कनक तिवारी, वरिष्ठ अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, छत्तीसगढ़
हिन्दुस्तान का आधुनिक इतिहास कुछ नायक चरित्रों के कारण बहुत स्फुरणशील है. नए कालखंड में 19वीं सदी को इस बात का श्रेय है कि उसकी कोख से कई युग निर्माता पैदा हुए. उनका असर आज तक भारत के दैनिक जीवन पर उनकी यादों की भुरभुरी के साथ स्पंदित होता रहता है. 19वीं सदी के छठे दशक में जन्मे तीन कालजयी नाम नए भारत का त्रिलोक रचते हैं. कालक्रम के अनुसार रवीन्द्रनाथ टैगोर, विवेकानन्द और महात्मा गांधी के यश-त्रिभुज के अंदर ही भारत का पूरा संसार समाहित हो जाता है.
मेरे लिए यह जानकारी छात्र जीवन से उद्वेलित करती रही कि विवेकानन्द के किशोर जीवन का दो वर्षों से अधिक समय हमारे छत्तीसगढ़ के रायपुर में बीता. यह विनम्र गर्व के साथ कहा जा सकता है कि विवेकानन्द ने राष्ट्रभाषा हिन्दी का साक्षात्कार छत्तीसगढ़ में किया, बल्कि थोड़ी बहुत छत्तीसगढ़ी भी बोली होगी. जबलपुर से जंगल के रास्ते रायपुर आते विवेकानन्द को आसमान में ईश्वरीय आभा का इलहाम भी हुआ था, जो उनके जीवन की पहली घटना हुई.
मैं विवेकानन्द की अंतर्राष्ट्रीय शोहरत, एक धार्मिक उन्नायक और युवकों के समझे जा रहे आदर्श चरित्र से भौंचक होकर प्रभावित नहीं होता. विवेकानन्द के निर्माण में उनके नरेन्द्र होने का समय सबसे ज्यादा अचंभित करता है. पिता हों या श्रीरामकृष्ण देव या धर्म और संस्कृति तथा इतिहास का कोई अन्य नामचीन स्थापित विद्वान, नरेन्द्र ने कभी भी जिरह, जिज्ञासा और जांच के बिना अपने तर्कों को भोथरा नहीं किया. मैं खुद इसलिए विवेकानन्द को बार-बार पढ़कर समीक्षित करने की कोशिश करता रहा कि कहीं महानता का कोई प्रचलित आडंबर मुझे तर्कसिद्ध विवेकानन्द से हटाकर उनके प्रति केवल श्रद्धावनत न बना दे.
भगवाधारी बताए जाते विवेकानन्द का परिचय इसलिए किताबों से हटकर उनके चारों ओर उगा दी गई कूढ़मगज भ्रांतियों के जंगल में गुम हो गया है. विवेकानन्द पारिभाषिक धार्मिक नहीं, धर्म-वैज्ञानिक थे. इतिहास की मजबूरी के कारण वे क्रांतिकारी नहीं बन सके, लेकिन जीवन भर उनमें सियासी लक्षणों का गुबार उठता रहा और उनके आह्वान में बाद की भारतीय पीढ़ी ने राजनीतिक आज़ादी हासिल करने की हिम्मत और समझ देख ली थी.
विवेकानन्द ने कभी नहीं कहा कि वे अंधभक्त हिन्दू हैं, जिन्हें धर्म के इलाके में पैदा हो चुकी सामाजिक विकृतियों के जंगल में गुम होने दिया जाए. उन्होंने अपनी असाधारण समझ के चलते धार्मिक अनुष्ठानों, प्रथाओं, रूढ़ियों और आडंबरों के जंजाल के बरक्स मनुष्य होने के सबसे बड़े अहसास को अपने समय के इतिहास के चेहरे पर लीप दिया.
वे लगभग सबसे पहले भारतीय बने, जिन्होंने अपने मुल्क की सभी अच्छाइयों को दुनिया के उपवन में बोया और वहां से भी वे सभी वृत्तियां आत्मसात कर ले आए जिनकी विकसित होने वाले नए भारत की ज़रूरत से परिचित रहे थे. विवेकानन्द के योगदान को इतिहास की पुस्तकों से मिटा दिया जाए तो 20वीं सदी का भारतीय इतिहास उस बुनियाद के बिना भरभरा कर गिर जाने को होता है.
