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राजेन्‍द्र यादव के साहि‍त्‍य में जाति‍ आधार की लीला

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राजेन्‍द्र यादव के साहि‍त्‍य में जाति‍ आधार की लीला
राजेन्‍द्र यादव के साहि‍त्‍य में जाति‍ आधार की लीला
जगदीश्वर चतुर्वेदी

वे अपने (अ)ज्ञान पर गर्वित हैं. उन्‍हें यह भी भ्रम है साहि‍त्‍य का टोकरा उनके सि‍र पर रखा है. वे अपने को साहि‍त्‍य का ठेकेदार भी समझते हैं. उनके खि‍लाफ बोलोगे तो भक्‍तों की टोली टूट पड़ेगी. वे बड़े हैं, महान हैं, आदरणीय हैं, साहि‍त्‍यकार सेनानी का पदक बांटते हैं. वे साहि‍त्‍य के सब कुछ हैं. वे चाहें तो आपको साहि‍त्‍यकार बना सकते हैं, चाहें तो साहि‍त्‍य के मैदान से खदेड़ सकते हैं. वे साहि‍त्‍य लीला करते रहते हैं, वे साहि‍त्‍य के लीला कृष्‍ण हैं. उनके पास साहि‍त्‍य गोपों की टोली है. हिंदी साहि‍त्‍य के सभी मैदान उनके स्‍वामि‍त्‍व में हैं. उनके पास साहि‍त्‍यसेनानि‍यों की लम्‍बी चौडी फौज है. वे सरस हैं, उदार हैं, लेकि‍न दुर्भाग्‍य से इति‍हास मूर्ख हैं. कल ही उन्‍होंने अपने (अ)ज्ञान का फि‍र से पि‍टारा खोला है और उसमें से जो तथ्‍य और वि‍चार व्‍यक्‍त कि‍ए हैं, वे हिंदी के लि‍ए चिंता की चीज हैं. ‘देशकाल डाट कॉम’ में उन्‍होंने जो कहा है वह हिंदी की साहि‍त्‍यि‍क पत्रकारि‍ता के संपादक की शोचनीय दशा का जीता जागता प्रमाण है.

राजेन्‍द्र यादव जाति‍ के आधार पर साहि‍त्‍य को देखने का अपना स्‍टैंड नहीं बदला है, भद्रता के नाते सि‍र्फ खेद व्‍यक्‍त कि‍या है. उनका बदला हुआ स्‍टैंड क्‍या है ? यह भी बताने की जहमत उन्‍होंने नहीं की. राजेन्‍द्र यादव इति‍हास और आलोचना की थ्‍योरी अथवा साहि‍त्‍यशास्‍त्र से अनभि‍ज्ञ हैं. वे जानते हैं कि‍ सृजन और का आधार जाति‍, नस्‍ल, रक्‍त, धर्म, जातीयता और राष्‍ट्र नहीं होता. हिंदी में जाति‍वाद सबसे प्रि‍य वि‍षय है और पापुलि‍ज्‍म बनाए रखने के लि‍ए जाति‍वाद, ब्राह्मणवाद आदि‍ का ढोल पीटने से साहि‍त्‍य की दुकानदारी वैसे ही चलती है जैसे मायावती की चलती है.

उन्‍हें मालूम ही नहीं है कि‍ साहि‍त्‍य के इति‍हास का समूचा ढांचा जाति‍ के आधार को चुनौती देता है. आज तक कभी कि‍सी ने जाति‍ को आधार बनाकर हिंदी साहि‍त्‍य का इति‍हास नहीं लि‍खा. रामचन्‍द्र शुक्‍ल के यहां लेखक के नाम के साथ जाति‍ महज गौण सूचना मात्र है. राजेन्‍द्र यादव ने लि‍खा ‘रामचंद्र शुक्ल को पढ़िए, उन्होंने तो जाति आधारित वर्णन ही किए हैं, ये कान्यकुब्ज़ हैं ये फलां हैं वगैरा वगैरा.’ इसी को कहते हैं शब्‍दों को पकड़कर झूलना.

