तुषार कान्ति, भूतपूर्व माओवादी नेता
स्कूल के दिनों में अन्य स्कूल की एक लड़की के प्रति आकर्षण को अस्सी प्रेम कविताओं के माध्यम से मुखर किया था. पर जब मेरी मां और भाई की एक दिन उस फाइल पर नज़र पड़ी और मेरे भाई ने कहा कि ‘एक लड़की के लिए जो इतना प्रयास व्यर्थ गंवाया है, यदि उस का छोटा सा हिस्सा भी मैंने समाज के बारे में लिख कर संजोया होता तो वह प्रयास बेशक सार्थक होता’, तो इस एक टिप्पणी ने मेरे लेखन के प्रति नज़रिये को ही हमेशा हमेशा के लिए बदल दिया.
स्कूल के दिनों की बातें छोड़ दें, तो मैंने 16 वर्ष की उम्र में पहला लेख लिखा. यह आलेख पाठकों की प्रतिक्रियाओं वाले हिस्से में पटना से प्रकाशित पत्रिका ‘फिलहाल’ में प्रकाशित हुआ. इस आलेख में मैंने अपने जिले की समस्याओं का उल्लेख किया था. इस लेख के छपने की खबर भी मेरे जीवन में एक जबर्दस्त बदलाव लाने वाला वाकया सिद्ध होगी, कौन जानता था ?
हुआ यों कि पाक्षिक ‘फिलहाल’ ने कन्ट्रिब्यूटर्स कॉपी डाक से उस पते पर भेज दी जहां मैं और मेरे बड़े भाई साहब हैदराबाद में उन दिनों रहते थे. एक शाम जब मैं कॉलेज से घर लौटा तो देखा कि पत्रिका बीच से फाड़ कर रद्दी में डाल दी गई है. हुआ यह था कि पत्रिका भाई साहब के रहते पोस्टमैन दे गया था. उनकी नज़र जब मेरे लेख पर पड़ी तो उन्हें मेरे पढ़ाई से भटकने कि फिक्र हुई. मुझे हतोत्साहित करने के लिए उन्होंने पत्रिका के दो टुकड़े कर डाले और उसे रद्दी की टोकरी में फेंक दिया.
मेरे राजनीतिक विचारों के चलते मैं कक्षा दसवीं में बोर्ड की परीक्षा से एक माह पहले मेरे हिन्दी के शिक्षक प्रख्यात वामपंथी हिन्दी कवि वेणु गोपाल और अन्य पांच-छह छात्रों के साथ जेल जा चुका था. मुक़द्दमा 1972 तक एक साल चला और मैं निर्दोष छूटकर आगे की पढ़ाई के लिए अपने छोटे से औद्योगिक कस्बे ‘कागजनगर’ से हैदराबाद चला गया.
रहने को भाई साहब तब अपने कारखाने के पास ही तारनाका में किराये के एक कमरे के मकान में रहते थे, पर मेरे इंस्टीट्यूट का इलाका चूंकि विद्यानगर था इसलिए हम जल्द ही विद्यानगर में एक किराए के कमरे में रहने आ गए. यहीं पर यह वाकया हुआ और मेरे निजी मामलों में इसे एक गैरज़रूरी हस्तक्षेप मान कर मैंने उसी समय घर से वॉकआउट कर दिया. तब नहीं जनता था कि यह ‘वॉकआउट’ जीवन भर का हो गया. मैंने तत्काल इंस्टीट्यूट के हॉस्टल में एक मित्र के पास पनाह ली और अगले ही दिन से कागजी कार्रवाइयों के बाद मैं बाकायदा हॉस्टल में रहने का हकदार भी हो गया.
इस बीच तेलुगु पत्रिका ‘पिलुपु’ (पुकार) में छप रही लेखमाला से मैं काफी प्रभावित हुआ और पांच लेखों का अनुवाद मैंने कर डाला. इस अनुवाद के बाद ही मुझे इस बात का इल्म हुआ कि ‘आखिर मैं लिखता क्यों हूं ?’ इससे पहले स्कूल में कविताएं लिखी थी. कवि वेणु गोपाल का छात्र होने के कारण कविता करना सहज सम्भव भी था. पर तब एक आवेग से ज़्यादा कुछ नहीं होता. पर अब चूंकि एक उद्देश्य के चलते सोच समझ कर लिखने की बारी आयी थी, इसलिए लिखने का कारण, उसका सबब एक जरूरी आयाम बनकर मेरे ज़ेहन में दस्तक देने लगा. मैं ज़रा गहराई में जा कर सोचने लगा.