विवेकानन्द सर्वज्ञ नहीं थे. कोई नहीं होता. उनके वक्त और तत्कालीन भारतीय समाज ने उन्हें वह सब नहीं दिया जिसके वे हकदार थे. परिवार में अचानक आई असाधारण गरीबी और अंगरेजियत से लकदक नवजागरण काल की प्रवृत्तियों के भी रहते विवेकानन्द ने भारतीय प्रज्ञा के उस वक्त के अंधेरे को दूर किया. उन्हें अपने देश के प्राचीन इतिहास और उसकी उपलब्धियों को लेकर किताबी अहंकार नहीं रहा है. वे कालपरीक्षित भारतीय गुणों को औसत आदमी के कर्म में गूंथकर सभ्यता को मानक पाठ पढ़ाना चाहते थे. इसमें वे काफी हद तक सफल रहे.
कई ऐसी संकोची सामाजिक अवधारणाएं रही हैं जिनसे विवेकानन्द कई कारणों से दूर नहीं हो सकते थे इसलिए उन्होंने अपनी भूमिका के लिए बेहतर प्राथमिकताओं का चुनाव किया. उनकी ऐसी दूरदृष्टि बाद के भारत के गाढ़े वक्त में बहुत काम आई. मुझे विवेकानन्द कभी भी गालबजाऊ किस्म के धार्मिक प्रवाचक नहीं लगते, जिन व्यावसायिक धर्मधारकों की फसल आज भारत में सत्य की प्रज्ञा को ही चर रही है. मेरा विवेकानन्द एक वीर, उर्वर, प्रयोगशील और साहसी अभियान का आत्मिक योद्धा है जिसके साए तले भारत का हमारी पीढ़ी का इतिहास सिर उठाकर दुनिया की सबसे बड़ी भौतिक ताकतों के सामने खड़ा हो गया है.
राष्ट्रीयता और समाजवाद के पथप्रदर्शक
आनंद कुमार लिखते हैं, भारत के ताज़ा इतिहास में 19वीं सदी के उत्तरार्ध को तीन कारणों से विशेष महत्व दिया जाता है – 1857-60 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम; 1860 में ईस्ट इंडिया कम्पनी से ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया द्वारा भारत के शासन को अपने हाथों में ले लेना; और नये भारत की त्रिमूर्ति स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी और गुरुदेव टैगोर का सार्वजनिक जीवन में प्रकाशमान होना. लेकिन यह बहुत बड़ी विडंबना है कि इनमें से भारतीय राष्ट्रीयता और समाजवाद के प्रथम पथ-प्रदर्शक स्वामी विवेकानंद के बारे में आज सबसे ज्यादा भ्रांतियां और अज्ञान है. जबकि यदि विवेकानंद के योगदान को इतिहास की पुस्तकों से मिटा दिया जाये तो बीसवीं सदी का भारतीय इतिहास उस बुनियाद के बिना भरभरा कर गिर जाएगा. क्योंकि विवेकानंद अपने देश और समय के मेरुदंड थे (देखें : कनक तिवारी (2022) विवेकानंद – धर्म में मनुष्य या मनुष्य में धर्म (नयी दिल्ली, समाजवादी समागम प्रकाशन विभाग, पृष्ठ 6).
ऐसा क्यों हुआ है ? क्योंकि स्वामी विवेकानंद के साधुवेश के कारण जहां अधिकांश वामपंथी, लोकतांत्रिक समाजवादी व आधुनिक उदारपंथी उदासीन रहे और अपनी स्वाभाविक ज्ञान-जिज्ञासा के विपरीत स्वामीजी के विचारों पर अध्ययनशील नहीं रहे. वही कट्टरपंथी साम्प्रदायिक तत्वों ने संदर्भहीन बातों को काट-छांट कर अपने रंग-ढंग के अनुकूल बनाकर एकांगी प्रस्तुतियों से अपना उल्लू सीधा किया…(जबकि) विभिन्न धर्मों यथा इस्लाम व् वेदांत के सद्गुणों के सम्मिश्रण का शोषणविहीन, अनूठा, शक्तिशाली, संपन्न भारत स्वामीजी का सपना था…(रमाशंकर सिंह – वही, पृष्ठ 7).
भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में युवकों के आदर्श और भारतीय अस्मिता को राष्ट्रीय और वैश्विक पहचान दिलानेवाले स्वामी विवेकानंद के बारे में विश्वविद्यालयों और शोध प्रतिष्ठानों में एक चुप्पी रही है. जबकि लोकमान्य तिलक और महर्षि अरविन्द से लेकर गांधी और नेहरू तक उनसे प्रभावित हुए थे. नेताजी सुभाष के शब्दों में वह पूर्व और पश्चिम, धर्म और विज्ञान, अतीत और वर्तमान के बीच सेतु थे. उन्होंने भारत के आत्म-सम्मान, आत्म-विश्वास और आत्माभिव्यक्ति को प्रतिबिंबित किया.
गुरुदेव टैगोर का मानना था कि विवेकानंद को समझना मतलब भारत को जानना है. राजगोपालाचारी की दृष्टि में स्वामी विवेकानंद भारत की आध्यात्मिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक स्वाधीनता के जनक थे. इसलिए उनके 159वें जन्मदिवस पर समाजवादी समागम की ओर से वरिष्ठ विचारक और विधिवेत्ता श्री कनक तिवारी की पुस्तक की प्रस्तुति इस कमी को दूर करने का एक महत्वपूर्ण कदम है. 120 पृष्ठ की इस आकर्षक किताब में विवेकानंद के विचार और कृतित्व के साथ ही कुछ असुविधाजनक सवालों और 21वीं सदी के सरोकारों को भी महत्व दिया गया है. इसमें अंग्रेजी में बीस पृष्ठों में फैले 46 विचारणीय बिन्दुओं को अंग्रेजी आलेख के रूप में जगह देकर इसे द्विभाषी पाठकों के लिए ज्यादा उपयोगी कर दिया गया है.
विवेकानंद की प्रचलित छबि हिन्दू स्वामी की है लेकिन यह किताब इससे अलग हटकर उनको भारत के पुनर्निर्माण के लिए प्रतिबद्ध एक धर्म वैज्ञानिक के रूप में परिचित कराती है. उन्होंने ‘मानव धर्म’ की दिशा में बढ़ने के लिए भारतीय परम्पराओं में युग-अनुकूल परिवर्तित करने पर बल दिया. स्वयं समुद्र-यात्रा की. पुरोहितवर्ग के विरोध का मुकाबला किया. गरीबों की सेवा को देशभक्ति की पहली कसौटी बनाया. सर्वहारा वर्ग और युवकों को भारत का भाग्यविधाता बताते हुए ब्रिटिश राज के प्रति समर्पित वर्गों को चुनौती दी. ‘म्लेच्छ के हाथों’ भोजन ग्रहण किया. ‘अस्पृश्य जातियों’ के उत्थान का बीड़ा उठाया.
दुनिया में भारत की ईसाई धर्म प्रचारकों द्वारा प्रचारित ‘ रूधि-पीड़ित अंधकारग्रस्त समाज’ के मुकाबले ‘समावेशी सनातन संस्कृति’ का विकल्प प्रस्तुत किया. अद्वैत दर्शन की आध्यात्मिकता और समाजवाद की अर्थव्यवस्था के समन्वय पर आधारित ‘वेदांती समाजवाद’ का प्रतिपादन किया. छूआछूत को ‘शैतानी आचरण’ और इससे संचालित समाज को नरक तुल्य बताने का साहस दिखाया. धार्मिक सद्भाव का प्रतिपादन करते हुए हिन्दुओं को आध्यात्मिक एकता और सामाजिक भेदभाव के अन्तर्विरोध को समाप्त करने के लिए वेदांती चिन्तन और इस्लामी समाज-व्यवस्था को सांस्कृतिक नव-निर्माण का आधार बनाने की सीख दी.
