जाएगी यानी भारत के पास वर्ष के आख़िर में सिर्फ़ 85 लाख टन का ही अतिरिक्त भंडारण होगा. नियमों के अनुसार भारत सरकार के पास हमेशा 75 लाख टन गेहूं का भंडारण होना चाहिए.
वास्तव में केंद्र सरकार जो भंडारण करके रखती है, वह सिर्फ़ सार्वजनिक वितरण प्रणाली के ज़रिए खाद्य सुरक्षा के लिए ही नहीं बल्कि दामों को स्थिर रखने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. अब जब सरकार के पास कोई अतिरिक्त भंडारण होगा ही नहीं तो सरकार दामों को स्थिर रखने के अपने कार्यभार से सीधा-सीधा मुकर जाएगी और ना ही उसके हाथ में होगा. होना यह चाहिए था कि वह दामों को नियंत्रित कर सके लेकिन अब आने वाले समय के लिए हमें गेहूं के बढ़े हुए दामों के लिए तैयार रहना चाहिए.
जनवरी 2022 से अब तक आटे के दाम 6% बढ़ चुके हैं. खाद्य और पूर्ति विभाग ने उपभोक्ता मंत्रालय को गेहूं के आटे के दाम से संबंधित एक रिपोर्ट सौंपी है. इस रिपोर्ट के अनुसार गेहूं के आटे के दाम अब तक के सबसे उंचे स्तर पर पहुंच गए हैं. रिपोर्ट के अनुसार पूरे भारत के औसत को अगर देखा जाए तो आटा प्रति किलो 32.78 रुपए बिक रहा है. पोर्ट ब्लेयर में आटे का प्रति किलो दाम 59 रुपए है. चार बड़े मेट्रो शहरों – मुंबई में 49 रुपए प्रति किलो, चेन्नई में 34 रुपए प्रति किलो, कोलकाता में 29 रुपए प्रति किलो है, दिल्ली में दाम 27 रुपए प्रति किलो हो गया है. गेहूं के आटे के दाम बढ़ने के साथ-साथ बेकरी ब्रेड के दाम में भी 8% की बढ़ोतरी हुई है.
इस सारे घटनाक्रम को एक अन्य दृष्टिकोण से भी देखना चाहिए कि आने वाले समय में अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में गेहूं की कमी रह सकती है और भारत में भी जो उत्पादन हुआ है, उसके अभी तीसरे अनुमान आने बाक़ी हैं, जिससे लगता है कि भारत में उत्पादन और कम होने के आसार हैं. भारत में एक वर्ष के दौरान 9.7 करोड टन गेहूं की खपत होती है. यानी भारत के पास अपनी ज़रूरत के आसपास ही गेहूं है. ज़्यादातर आर्थिक विशेषज्ञ भी यह अंदेशा प्रकट कर रहे हैं कि आने वाले समय में भारत को उसकी ज़रूरतों के लिए भी अनाज ख़रीदना पड़ सकता है.
इस तरह देखा जा सकता है कि मोदी सरकार को लोगों की कोई चिंता नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय हालातों का फ़ायदा उठाकर गेहूं बेचकर डॉलर कमाने की चिंता है. और यह किसी-न-किसी बहाने सार्वजनिक वितरण प्रणाली को ख़त्म करके सरकारी योजनाओं के तहत मुफ़्त और सस्ते अनाज को बंद करने के रास्ते पर चली हुई है.
पूंजीवादी व्यवस्था की चाकर सरकारों से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है. इस लुटेरी पूंजीवादी व्यवस्था को बदलकर जनकल्याणकारी समाजवादी व्यवस्था का निर्माण किए बग़ैर ऐसे मुद्दों का पूर्ण हल नहीं किया जा सकता. पर फ़ौरी तौर पर भी मेहनतकश लोगों के लिए ज़रूरी है कि मोदी सरकार के इन मंसूबों को समझे और सार्वजनिक वितरण प्रणाली की मज़बूती, व्यापक करने और महंगाई को काबू करने की मांग पर संघर्ष करके इसका जवाब दें.
- रतन (मुक्ति संग्राम)
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