वामपंथी कवि वेणुगोपाल, पिताजी का मास्टर सूर्यसेन की अनुशीलनी दल से छात्र जीवन में रहा संबंध, मंझले मामा की कम्यूनिस्ट आंदोलन में सक्रिय हिस्सेदारी और हाई-स्कूल के प्रिंसिपल तक का छात्र जीवन में वामपंथ से प्रभावित होकर स्वतन्त्रता आंदोलन में हिस्सा लेना, इन सब का कुल मिलकर मेरे किशोर मन पर जो प्रभाव पड़ता रहा, उससे अनायास ही मुझमें वामपंथी क्रांतिकारी रुझान पैदा हो गई थी. उसी समय पहले नक्सलबारी और फिर श्रीकाकुलम के संघर्षों ने रही सही कसर पूरी कर दी. मैं 16वें बरस की उम्र में कदम रखने से पहले ही व्यवस्था विरोधी होने का तमगा पा कर जेल भी जा चुका था. एक तरह से मेरे जीवन की दिशा तभी तय हो चुकी थी.
खैर, संगठन के काम में व्यस्तताओं के भार तले जो क्षीण सी साहित्यिक धारा मेरे भीतर सोयी पड़ी थी, दोबारा 1977 में गिरफ्तार होते ही वह प्रवाहमान हो गई. 77 से 80 के बीच दो बरस फिर जेल में रहना पड़ा. इसी दौरान क्रांतिकारी राजनीति के प्रभाव से बस्तर की सीमा से लगे तेलंगाना के आदिवासियों में आ रहे परिवर्तन को दर्ज करने वाले एक प्लॉट पर काम शुरू किया, जो 80 के अंत में एक कहानी के शक्ल में सामने आई.
कहानी, जाहिर है, तेलुगु भाषा में लिखी थी. यह मेरी पहली कहानी थी. क्रांतिकारी कवि वरवर राव उन दिनों वरंगल से ‘सृजना’ नामक साहित्यिक मासिक पत्रिका निकाला करते थे. मेरी कहानी को उन्होंने हाथों-हाथ लिया और जनवरी 1981 के अंक में ‘गंगाजिम्मा’ शीर्षक से प्रकाशित किया. कहानी कुछ लंबी थी. करीब दस पृष्ठों की. कहानी प्रकाशित होने के बाद उसके शिल्प और कथ्य की वजह से काफी चर्चित हुई.
1980-90 के दौरान पत्रकारिता के पहले प्रयास के अंतर्गत नागपुर से छपने वाले एक हिन्दी अखबार में मजदूर वर्ग की समस्याओं पर कुछ समय तक एक साप्ताहिक कॉलम लिखता रहा. किसान नेता शरद जोशी द्वारा भूमंडलीकरण का समर्थन किए जाने के बाद शेतकरी संगठना और शरद जोशी की राजनीति पर एक विश्लेषणात्मक आलेख लिखा. कैसे जोशी का आंदोलन शुरू से ही धनी, सम्पन्न और पूंजीवादी फार्मरों के वर्ग-हितों की ही पैरोकारी करता रहा है और कैसे भूमंडलीकरण समर्थन से किसानों की बरबादी अवश्यंभावी हो रही है, उस लेख में इन्हीं बातों की चर्चा थी.
इतिहास गवाह है कि भूमंडलीकारण ने मध्य भारत के किसानों की ही नहीं, समूचे भारत के किसानों की कमर तोड़ दी. पिछले तीन दशकों में करीब चार लाख किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ा. विदर्भ के किसानों को शरदजोशी की घातक राजनीति के बारे में आगाह करनेवाला यह लेख शायद अपनी तरह का पहला ही लेख था, जिसने एक हद तक विदर्भ के किसानों के पक्ष में एक मैदान बनाने का काम किया.