इसीलिए यह स्वीकारा गया है कि विवेकानंद ने 19वीं सदी के आखिरी दशक में कोलम्बो से अल्मोड़ा तक पूरे भारत का उद्बोधन करते हुए सांस्कृतिक राष्ट्रीयता की नींव रखी और ‘वेदांती समाजवाद’ का प्रतिपादन किया. इससे 20वीं सदी के शुरूआती दशकों में राजनीतिक राष्ट्रीयता का विकास, समाजवाद का प्रचार और पूर्ण स्वराज का संकल्प संभव हुआ. इसके लिए देश-काल की सीमाओं के कारण राजनीतिक उपायों की बजाए शिक्षा को सर्व-सुलभ बनाने पर जोर दिया और आध्यात्मिक चेतना निर्माण और समाज सेवा के मार्ग को अपनाया.
भारतीय नव-जागरण के सूर्य के रूप में उदित विवेकानंद के लिए आदि शंकराचार्य शिक्षा-गुरु और रामकृष्ण परमहंस दीक्षा-गुरु थे. उनकी दृष्टि में 19वीं सदी का भारत भिखारी, अकर्मण्य उच्चवर्ग, और लाचार स्त्रियों से पहचनान जाता है और यह स्थिति बदलनी चाहिए. क्योंकि भारतीय समाज का सर्जक सुविधाभोगी उच्चवर्ग और बुद्धिजीवी की बजाय अनगिनत श्रमजीवी स्त्री-पुरुष हैं. दरिद्रनारायण की सेवा और छूआछूत से मुक्ति को धर्म की जिम्मेदारी बनानी चाहिए. इन्हें धर्म से पहले रोटी की जरूरत है. इसके लिए धर्म को संकीर्णताओं जैसे खान-पान के बंधनों से छुडाना चाहिए. आध्यात्मिक लोकतंत्र स्थापित करना चाहिए.
विवेकानंद का समग्र परिचय कराने के लिए प्रस्तुत कनक तिवारी की इस नयी किताब का मूल पाठ निम्नलिखित 9 हिस्सों में संगठित किया गया है – 1. शिकागो में विश्व धर्म संसद (1893), 2. जातिप्रथा के प्रति दृष्टि, 3. मार्क्सवाद और समाजवाद, 4. ‘मत-छूओ वाद’ और शूद्र राज्य, 5. इस्लाम के लिए उदारता, 6. शिक्षा की प्राथमिकता, 7. राजनीतिक तेजस्विता और क्रांतिकारिता, 8. विवेकानंद और गांधी, और 9. इतिहास-दृष्टि. भूपेन्द्रनाथ दत्त, जवाहरलाल नेहरु, देउस्कर, एम्. एन. रॉय, एल. बाशम, राधाकृष्णन, तपनराय चौधरी, के. दामोदरन, रामधारीसिंह दिनकर, हिरेन मुखर्जी, राजा रमन्ना आदि के उद्धरणों से सुसज्जित इस हिस्से में विवेकानंद के चिंतन का गहरा परिचय मिलता है.
इसके बाद 31 बिन्दुओं वाला एक रोचक अध्याय है – ‘कुछ असुविधाजनक सवाल’. इसे पढ़ना विवेकानंद के चिंतन और सपनों के साथ की गयी बौद्धिक छेड़-छाड़ के बारे में आंखे खोल देता है. प्रभा दीक्षित (‘गैर-हिन्दुओं की उपेक्षा’ और ‘गोलवलकर के ‘विचार नवनीत’ से निकटता’), कंवल भारती (‘हिन्दू सहिष्णुता का असत्य’), ब्रजरंजन मणि (‘ब्राह्ममनाइज़िन्ग हिस्ट्री’), जावेद आलम (‘इस्लाम का अवमूल्यन’) और अरुण शौरी (इस्लाम विरोधी) के लेखन का सारांश प्रस्तुत करके इन विद्वानों द्वारा विवेकानंद के चिन्तन के दोषपूर्ण उद्धरणों और उदाहरणों के आधार पर मनमानी बातें आरोपित करने की बीमारी को पेश किया गया है.
