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नारेबाज भाजपा के नारे, केवल समस्याओं से लोगों का ध्यान बंटाने के लिए है !

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शकील अख्तर

भाजपा के 2 सबसे बड़े नारे हैं – एक, बटेंगे तो कटेंगे. दूसरा, खुद प्रधानमंत्री का दिया हुआ ‘एक है तो सेफ हैं.’ लेकिन मणिपुर की बेकाबू हिंसा, झांसी मेडिकल कॉलेज में नवजात शिशु के जलकर मरने और दिल्ली में सांस तक न ले पाने के खतरनाक वायु प्रदूषण में इनके नारों वाला बटंना और एक नहीं रहना तो कहीं नहीं हुआ ?फिर कैसे हिंसा हो रही है, लोग मर रहे हैं, अनसेफ हैं ?

यह दोनों नारे केवल और केवल लोगों का ध्यान बटाने के लिए हैं. वास्तविक समस्याएं जैसे अभी तीन तो हाल की लिखीं वैसी कई हैं, जिनका बटंने और एक नहीं रहने से कोई ताल्लुक नहीं है. बेरोजगारी, महंगाई, सरकारी चिकित्सा व्यवस्था खत्म करना, सरकारी शिक्षा खत्म करना यह सब तो जनता की वजह से नहीं हैं. सरकार है इनकी वजह. और सरकार उस पर ध्यान नहीं जाए इसलिए ऐसे नारे दे रही है जिससे जनता खुद ही अपने आप को दोषी समझती रहे और विभाजित हो.

वैसे तो बहुत सारी समस्याएं हैं. मगर दो तत्काल खत्म होना चाहिए उन पर पूरा ध्यान देना चाहिए. मगर क्या प्रधानमंत्री मोदी ने कोई पहल की ? चिंता का भी कोई संदेश ट्वीट दिखा ? मणिपुर और वायु प्रदूषण भी जो अब सिर्फ दिल्ली और एनसीआर में नहीं रहा है, आज भोपाल में भी 400 के पास AQI पहुंच गया है. मगर प्रधानमंत्री और केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री तक का कोई कन्सर्न कहीं नहीं दिख रहा है. सुप्रीम कोर्ट भी बोला मगर हमें कहीं दिखा नहीं कि उसने केंद्र सरकार से कुछ बोला हो.

और मणिपुर, वहां की हालत कितनी खराब है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह पर इतना दबाव था कि उन्हें चुनाव प्रचार छोड़कर दिल्ली आना पड़ा. राजनीति चाहे जितनी अनदेखी करें मगर अफसर तो अपना फीडबैक देते हैं. और मणिपुर की स्थिति सेना, पैरामिलिट्री फोर्सेस के जरिए केंद्र सरकार को मालूम पड़ रही है.

अब जरा देश को यह भी देखना चाहिए कि इसमें जो एक हैं, प्रधानमंत्री ने कहा वह कौन एक हैं के लिए कहा ? जिनके लिए कहा क्या वह वायु प्रदूषण से मुक्त हैं ? उन पर इन जहरीली हवाओं का असर नहीं हो रहा ?

बटेंगे ? कौन बटेंगे ? किसके लिए कहा ? क्या जिनके लिए कहा उनकी सांसों को कोई और घोंट रहा है ? कौन है जो कार्रवाई नहीं कर रहा है ? किसने जिद में इतने पटाखे चलवाकर देशभर में वायु प्रदूषण को बढ़ाया है ? सुप्रीम कोर्ट के मना करने के बाद अगर प्रधानमंत्री एक बार कह देते तो पटाखे 10 परसेंट भी नहीं चलते. मगर उल्टे भाजपा के नेताओं, मीडिया ने इसे हवा दी.

एक हैं ! वे एक हैं, जिन्हें आप चाह रहे हो. मगर वायु प्रदूषण से नहीं लड़ सकते. बटेंगे जिनके लिए कहा वह नहीं बंट रहे, मगर मणिपुर जाकर कटना और कटाना नहीं रोक सकते. सरकार का काम सरकार करे और जनता को सेफ रखने की जिम्मेदारी खुद ले. बंटने के बदले मणिपुर में जुड़ने की बात करे. मणिपुर में डेढ़ साल से बांट रहे हैं तो हालत यह हो गई कि नदियों में लाशें तैर रही हैं.

बहुत गंभीर स्थिति है। नफरत और विभाजन की राजनीति कहां तक ले आती है यह देश और जनता को समझना होगा. उसमें बेरोजगारी पर ध्यान नहीं दिया जाता, महंगाई पर नहीं दिया जाता, सरकारी शिक्षा, सरकारी चिकित्सा पर नहीं दिया जाता और अब मणिपुर जहां पर बाकायदा गृह युद्ध हो रहा है, वहां भी नहीं दिया जाता और वायु प्रदूषण जो दिल्ली एनसीआर से बढ़कर पूरे देश में फैल गया है, उस पर भी नहीं दिया जाता.

मणिपुर की कहानी क्या है ?

