सुब्रतो चटर्जी
वेंडी शेरमेन, यूएस डिप्टी सेक्रेटरी ऑफ स्टेट्स (Wendy Sherman , US Deputy Secretary of States) ने भारत को रूसी हथियारों पर निर्भरता ख़त्म करने की सलाह दी है. अब भारतीय सेना अमरीकी हथियारों पर निर्भर होगी. अमरीका के अनुसार रूस पर लगाये गये आर्थिक प्रतिबंधों के फलस्वरूप रूस का हथियार उद्योग बंद होने की कगार पर है और इसलिए भारत को अब अमरीका से हथियार ख़रीदने चाहिए.
रूस यूक्रेन युद्ध के शुरुआती दिनों में मैंने बताया था कि किस तरह से अमरीकी साम्राज्यवाद यूक्रेन में नियो नाज़ी सरकार को बैठा कर अपना साम्राज्यवादी हित साधने की कोशिश में है. उस समय बहुत सारे रूस विरोधी, जिन्हें न ही जियोपॉल्ट्क्स की कोई समझ है और न ही दुनिया के इतिहास और भूगोल की, मेरी बात को नहीं समझ पाए.
रूस पर युद्ध के बहाने आर्थिक प्रतिबंध लगा कर दरअसल अमरीका अपनी आयुध लॉबी का हित साध रहा है. भारत, जो कि हथियारों का बहुत बड़ा ख़रीदार है और संयोगवश आज़ादी के बाद भ्रष्टतम और सबसे अक्षम दलाल सरकार के हाथों फँस गया है, अमरीकी योजना के लिए सबसे मुफ़ीद देश है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के रहमोकरम पर चलती सरकार के पास अमरीका की बात मानने के सिवा और कोई चारा नहीं है.
इसलिए, अगर आने वाले दिनों में भारत के रक्षा बजट का मुख्य हिस्सा अमरीकी हथियारों की ख़रीद पर खर्च हो तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए. ये अलग बात है कि रूसी साजोसामान पर सत्तर प्रतिशत निर्भर भारतीय सेना इस कॉकटेल से और कमज़ोर ही होगी, जैसा कि मेरी समझ है. रक्षा विशेषज्ञ बेहतर बता सकेंगे इस विषय पर. मुद्दे की बात ये है कि beggars are not choosers (भिखारी चयनकर्ता नहीं होता) और आज मोदी सरकार ने भारत को इसी स्थिति में ला पटका है.
प्रतिव्यक्ति आय का मतलब देश के आख़िरी आदमी की संपन्नता नहीं होता
जैसे प्रति व्यक्ति आय का मतलब देश के आख़िरी आदमी की संपन्नता से नहीं होता, वैसे ही बढ़ती हुई जीडीपी का संबंध भी शोषण आधारित पूँजीवादी व्यवस्था में साधारण व्यक्ति की संपन्नता से नहीं होता. ये ठीक शेयर बाज़ार के सूचकांक जैसा होता है. शेयर बाज़ार अगर एक लाख अंक भी पार कर जाए तो भी किसी ग़रीब रिक्शा चालक की आमदनी में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है, उसी तरह अगर देश की जीडीपी पचास ट्रिलियन का भी हो जाए तो भी उस रिक्शा चालक की आमदनी पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है.
दरअसल, मोदी सरकार और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के मुताबिक़ कुछेक धंधेबाज़ों की आमदनी को बेतहाशा बढ़ा कर उसे देश की जीडीपी के साथ जोड़ कर पेश करना है. मतलब, जीडीपी तो बढ़ेगी, लेकिन आर्थिक असमानता की खाई भी और बढ़ेगी. दूसरी तरफ़, देश पर सरकारी और अन्य क़र्ज़ जब 613 बिलियन डॉलर हो चुका है. तब हमें रुक कर सोचना चाहिए कि बढ़ी हुई जीडीपी का कितना हिस्सा इस क़र्ज़ और उसके ब्याज की अदायगी पर खर्च होगा ? इस कैलकुलेशन के बाद हम हमेशा ऋणात्मक रहेंगे.
