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सवाल आया है- सुभाष तो चुने गए अध्यक्ष थे, तो गांधी ने काम क्यों नहीं करने दिया ?

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सवाल आया है- सुभाष तो चुने गए अध्यक्ष थे, तो गांधी ने काम क्यों नहीं करने दिया ?
सवाल आया है- सुभाष तो चुने गए अध्यक्ष थे, तो गांधी ने काम क्यों नहीं करने दिया ?

सवाल आया है- सुभाष तो चुने गए अध्यक्ष थे, तो गांधी ने काम क्यों नहीं करने दिया ? जवाब यह है- पहली बार तो सुभाष, बिना चुनाव के सर्व सहमति से चुने गए थे. इतनी सर्वसहमति कि लन्दन में बैठे थे, तब तार मिला, आ जाओ अध्यक्ष चुन लिए गए हो.

साहेब की सवारी आयी. शपथ लिए. 51 वे अध्यक्ष थे. 51 स्वागत द्वार, 51 लड़कियों का नृत्य, 51 बैलगाड़ी में रैली. भीतर भीतर अपनी टीम बनाना (जिसने अगले साल चुनाव जितवा दिया), सीनियर्स को किनारे लगा देना. मने सॉरी टू से, सस्ती भाषा में इसे थेथरोलॉजी कहते हैं.

सरदार पटेल से पुरानी अदावत थी. कोर्ट, प्रोपर्टी, फर्जी वसीयत का मसला था. पटेल साल भर काट लिए. लेकिन अगला साल, जब ये रिपीट होना चाहे, पूरे सीनियर खिलाफ खड़े हो गए. लेकिन जिद में एलेक्शन्स में खड़े हुए. जीत भी गए. उसी नेटवर्क से जो पिछले साल भर खड़ा कर रहे रहे.

जीत लिए तो थोड़ी नरमाई दिखाई, अपनी कार्यसमिति में सब सीनियरको लिया लेकिन खुद, नेहरू, और बड़े भाई शरद को छोड़ सबने रिजाइन कर दिया. इसके साथ काम हीं नहीं करना है. अड़े हुए थे.

सुभाष ने गांधी से मदद मांगी. गांधी अंदरूनी सेंटिमेंट समझ रहे थे. इस्तीफा देने की सलाह दी लेकिन इस्तीफा दिया नहीं. 5 माह खींचते रहे मगर नई कार्यसमिति न बना पाए.

नेहरू कलकत्ता गए. मीटिंग थी. ये नेहरू से सपोर्ट मांगने लगे. कुछ पार्टी स्प्लिट टाइप. नेहरू गहरे दोस्त थे, मगर गांधी के विरुद्ध जाने से मना कर दिया. ये आखरी उम्मीद थी. कांग्रेस में अलग थलग पड़ गए तो इस्तीफा दिया. ऑलमोस्ट 6 माह (आधा कार्यकाल) निकाल दिए थे.

पोलिटीशयन पोलिटीशयन होता है, सब कुछ कहलवाना नहीं चाहिए. पर अब कह देने का दौर है. दिल विल टूटा तो माफ़ करें.

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इक सवाल तुम करो, इक सवाल मैं करूं
हर सवाल का जवाब, इक सवाल हो तो कित्ता मजा आये. हिहिहि…

तो सवाल ये कि 1946 में कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव हुआ. 15 प्रदेश समितियों में से 12 ने सरदार पटेल को चुना. नेहरू को मिला अंडा- बिग जीरो. हिहिहि…! नेहरू बने अध्यक्ष, देयरफॉर पीएम. बहुते अत्याचार हुआ !

इस इलेक्शन के 7 साल पहले एक इलेक्शन हुआ. सुभाषचंद्र और पट्टाभिसीतारमैया के बीच.

सुभाष को मिले 1580 वोट
पट्टाभिसीतारमैया को मिले 1377

याने टोटल वोट पड़े कोई 2957 वोट.

इस इलेक्शन के 90 साल बाद एक और इलेक्शन हुआ.

खरगे को मिले – 7897 वोट
थरूर को मिले- 1072 वोट

कांग्रेस के संविधान में अध्यक्ष के चुनाव में वोट, डेलीगेट्स डालते हैं, जो जिला से प्रदेश, और प्रदेश से नेशनल स्तर पर चुने जाते हैं. ये चुने गए लोग, अध्यक्ष पद के लिए वोट डालते हैं.

सुभाष-पट्टाभिसीतारमैया के एलेक्शन्स के समय, 3000 डेलीगेट रहे होंगे. खरगे-थरूर चुनाव के समय लगभग 9500 डेलीगेट थे. इनके वोटो का नतीजा, रिकार्ड पर है. डॉक्यूमेंट पर है. गूगल पे दसियों जगह है.

सुसरा, 1946 के चुनाव का नतीजा हजारों में नहीं, 12-0 कैसे आता है ?? 1946 में कांग्रेस के संविधान में डेलीगेट वाली व्यवस्था लुप्त कैसे हो गयी ?? कौन सी कमेटियां चुनाव करने लगी, वोट देने लगी. ये कांग्रेस की तो व्यवस्था ही नहीं है तो संघी सहित्यकारों ने, 12-0 से कांग्रेस में यह इलेक्शन करवाया कैसे ??

असल में एक प्रोफेसर हैं मक्खनलाल. खुर्राट संघी. आधुनिक काल के पीएन ओक. इन्होंने एक आर्टिकल लिखा ‘द प्रिंट’ पर. उसमें ये गप्प लिखी और उसे कोट करके 100 लोगों ने लिखा. उसे कोट करके एक लाख लोगों ने लिखा.

यहां तक कि BBC ने लिखा. अभी कल परसों के बीबीसी के नक्काल (पूर्व)एडिटर से मेरी बकझक हुई. लन्दन में रहता है. बकवास लिखता है. उसकी वाल पर बीबीसी का वही लेख मिला, जो मक्खनलाल के टैक्स्ट की कॉपी है.

प्रिंट और बीबीसी, प्रतिष्ठित संस्थान है. इसमे बैठे चंपू एडिटर्स ऐसे लेख आमंत्रित करते हैं. छापते हैं. नीचे एक लाइन छापते है – ‘ये लेखक श्री फलना ढेकना के पर्सनल व्यूज है.’ यह लाइन आप देखते नहीं. किसी की गपोडशंखी के अधकचरे प्रोपगंडा को, बीबीसी और प्रिंट का आधिकारिक रिसर्च मान लेते हैं.

अंतिम सवाल. तो नेहरू का इलेक्शन कैसे हुआ ? अरे भाई, वैसे ही, जैसे नड्डा का हुआ. बिना एलेक्शन, आम सहमति !!!

  • मनीष सिंह

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