मनीष आजाद
मेरे आवास सहित 8 जगहों पर 5 सितम्बर को NIA का जो छापा पड़ा, उसके बाद इस तरह के सवाल भी सुनाई देने लगे. पहली बात तो यह कह दूं कि हमें आज जिस मानसिक पीड़ा से गुजरना पड़ रहा है, तो हम निश्चित ही नहीं चाहते कि कोई और भी इस मानसिक पीड़ा से गुजरे हालांकि यह हमारी सदिच्छा पर निर्भर नहीं करता. लेकिन जब मुस्लिमों के बीच से किसी को गिरफ्तार किया जाता है या उसके यहां छापा पड़ता है तो आमतौर पर मुस्लिम यह सवाल नहीं करते कि आपके यहां ही छापा क्यों पड़ा ?
मुझे याद है कि एक बार सूरत से गिरफ्तार मुस्लिमों के जेल से बाइज्जत बरी होने के बाद मशहूर फिल्मकार ‘शुभ्रदीप चक्रवर्ती’ अपनी फिल्म ‘After the storm’ बना रहे थे. इसी सिलसिले में उन्होंने उस मुस्लिम का इंटरव्यू लेते हुए यही सवाल किया कि ‘आप ही को क्यों पुलिस ने उठाया ?’ उस मुस्लिम का एक छोटा-सा ‘पोल्ट्री फार्म’ था. उसने अपनी मुर्गियों की ओर दार्शनिक अंदाज में देखते हुए कहा कि ‘सरकार पोल्ट्री फार्म के मालिक की तरह है और जनता मुर्गियों की तरह है. जब भी सरकार को भूख लगती है, वह एक मुर्गी उठा लेती है. यहां यह सवाल बेमानी है कि इसी मुर्गी को क्यों उठाया.’
उस मुस्लिम के बयान में एक बात साफ है कि उसे अपने अनुभव से यह पता चल गया कि कमोबेश पूरा मुस्लिम समुदाय सरकार/राज्य के निशाने पर है.
ठीक इसी तरह अगर आप आदिवासी समुदाय के बीच जाएंगे तो आपको वहां भी यह सवाल अनुपस्थित मिलेगा. ‘सलवा जुडूम’ के दौरान जब हजारों आदिवासियों के घर जलाये गए, लाखों आदिवासियों को विस्थापित किया गया, तो आदिवासियों को यह समझ आ गया कि पूरा आदिवासी समुदाय सरकार/राज्य और बड़े पूंजीपतियों के निशाने पर है. इसलिए वहां भी यह सवाल नदारद है कि तुम्हारा ही घर क्यों जलाया या तुम्हारे साथ ही अर्द्धसैनिकों ने बलात्कार क्यों किया ?
क्या कोई ‘सुरक्षित’ कुकी आज यह सवाल कर सकता है कि सरकार समर्थित गुंडों ने उनका घर क्यों नहीं जलाया या उनकी घर की महिलाओं को नंगा क्यों नहीं घुमाया ? अगर आप कश्मीर में हों तो वहां भी ऐसे बहुत से परिवार होंगे, जिनके बेटों को सेना ने गायब नहीं किया है, लेकिन क्या वे यह सवाल करेंगे कि हमारे बेटों को क्यों सेना ने नहीं उठाया ? फलां फलां के बेटों को ही क्यों उठाया ? कश्मीरी अपने अनुभव से यह जानते हैं कि सभी कश्मीरी सरकार/राज्य के निशाने पर हैं. दलित समुदाय में भी यह सवाल नहीं है कि जाति अत्याचार फला के साथ ही क्यों हुआ, मेरे साथ क्यों नहीं ?
दरअसल यह सवाल हिन्दू ‘प्रगतिशील’ मध्य वर्ग का ही सवाल है. क्योंकि अभी उनके अनुभव संसार में ‘अर्ध रात्रि की दस्तक’ की यातना शामिल नहीं हुई है और उसकी ‘प्रगतिशीलता’ की सलवटें अभी बिगड़ी नहीं हैं. लेकिन अगर हम इतिहास से सबक नहीं लेते तो एक दिन हम जल्दी ही वहां पहुंचने वाले हैं जहां ‘अर्ध रात्रि की दस्तक’ की यातना से कोई नहीं बच पायेगा और तब हम यह भी जानने की स्थिति में नहीं होंगे कि हमारे अलावा और किसके घर पर छापा पड़ा है.
‘पास्टर निमोलर’ की कविता ‘पहले वे कम्युनिस्टों के लिए आये’ महज कविता भर नहीं है, गुज़रे वक़्त का ‘काव्यात्मक दस्तावेज’ है.
हम इससे सबक लेते हैं या नहीं, यह पूरी तरह हमारे ‘इतिहास बोध’ पर निर्भर करता है.
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आज मुझे और अमिता को NIA ने पूछताछ के लिए बुलाया है. गिरफ्तारी की भी संभावना है. लेकिन ठीक इसी वक्त एक कविता भी जाग गयी. प्रस्तुत है इसका पहला ड्राफ्ट –
पूछताछ तो हमें करनी थी…
जंगल की हरियाली आखिर कौन निगल रहा है
कौन है जो नदियों में ज़हर घोल रहा है
इस सवाल पर तो तुम्हें घेरना ही था
कि तुम्हारे झक सफेद कपड़ों पर खून के धब्बे
आखिर किस गुप्त तहखानों में धुलते हैं
इस सवाल का जवाब तो हमें जरूर चाहिए था कि
आखिर वो कौन सी कला है कि
हत्या करते हुए भी तुम्हारा ‘मेकअप’ नहीं बिगड़ता
हमें तो तुम्हारी ‘ब्रेन मैपिंग’ भी करनी थी
और यह समझना था कि ज़हर और नफ़रत की फैक्ट्री
दिमाग के किस हिस्से में है
टार्चर तो हम नहीं करते
क्योंकि यह मानवीय गरिमा के खिलाफ है,
लेकिन हम तुमसे यह जानने की पूरी कोशिश करते
कि खून पीकर भी चेहरे पर सौम्य मुस्कान
आखिर तुम कैसे लाते हो
हत्या करने के तुरंत बाद बुद्ध पर भाषण
आखिर कैसे दे लेते हो
खैर, अभी तो वक़्त तुम्हारे साथ है
इसलिए फिलहाल पूछताछ तुम्हें करनी है
लेकिन हमारे ये प्रश्न वक़्त के इंतजार में वहीं नहीं खड़े रहेंगे
वो तुमसे बचने के लिए,
तुम्हारे रौंदे जाने से बचने के लिए
जमीन में अंदर बहुत अंदर समाते जाएंगे
ठीक वहां तक,
जहां अतीत और भविष्य की प्लेट आपस में टकरा रही है
और एक शक्तिशाली भूकम्प आकार ले रहा है
जबकि बाहर अभी शांति है
और हमसे पूछताछ जारी है…!
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