प्याज़ नहीं खाने वाली अनपढ़ वित्त मंत्री और दिवालिया मोदी सरकार अभी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के पैरों पर गिर कर उनकी शर्तों पर देश को गिरवी रखने की चेष्टा में है. निर्मला सीतारमण की अमरीका यात्रा का मक़सद यही है. इस क्रम में सितंबर से शुरू होने वाले बैंकों की बिक्री या निजीकरण का जो सिलसिला शुरू होगा, वह 2024 तक स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया को छोड़ कर बाक़ी सारे राष्ट्रीय कृत बैंकों की बिक्री के साथ ख़त्म होगा. इसके साथ जब क्रिप्टो करेंसी का तड़का लगेगा तब जाकर देश पूरी तरह से विदेशी पूँजी का ग़ुलाम होगा.
हम 1947 के पीछे लौट जाएँगे. नब्बे प्रतिशत जनता के हाथों भीख का कटोरा होगा और बदन पर कपड़े नहीं होंगे. भारत मुफ़्त या सबसे सस्ता लेबर का मार्केट होगा और पूरे देश में अमरीकी उद्योगों का जाल बिछा होगा. दरअसल, चीन की विशाल सामाजिक उत्पादन का सामना करने के लिए अमरीकी और पश्चिमी पूँजी के पास उत्पादन पर लागत कम करने का कोई विकल्प नहीं है और भारत की विशाल जनसंख्या ही वह ताक़त है, जिसे इस्तेमाल कर यह किया जा सकता है. इसलिए, जब मोदी जैसा क्रिमिनल आत्मनिर्भर भारत की बात करे तो समझ लीजिए कि उसका मतलब भिखारी भारतीय से है और कुछ नहीं.
स्वतंत्र व्यक्ति अपना स्किल और दिमाग़ बेचता है, मजबूर आदमी अपना श्रम और देह बेचता है. स्किल इंडिया का मतलब यहाँ अपना श्रम और देह बेचना भर रह गया है, क्योंकि वृहत पैमाने पर निपुणता और दिमाग़ ख़रीदने के लिए जिन आधारभूत संरचनाओं की ज़रूरत होती है, वे धीरे-धीरे मोदी सरकार ने ख़त्म कर दिया है. हम दास मार्केट से भरे हुए अफ़्रीका बनने की दिशा में अग्रसर हैं और यही है आज़ादी के अमृत महोत्सव का असली अर्थ. तब तक आप किसी रंडी को बुलडोज़र पर चढ़ कर नंगा नाच करते हुए देखिए.
सवाल धन का नहीं है, धन के आनुपातिक वितरण का
भारत की जीडीपी 30 ट्रिलियन हो जाए या 300 ट्रिलियन, इससे भारतीय लोगों की ग़रीबी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा. सवाल धन का नहीं है, धन के आनुपातिक वितरण का है. शोशेबाज़ी के इस युग में कोई क्रिमिनल पृष्ठभूमि का हिंदू हृदय सम्राट हो या कोई धंधेबाज़, बेईमान, घृणित व्यापारी हो, सपने दिखाने से कोई बाज नहीं आता. कोई ये नहीं पूछ रहा है कि जिस समय देश का औद्योगिक विकास नकारात्मक है, बेरोज़गारी पिछले चालीस सालों में सबसे ज़्यादा है.
2016 में हुए नोटबंदी के बाद अब तक क़रीब 30 करोड़ लोगों को ग़रीबी रेखा के नीचे धकेल दिया गया है, असंगठित क्षेत्र बर्बाद है, सरकारी कंपनियों को सरकारी खर्च चलाने के लिए औने-पौने भाव में बेचा जा रहा है. चोर उद्योगपतियों को टैक्स में छूट दे कर उसकी भरपाई जनता से पेट्रोल और डीज़ल की क़ीमतों को बढ़ा कर वसूल किया जा रहा है. बैंक डूब रहे हैं, विदेशी निवेश शून्य है और सबसे बड़ी बात, सामाजिक सौहार्द ख़त्म होने की वजह से कोई पूँजीगत निवेश नहीं कर रहा है. ऐसे दौर में किन रास्तों पर चल कर देश 2.48 ट्रिलियन की इकोनोमी से महज़ 28 सालों में ३० ट्रिलियन की इकोनोमी बन जाएगी ?
मालूम हो कि ऐसा होने पर हम चीन को पीछे छोड़ कर दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएँगे. इसके लिए वार्षिक वृद्धि दर 20% के आस पास होनी चाहिए, जबकि अगर पिछले साल के ऋणात्मक वृद्धि दर से तुलना की जाए तो रिज़र्व बैंक के 8.2% वृद्धि दर के अनुमान के मुताबिक़ हम इस साल 1.2% के आसपास हैं, क्योंकि पिछले साल यह माइनस 7.4 % था.