खूब संक्षेप में यह है कि मणिपुर में स्थिति सुधारने की कोई कोशिश ही नहीं हुई. इससे पहले पंजाब, जम्मू कश्मीर, तमिलनाडु, असम और दूसरे कई पूर्वोत्तर राज्यों में अशांति हुई. और सभी जगह सीमा पार से. मगर किसी एक जगह को भी अपने हाल पर तो छोड़ने का सवाल ही नहीं. वहां शांति के लिए देश के दो-दो प्रधानमंत्रियों ने अपनी जान गवां दी. और मणिपुर में हाल यह है कि सारा तनाव, अशांति घरेलू है. बाहरी हस्तक्षेप का कोई सबूत नहीं लेकिन प्रधानमंत्री मोदी वहां एक बार भी नहीं गए. नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी दो-दो बार हो आए हैं.

मणिपुर को मोदी सरकार ने अपने हाल पर छोड़ रखा है. वहां भाजपा सहित सभी दलों के विधायकों ने मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह का साथ छोड़ दिया है. राज्यपाल मणिपुर छोड़कर चली गईं. अनुसुईया उइके बीजेपी की नेता थी, मगर उन्होंने कहा कि लोग प्रधानमंत्री मोदी के मणिपुर नहीं आने से निराश और दुःखी थे. इससे ज्यादा क्या होगा कि खुद मोदी द्वारा नियुक्त राज्यपाल, भाजपा की नेता रहीं सीधे सीधे प्रधानमंत्री के न जाने पर सवाल उठा रही हैं. मगर प्रधानमंत्री मोदी किसी की सुनने को तैयार नहीं. मनमोहन सिंह को मौन कहते थे, मगर खुद चुप्पी के सारे रिकार्ड तोड़ रहे हैं.

डेढ़ साल हो गए. स्थिति इतनी खराब हो गई कि नदियों में लाशें तैर रही हैं. बीरेन सिंह सरकार अल्पमत में आ गई. मुख्यमंत्री द्वारा अभी 18 नवंबर को बुलाई गई बैठक में भाजपा के 37 में से 19 विधायक नहीं आए. मणिपुर में 60 सदस्यीय विधानसभा है. इसमें एनडीए बड़े बहुमत (53 विधायकों) के साथ सत्ता में थी. इनमें से एनपीए ने 17 नवंबर को ही बीरेन सिंह सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया था. उसके 7 विधायक हैं. अब मुख्यमंत्री के साथ कितने विधायक हैं, किसी को नहीं पता.

लास्ट मीटिंग में केवल 26 विधायक शामिल हुए थे, जो बहुमत से कम हैं. भाजपा सहित हर पार्टी के नेता वहां मुख्यमंत्री पर अक्षमता के साथ विभाजन को बढ़ाने का आरोप लगा रहे हैं. मगर भाजपा न तो उन्हें हटा रही है और न मोदी सरकार वहां राष्ट्रपति सरकार लगा रही है. और एक बात जो कम लोगों को पता है कि वहां राज्यपाल उइके को हटाने के बाद कोई पूर्णकालिक राज्यपाल ही नहीं है. इतनी खराब स्थिति वाले राज्य में असम के राज्यपाल लक्ष्मण प्रसाद आचार्य को अतिरिक्त जिम्मेदारी दे रखी है.

प्रधानमंत्री कश्मीर फाइल्स, केरल स्टोरी, द साबरमती रिपोर्ट फिल्मों की तारीफ करते हैं मगर सामने वास्तविक रूप से घट रहे मणिपुर पर आंखे मूंदे हैं. मोदी जी कहते हैं फिल्म देखो मगर असली मणिपुर नहीं.

समझना तो जनता को चाहिए. मगर यह सच है कि जनता अपने आप कम ही समझ पाती है. उसे समझाना पड़ता है. बताना. मगर मीडिया ने तो यह काम बंद कर दिया है. वह तो ‘महजनों येन गत: स पन्था’ के रास्ते पर चल रहे हैं. मगर उस मार्ग या अर्थ पर नहीं जो युधिष्ठिर ने यक्ष के प्रश्न के उत्तर में बताया था. धर्म का रास्ता, पूर्वजों के तप बलिदान का रास्ता. बल्कि वह जो पंचतंत्र की कहानी में आता है चार युवकों का जिन्होंने पोथी खोलकर देखा और पीछे पीछे चल पड़े और श्मशान पहुंच गए !

तो मीडिया मोदी जी के पीछे पीछे चलता है और फिल्मों की तारीफ करता है मगर मणिपुर जाकर कोई रिपोर्ट नहीं बनाता है. टीवी स्टूडियो में फिल्मों पर डिबेट होती है, मगर असली जल रहे मणिपुर पर नहीं. लोग भूल गए कि कैसे जलते हुए पंजाब को इन्दिरा गांधी ने बचाया था. अपनी जान कुर्बान कर दी, मगर पंजाब में वापस अमन चैन भाईचारा ला दिया. वह पत्रकार अभी हैं, अफसर हैं, नेता हैं जिन्होंने चार दशक पहले का पंजाब देखा है. क्या लगता था ? कैसे बचाएंगे ? मगर नेता ऐसे ही होते हैं. इन्दिरा गांधी ने बड़े निर्णय लिए. आलोचनाओं में घिरीं. आज तक कांग्रेस पर सवाल होते हैं, मगर पंजाब बच गया.