इस हिस्से में यह भी स्पष्ट होता है कि कैसे 20वीं सदी के उत्तरार्ध में विदेशी राज के खिलाफ क्रांतिकारियों के प्रेरणा स्त्रोत को आज़ादी के बाद वामपंथियों की उदासीनता के कारण सर्वसमावेशी संस्कृति के प्रतीक का साम्प्रदायिकता की राजनीति द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा है.
किताब का तीसरा हिस्सा ‘विवेकानंद की 21वीं सदी’ आज के 18 प्रसंगों को आठ पृष्ठों में रेखांकित करता है. यह इस किताब का सबसे छोटा और कमजोर अंश है. फिर भी यह महत्वपूर्ण है कि इस विचारोत्तेजक हिस्से के अंतिम पैराग्राफ में स्पष्ट अनुरोध है कि विवेकानंद को केवल श्रद्धा का विषय नहीं बनाना चाहिए. श्रद्धा श्राद्ध में तब्दील हो जाती है. उनकी बातों की तफसील में जाने की जरुरत है.
विवेकानंद की याद में शर्मसार होने का भी यह वक्त है क्योंकि देश के नेता केवल भाषण देते हैं और खुद आडंबर में घूमते रहते हैं. देश विवेकानंद के रास्ते पर नहीं चल सका है. इस किताब की मूल स्थापना में यह बात प्रमुख है कि देश के समाज-वैज्ञानिकों ने विवेकानंद के बारे में अपने को अज्ञानी बनाये रखने का और वामपंथियों ने उदासीन रखने का अपराध किया है.
व्हाट्सएप और आईटी सेल के विवेकानंद
विवेकानंद का जन्मदिन पूरे देश बल्कि दुनिया में विवेकानंद की याद के रूप में मनाया जा रहा है. हर साल मनाया जाता है. ज्यादातर औपचारिक होता है. थोड़ा बहुत अनौपचारिक होता होगा लेकिन जो संदेश विवेकानंद ने दिया था, खासतौर पर युवकों के लिए, उससे आज की पीढ़ी को कुछ लेना देना नहीं है. यह बात विवेकानंद जानते रहे हैं ? जो व्हाट्सएप विश्वविद्यालय, इंस्टाग्राम इंस्टिट्यूशन फेसबुक की फेकबुक और अफवाहों के जंगल में रहते हैं, उन्हें क्या लेना देना ?
उन लोगों को तो ‘जय श्री राम‘ का नारा आतंक के रूप में प्रचारित करने का हौसला बढ़ गया है. ये तो दलित वर्ग की स्त्रियों के साथ बलात्कार करने और अल्पसंख्यकों खासतौर पर मुसलमानों और ईसाइयों को मार डालने को हिंदुत्व का चरमोत्कर्ष समझते हैं. विवेकानंद फाउंडेशन बनाया है. वहां विवेकानंद की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार ठीक से नहीं किया जाता. विवेकानंद ने कभी नहीं कहा था कि गर्व से कहो हम हिंदू हैं.
उन्होंने हिंदू होने के अहसास को मुफलिस, गरीब, बीमार हर तरह के लोगों को अपने गले से लगा कर, अपना दोस्त बना कर, साथी बना कर एक साथ समाज के उठ जाने की संकल्पना की. दुनिया के सारे धर्मों को विवेकानंद ने अपने विश्वास में समाहित कर लिया था. इसी कारण तो शिकागो धर्म सम्मेलन में भारत के प्रतिनिधि की हैसियत से, हिंदू धर्म के प्रतिनिधि की हैसियत से नहीं, 30 वर्ष के नवयुवक विवेकानंद ने पूरी दुनिया में एक जलजला पैदा किया था.