शुक्‍लजी ने जब जाति‍ का लेखक के नाम के साथ संकेत दि‍या था तो उसका मकसद यह नहीं था कि‍ इति‍हास को जाति‍ के आधार पर देखो, इति‍हास का आधार क्‍या है, वर्गीकरण का आधार क्‍या है, कालवि‍भाजन का आधार क्‍या है, साहि‍त्‍य को कैसे देखें, इनका उन्‍होंने अपने इति‍हास में यथास्‍थान जि‍क्र कि‍या है. उसमें जाति‍ को कहीं पर भी पैमाना नहीं बनाया है. कवि‍ता कैसे बनती है, उसका सामाजि‍क स्रोत क्‍या है, इसके बारे में शुक्‍लजी ने जाति‍, नस्‍ल, धर्म आदि‍ को आधार नहीं बनाया है. मुक्‍ति‍बोध से बडा ब्राह्मणवाद का आलोचक अभी हिंदी में नहीं हुआ. उन्‍होंने भी कवि‍ता के आधार के रूप में जाति‍ को आधार नहीं बनाया है बल्‍कि‍ काव्‍य के तीन क्षणों में आचार्य शुक्‍ल की धारणाओं का ही जि‍क्र भि‍न्‍न तरीके से कि‍या है.

सवाल यह है कि‍ क्‍या हम भारत की वि‍गत दो हजार साल की संस्‍कृति‍, सभ्‍यता, साहि‍त्‍य, कवि‍ता, दर्शन आदि‍ की उपलब्‍धि‍यों को महज इसलि‍ए अस्‍वीकार कर दें क्‍योंकि‍ वे ब्राह्मणों के द्वारा रची गयी हैं ? यदि‍ जाति‍ के आधार पर अस्‍वीकार के भाव में रहेंगे तो हमारे पास देशज सभ्‍यता के नाम पर क्‍या बचेगा ?

व्‍यक्‍ति‍ का जन्‍म कि‍स जाति‍ में होगा यह उसके हाथ में नहीं होता. ब्राह्मणवाद की आलोचना, जाति‍वाद की आलोचना, इन दोनों का समाज से उच्‍छेद जरूरी है, लेकि‍न अतीत को लेकर अवैज्ञानि‍क रवैय्या नहीं अपनाया जाना चाहि‍ए. यदि‍ वेद या कोई भी रचना ब्राह्मणों की है तो वह हमारी थाती है, उसे कूडे के ढेर पर नहीं फेंक सकते. परंपरा में बहि‍ष्‍कार के साथ प्रवेश नहीं कि‍या जा सकता. परंपरा में प्रवेश करने के लि‍ए जाति‍ के तर्क से भी कहीं नहीं पहुंचेंगे.

परंपरा में जाने के लि‍ए नतमस्‍तक होकर जाने की भी जरूरत नहीं है. परंपराओं में रचि‍त रचनाओं को ओढने और कूड़े के ढेर पर भी फेंकने की जरूरत नहीं है. परंपरा को अपनी रक्षा के लि‍ए, वैधता के लि‍ए तर्क अथवा हि‍मायत की भी जरूरत नहीं है. इति‍हास में जो चीजें हैं वे हमारी हि‍मायत और तर्कशास्‍त्र के बावजूद हैं और रहेंगी, वे पढ़ने और आलोचनात्‍मक वि‍श्‍लेषण की मांग करती हैं. इसके कारण ही मूल्‍यांकन और पुनर्मल्‍यांकन की जरूरत पड़ती है. बार बार व्‍याख्‍या की नए सामयि‍क संदर्भ में जरूरत पडती है.