अब अंग्रेज़ी अख़बारों के सुर बदलने लगे हैं. पिछले कुछ दिनों से टाईम्स ऑफ़ इंडिया में कई लेख प्रकाशित हुए जिनमें मोदी सरकार के दलाल बुद्धिजीवी सरकार से मुफ़्त योजनाओं पर खर्च कम करने की सलाह दे रहे हैं. ये दलाल सरकार पर ये दवाब भी बना रहे हैं कि केंद्र सरकार राज्य सरकारों पर मुफ़्त की योजनाओं पर खर्च कम करने के लिए दवाब बनाएँ. दलालों को अब ये सुझाव देते हुए पढ़ रहा हूँ कि सरकार को मुफ़्त योजनाओं पर खर्च कम कर रोज़गार उपलब्ध कराने की दिशा में प्रयास करना चाहिए.
सारे सुझाव पढ़ने और सुनने में बहुत अच्छे हैं, लेकिन सवाल कुछ और है. सवाल ये है कि नोटबंदी जैसे क्रिमिनल फ़ैसले से बर्बाद हुए MSME और निर्माण जैसे क्षेत्रों को रातोंरात पुनर्जीवित किया जा सकता है ? विशेष कर ऐसे समय में जब सरकार की नीति कुछेक मित्रों के हाथों पूँजी के प्रवाह को देश की क़ीमत पर करना हो ? जवाब है, नहीं, ये असंभव है. Trickle down economy पचास साल पहले अमरीका जैसे सशक्त अर्थव्यवस्था में भी फेल कर चुका है, भारत तो ख़ैर भिखारी है उसकी तुलना में.
चलिए, एक मिनट के लिए मान भी लिया कि मोदी सरकार ने policy reversal के ज़रिए देश के धन को ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचने की कोशिश में लग जाती है, तो भी क्या इस सरकार के लिए पीछे लौटने का कोई रास्ता बचा है ? मूर्खों, कुपढ़ लोगों और नीति आयोग जैसे रीढ़हीन सलाहकार के भरोसे चलती दुनिया की भ्रष्टतम सरकार के बूते की बात नहीं है.
मोदी सरकार सिर्फ़ दो मुद्दों पर चुनाव जीतती है, एक सांप्रदायिक घृणा और दूसरा लाभार्थी वर्ग. पॉलिसी रिवर्सल के लिए दोनों को त्याग करना होगा. यही वह राजनीतिक क़ीमत है, जिसे चुकाने के लिए भाजपा बिल्कुल तैयार नहीं है. ऐसे में ये धुर दक्षिणपंथी सरकारी दलाल ऐसे सुझाव क्यों दे रहे हैं ? कारण स्पष्ट है. Vertical marketing की सीमाएँ. सिकुड़ते उपभोक्ता वर्ग और घटती क्रय शक्ति की भरपाई जहां तक क़ीमतों को बढ़ा कर की जा सकती हैं, वहाँ तक की जा चुकी है. महंगाई दर दोहरे अंक को पार कर गई है.अब पेट्रोल और डीज़ल की क़ीमतों को और बढ़ाने की संभावना नहीं बची है.
मंदी की आहट सुनाई दे रही है. स्पष्ट है कि पतनशील पूँजीवादी व्यवस्था अपने अंतर्विरोधों का शिकार हो रही है. श्रीलंका एक अपवाद नहीं है, नियम बनता जा रहा है.
इसलिए, आ अब लौट चलें का गाना बज रहा है. बहुत देर हो चुकी है. इस सरकार के रहते कुछ नहीं हो सकता है.
चलते चलते अदानी जी को एक सलाह. 30 ट्रिलियन तो नहीं, लेकिन अगर आपके जैसे बेईमान धंधेबाज़ों की संपत्ति और व्यापार का राष्ट्रीयकरण कर देश का धन देश को लौटा दिया जाए तो शायद हम 2024 तक 3 ट्रिलियन की इकोनोमी बन जाएँ. आप तैयार हैं झोला उठाने के लिए मोदी जी के साथ ? अगर नहीं तो अपना गंदा मुँह बंद रखिए.
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