हिन्दी में मेरा लिखना पहले बनारस और फिर दिल्ली से प्रकाशित होती रही अनियतकालीन साहित्यिक पत्रिका ‘आमुख’ के लिए लिखने के साथ शुरू हुआ और जारी रहा. आमुख के लिए पहले अनुवाद, और फिर तेलुगु के क्रांतिकारी कवि चेरबंडाराजू की कविताओं के अनुवाद और उनकी याद में लिखे गए एक रेखाचित्र के तौर पर शुरू हुआ. छापामारों के जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं को कथाओं के रूप में पिरो कर 90 के दशक में मैंने कुछ और कहानियों की रचना की. विदर्भ से सटे ‘दंडकारण्य’ के आदिवासी किसान संघर्ष ही इन कहानियों की प्रेरणा भी थी और विषयवस्तु भी.
2007 से 13 तक एक और बार करीब साढ़े-पांच साल जेल में बिता कर फरवरी 2013 में मैं सभी आरोपों से मुक्त हो कर बाहरी दुनिया में लौटा. उस दौरान घटी एक घटना को एक व्यक्तिगत अनुभव के तौर पर दर्ज करते हुए अंग्रेजी पत्रिका ‘तहलका’ के एक कॉलम ‘पर्सनल हिस्टोरीज़’ के लिए एक कहानी लिखी. मूल हिन्दी से मैंने ही इसका अनुवाद किया था. यह कहानी इतनी पसंद की गई की एक महीने के अंदर-अंदर तेलुगु, मराठी और बांगला भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हुआ.
सामाजिक विद्रूपताओं को महज़ दिखाने भर के लिए कहानी लिखने का विचार मेरे लिए अधूरा और अर्थहीन प्रयास प्रतीत होता है. मैं कहानी को सामाजिक परिवर्तन का औज़ार के रूप में देखता हूं. इसी नज़रिये से मेरा लेखन जारी रहा है. मैं मानता आया हूं कि साहित्य समाज का महज़ आईना ही नहीं, समाज-परिवर्तन का झंडाबरदार भी होता है. राजनीति अगर तत्कालीन समाज और अर्थनीतिक दिशा की अभिव्यक्ति है तो साहित्य आगामी समाज के बीज का काम करती है, गर्भस्थ समाज के लिए दाई का काम करती है. इस दृष्टि के अभाव में जो कुछ भी लिखा जाए, उसे वर्तमान संकटग्रस्त, विषमतामूलक समाज की विष्टा भर कहा जा सकता है. जूठन साहित्य.
मेरे लिए लेखन जीवन का ही विस्तार है. लेखन कर्म क्रांतिकर्म का जरूरी हिस्सा है. जब राजधानी दिल्ली में मासूम बच्चियां भूख से तड़प कर मर रही हैं, तब आप ही दिल पर हाथ रख कर कहिए, चांद-सितारों की काल्पनिक और रूमानी दुनिया की रचना क्या आत्म-वंचना या इस से भी भारी अपराध, जन-वंचना नहीं कहलाएगी ! इस तरह का लेखन विदूषक-भांड की तरह अपनी ज़मीर को गिरवी रख कर शासक (वर्ग) के चारण गायन के समान है. हाल के दिनों में दो प्रसून नज़र आए. एक यदि चारण गायक की भूमिका में नज़र आया तो दूसरे ने अपनी पत्रकारिता से शासकों का कोप-भाजन होने का खतरा मोल लिया. इन दोनों में कौन जनमानस में चिरस्थायी बन जाएगा, आप सहज ही अंदाज़ा लगा सकते हैं.
मानव जीवन अपनी देश-काल की स्थिति से निर्देशित और निर्धारित होता है. तत्कालीन समाज और देश-काल से निर्लिप्त या निरपेक्ष वह कभी नहीं होता है. उनसे प्रभावित होता और साथ ही उन्हें प्रभावित करता चलता है. साहित्य के लिए भी यही बात लागू होती है. लेखन निर्लिप्त या निरपेक्ष नहीं हो सकता, उसे उसके अस्तित्व की वजह चाहिए होती है. अपने वजूद का सबब चाहिए होता है.