राजेन्‍द्र यादव नहीं जानते रचना का अर्थ रचना के अंदर नहीं उसके बाहर होता है, समाज में होता है, पाठक में होता है. वर्तमान में होता है. रचना का अर्थ यदि‍ पाठ के भीतर होता तो एक ही रचना की वि‍भि‍न्‍न कि‍स्‍म की व्‍याख्‍याएं न होतीं. व्‍याख्‍याओं में परि‍वर्तन न आया होता. राजेन्‍द्र यादव जबाव दें रचनाकार कि‍न चीजों पर लि‍खता है, क्‍या वह जि‍न चीजों पर सहमत होता है, उन पर लि‍खता है अथवा जि‍न चीजों को अस्‍वीकार करता है, असहमत होता है, उन पर लि‍खता है ? राजेन्‍द्र यादव जानते हैं कि‍ रचनाकार उन वि‍षयों और वि‍चारों पर लि‍खता है जि‍न्‍हें वह अस्‍वीकार करता है. जि‍न्‍हें वह स्‍वीकार करता है उन पर नहीं लि‍खता. राजेन्‍द्र यादव कि‍सी प्रमुख ब्राह्मण कवि‍ की रचना का उल्‍लेख करें जि‍सने ब्राह्मणवाद की हि‍मायत की हो ?

चरि‍त्र, व्‍यक्‍ति‍त्‍व, व्‍यवस्‍था अपना रूपान्‍तरण कर लेती है. अब सृजन है, सृजन में सेक्‍स, कामोत्‍तेजना, जाति‍, लिंग आदि‍ की पहचान साहि‍त्‍य या कला की पहचान में वि‍लीन हो जाती हैं. लि‍खने के पहले वि‍षय की जो भी अवस्‍था हो लि‍खने के बाद वह पूरी तरह बदल जाता है. लि‍खे हुए का अर्थ पढते समय बदल जाता है क्‍योंकि‍ अर्थ पाठ में नहीं पाठ के बाहर पाठक में होता है. सवाल पुराना है जबाव दो राजेन्‍द्र यादव अर्थ कहां होता है ?

साहि‍त्‍य का राजेन्द्र यादव ने जाति‍वादी आधार बनाया है और खासकर कवि‍ता का ! उनकी बुद्धि‍ की दाद देनी होगी क्‍योंकि‍ उनको मालूम है भक्ति आंदोलन दलि‍तों से भरा है, उत्‍तर ही नहीं दक्षि‍ण के भक्‍त कवि‍यों में दलि‍त हैं, भक्‍ति‍ आंदोलन के दलि‍त कवि‍यों का बाकायदा इति‍हास में सम्‍मानजनक स्‍थान है, साथ ही उन पर जमकर आलोचनाएं भी लि‍खी गयी हैं. कवि‍ता की आधुनि‍क सूची में आपने जि‍न बडे लोगों के नाम लि‍ए हैं वे तो हैं ही,

इसी तरह कथासाहि‍त्‍य के बारे में उनकी समझदारी गड़बड़ है. यशपाल, वृन्‍दावनलाल वर्मा, जगदीश चन्‍द्र, भीष्‍म साहनी, सुभद्रा कुमारी चौहान, होमवती देवी, कमला चौधरी, कृष्‍णा सोबती, मन्‍नूभंडारी आदि‍ अनेक बडे लेखकों के नाम उपलब्‍ध हैं, जो संयोग से ब्राह्मण नहीं हैं. असल में राजेन्‍द्र यादव की दि‍क्‍कत है पटाखा छोड़ने की, वे साहि‍त्‍य में एटमबम छोड़ ही नहीं सकते. संवाददाता की रि‍पोर्ट यदि‍ दुरूस्‍त है तो राजेन्‍द्र यादव ने औरतों के लेखन को अपनी सूची से बाहर कर दि‍या है. क्‍या वे महादेवी वर्मा के अलावा कि‍सी भी लेखि‍का को देख नहीं पा रहे हैं ? इसी को कहते हैं रचनाकार की दृष्‍टि‍ पर हि‍न्‍दी की पुंसवादी आलोचनादृष्‍टि‍ का गहरा असर. औरतों के साथ इति‍हासग्रंथों में यही हुआ है, वही अब राजेन्‍द्र यादव ने कि‍या है.

नोट : 3 सितम्बर 2009 को राजेन्‍द्र यादव ने ‘देशकाल डाट काम’ को दि‍ए साक्षात्‍कार में साहि‍त्‍य के जाति‍ आधार की पुन: वकालत की है. यह टि‍प्‍पणी उसकी प्रति‍क्रि‍या में उसी दिन लि‍खी गई और इंटरनेट पर प्रकाशित हुई थी.

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