कश्मीर, 24 घंटे का कर्फ्यू होता था. 1990 में जब हम वहां गए. हम जैसे एक सामान्य पत्रकार को राज्यपाल चेतावनी देते थे कि या तो हम आपको सुरक्षा देंगे या आपका घूमना प्रतिबंधित कर देंगे. हम कहते थे हमारे पास आपके प्रशासन का दिया कर्फ्यू पास है. गवर्नर गैरी सक्सेना और गुस्सा होकर कहते थे इसे देखकर आतंकवादी छोडेंगे नहीं. क्रास फायरिंग में यह कवच का काम नहीं करेगा. ऐसे कठिन हालात थे. लेकिन 1991 में केन्द्र में कांग्रेस सरकार आने के बाद वहां स्थिति सामान्य बनाने की प्रक्रिया तेज हुई.

वहां तो पाकिस्तान का सीधा हस्तक्षेप था और पाकिस्तान के कंधे पर चीन, अमेरिका, दूसरे पश्चिमी देशों का हाथ था. यह अपने आप में एक ही उदाहरण है जब चीन और अमेरिका दोनों साथ हों. मगर केन्द्र सरकार की मजबूती से हालातों में सुधार आना शुरू हुआ था. लोकतांत्रिक प्रक्रिया वापस शुरू होना बहुत मुश्किल काम था, मगर की गई और 1996 में विधानसभा के चुनाव हुए. और पाकिस्तान को करारा जवाब मिला.

उसके बाद तो अब इतिहास है कि कैसे लगातार समय पर चुनाव होते रहे. 1996 के बाद 2002 फिर 2008 और फिर 2014. और फिर सबको मालूम है कि 2014 में मोदीजी आ गए और चुनाव फिर सीधे 10 साल बाद करवाए. अभी 2024 में. खैर वह कहानी अभी नहीं लिख रहे. बता यह रहे हैं कि कैसे मणिपुर से पहले अशांत राज्यों में केन्द्र सरकारों ने काम किया और वापस नार्मलसी स्थापित की. सब सीमावर्ती राज्य थे. हर केन्द्र सरकार जानती थी कि छोड़ देने से काम नहीं चलेगा, वहां शांति स्थापित करना पड़ेगी.

असम, राजीव गांधी ने शांति समझौता किया. अभी सुप्रीम कोर्ट ने उस पर मोहर लगाई. असम में राजीव गांधी ने अपनी सरकार बनाने के लिए काम नहीं किया. आज असम भी अपेक्षाकृत शांत है.
और तमिलनाडु ! लिट्टे की गंभीर समस्या श्रीलंका से तमिलनाडु तक आ गई थी. यहां भी राजीव गांधी को उसी तरह एक बड़ा फैसला लेना पड़ा जैसा इन्दिरा गांधी को पंजाब में.

राजीव गांधी को मालूम था कि पंजाब में शांति स्थापित करने की कीमत उनकी मां भारत की प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी को अपनी जान देकर चुकाना पड़ी थी. मगर जैसा की हमने उपर पहले ही लिखा कि नेता तो ऐसे ही होते हैं. राजीव गांधी ने लिट्टे से लड़ने के लिए श्रीलंका की सहायता की. और जैसे इन्दिरा गांधी के साथ हुआ, यहां भी लिट्टे के लोगों ने राजीव गांधी की जान ले ली.

बहुत बड़ी कीमत चुकाना पड़ी देश को, कांग्रेस को और परिवार को. 6 साल में परिवार के दो लोगों ने शहादत दी. है कहीं और ऐसा इतिहास में ? राहुल प्रियंका का बचपन जैसा बीता है अकेलेपन में. दादी, पिता दोनों की हत्या. अकेली मां सोनिया गांधी ने पाला और खतरा चारों तरफ से. आतंकवाद को था ही, राजनीतिक विरोधियों का अलग. वह कांग्रेस में भी थे और भाजपा के तो थे ही. मगर ऐसी परिस्थितियों में भी राहुल-प्रियंका किसी के मन में विद्वेष की भावना नहीं आई. खैर वह सब लिखना भी अभी उद्देश्य नहीं है.

बताना केवल इतना था कि मणिपुर जैसी समस्याएं पहले भी आईं, मगर प्रधानमंत्रियों ने काम किया, उनसे निपटा. देश को सबसे उपर रखा. राजनीति को एकदम हटा दिया तो समस्याएं खत्म हुईं.
मणिपुर भी हो सकता है. मगर करना तो जैसा कहते हैं शहंशाहे वक्त को है ! मतलब आज के शासक ! प्रधानमंत्री को ही है.
अब वे क्या करते हैं ! कैसे करते हैं ! यह तो खुद उनकी पार्टी में कोई नहीं बता सकता तो हम पत्रकार क्या कहेंगे ! बस इतना कर सकते हैं कि लिख दें. ताकि सनद रहे. वक्त जरूरत काम आए !

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ROHIT SHARMA

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