लेखन कर्म और साहित्य रचना की मार्क्सवादी भौतिकवादी मीमांसा मैं इसी को मानता हूं. इसी वजह मेरी लेखनी रोहित वेमुला के पक्ष में मुखर होती है, तंजानियाई युवती का सामूहिक शीलहरण करनेवालों के खिलाफ उठती है; सुभाष को भुनाने की सत्ताधारी-वर्ग के विभिन्न धड़ों की नीचताभरी हरकत को बेनकाब करने के लिए चलती है; और महिषासुर के बहाने मिथकों की राजनीति को उजागर करने के लिए प्रवाहित होती है. दलितों और आदिवासियों के हाशिये से निकल कर मुख्यभूमि पर आने के संघर्ष को दर्ज करती है. मेरे लेखन के यही कारण हैं, यही मेरे लिखने का सबब है.
लेखन को एक पेशे के तौर पर अपनाने के बाद भी इन दिक-सूचियों के दायरे मे ही बने रहने की पुरजोर कोशिश करता हूं. आप जानते ही हैं कि हिन्दी के लेखक का पेट लेखन से नहीं भरता, इसलिए अनुवाद से आजीविका चलाने की कोशिश करता आया हूं. उदास शाम को सुनहरे भोर की ओर ले चलने का प्रयास ही मुझे लिखने को मजबूर करता रहा है.
श्रम के ही एक परिमार्जित रूप के तौर पर मैं लेखन कर्म को देखता हूं. जिस तरह गीत, नृत्य, नाटक आदि कला के विभिन्न रूप श्रम से ही उपजे और श्रम की कष्टप्रद प्रक्रिया को सहन-योग्य बनाने, विराम देने के काम आते हैं, लेखन भी इन से अलग नहीं. अब वह चाहे कविता हो, कथा-उपन्यास रचना हो या तथ्यात्मक लेख, सामयिक रिपोर्टिंग और अखबारी लेखन, सभी में अदृश्य सूत्र की तरह यह सुकून देने वाली बात मौजूद रहती है. सूचना प्रौद्योगिकी के इस आभासी युग में भी यह मूल चरित्र बदलता नहीं.
सरकारी पुरस्कारों की कामना या पुरस्कार प्राप्ति के उपरांत भी जो लेखन पांच सौ या एक हज़ार प्रतियों की सीमा को लांघ नहीं पाता और जो रचना पुस्तकालयों में कैद होकर रह जाती हैं, उनसे कहीं बेहतर मैं उन रचनाओं और रचनाकारों को मानता हूं, जो हजारों श्रोताओं की तालियों की गड़गड़ाहट के बीच अपनी पंक्तियों को सान देते हैं. पर ज्यों ही लेखन फूहड़पन या अश्लीलता की सीमा लांघने को होता है, अकाल-मरण को प्राप्त होता है. हिन्दी के लेखकों से मैं इस मौके पर पूछना चाहूंगा कि किसान आत्महत्या जैसे संवेदनशील विषयवस्तु पर, डायन के नाम पर होती हत्याओं पर कितनी रचनाएं अब तक दर्ज हुई हैं ? ‘भीड़शाही’ की दरिंदगी के खिलाफ कितनी रचनाएं आई हैं ?
चूंकि प्रेम भी मानव-जीवन के एक आयाम के बतौर ही उपजता है, इसलिए प्रेम कविताओं से भी मुझे परहेज नहीं है. मुस्कान, भाषा, लिपि और प्रेम जैसी उदात्त भावना ही तो मनुष्य को अन्य पशुओं से अलग बनाती है. जैसा कि इस आलेख की शुरुआती पंक्तियों में दर्ज किया है, मैंने प्रेम कविताओं से ही मेरे रचनाकर्म की नींव रखी थी. पर ऐसा माननेवालों में मैं एक हूं कि प्रेम के बहाने जीवन की कठोर वास्तविकताओं से मुंह फेर लेना रचनाकार के लिए अवांछनीय है.
अंत में मैं संपादक सत्या के प्रति आभार व्यक्त किए बिना अपनी लेखनी को विराम देना धृष्टता मानता हूं जिन्होंने मुझे उम्र के इस पड़ाव पर इस लायक समझा कि मेरे लेखन के सबब पर दो-टूक लिखने का आग्रह किया. आभार व्यक्त करने के साथ अपनी लेखनी को यहीं विश्राम देता हूं.
- यह लेख 23 अगस्त, 2018 को प्रकाशित हुई थी.
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