विवेकानंद को तथाकथित हिंदुत्व के पैरोकार भगवा वस्त्र पहनकर भारतीय दंड संहिता के सभी तरह के अपराध करते हैं, बहुत बेशर्मी के साथ. जहां-जहां उनकी सरकारें हैं, पुलिस उनकी मदद करती है. जिस विवेकानंद के दोनों भाई भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य थे. भाई महेंद्र नाथ ने तो बार-बार और लंदन जाकर भी अपने बड़े भाई से कांग्रेस के भविष्य और उसकी कार्यप्रणाली पर बात की थी. उस कांग्रेस पार्टी को तो विवेकानंद से कुछ लेना-देना नहीं है. संघ परिवार के कड़े हिंदुत्व के फेर में फंस कर अपने आप को सॉफ्ट हिंदुत्व का पैरोकार बना रही है. सॉफ्ट हिंदुत्व कुछ नहीं है, बर्फ की सिल्ली है. उसका पानी कभी भी पिघल जाता है.
यह बहुत दु:ख है कि जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि उनके वक्त की नौजवान पीढ़ी को भी विवेकानंद में खास दिलचस्पी है, ऐसा नहीं लगता. तब से लेकर तो जमाना बहुत बदल गया है. अब तो बहुत गिरावट है. जिनके घर में खाने को नहीं है, नौकरियां नहीं है, रोजगार नहीं है, शरीर, आत्मा और चरित्र में दम नहीं है. वे सब भड़काऊ भाषण के कारण बस केवल हिंदू मुसलमान कर रहे हैं. ये लोग जानबूझकर विवेकानंद के भाषणों से बताते हैं जहां उन्होंने मुसलमानों की आलोचना की. उनके बारे में जानबूझकर बात नहीं करते जहां विवेकानंद नेे इस्लाम की तारीफ की.
डेढ़ सौ बरस से ज्यादा हो जाने पर भी मौजूदा दुनिया में विवेकानंद के लिए सम्मान और समझ धूमिल नहीं हुई है. विवेकानंद ने अपने खुदरा संबोधन की कड़ियों को जोड़कर राजदर्शन का एक संभावित जनतांत्रिक संस्करण वक्त के माथे की लकीरों की तरह लिख दिया है. उस इबाारत को पढ़ना वेस्टमिंस्टर कोख से प्रसूत राज्य धर्मियों के लिए मुसीबत है इसलिए विवेकानंद साहित्य में से कुछ चुने हुए वाक्यों को संदर्भित कर, खंगाल कर अपनी मतलबपरस्ती के लिए जैसे इस्त्री चलाकर लगभग दिखाने के लिए व्याख्यायित करना एक बड़ा दक्षिणपंथी बुद्धिजीवी शगल हो गया है.
विवेकानंद मौजूदा भारत के लिए एक पहेली, जिज्ञासा और कई अन्य कारणों से एक साथ चिंतन और चिंता का विषय भी हैं. उत्सवधर्मिता एक उबाऊ प्रक्रिया है. उसके चलते विवेकानंद को लगातार पीढ़ी दर पीढ़ी इस तरह प्रचारित किया जा रहा है कि उन्हें समझने में सरलता के बजाय कठिनाई होने लगती है.
मौजूदा निजाम गाल तो बहुत बजाता आता है लेकिन विवेकानंद के आदर्शों को क्रियान्वित करने में उसकी घिग्गी बन जाती है. विवेकानंद के आदर्श राष्ट्रीय जीवन का कारगर लक्षण नहीं बनाये जा सके. रामकृष्ण मिशन का भी उतना फैलाव कहां हो पाया है जो शायद विवेकानंद ने अपने उद्दाम यौवन में अपने सपनों में सोचा होगा ? यह हैरत की बात है कि जो लोग लव जिहाद, घर वापसी, हिंदू औरतों के कम से कम चार बच्चे, फतवा, काफिर, खाप पंचायत, पाकिस्तान जिंदाबाद, पुलिसिया एनकाउंटर जैसी लाक्षणिकता पैदा करते हैं, वे विवेकानंद के पास जाने की जुगत भी बिठाते रहते हैं.
अश्लील चित्र एक के बाद एक व्हाट्सएप ग्रुप में शेयर किए जाते हैं. वेबसाइट बनाई जाती है. बुल्ली बाई, सुल्ली बाई का नया शगल ऐसे लोग कर रहे हैं. ये विधानसभा में भी बैठकर ब्लू फिल्में देखते हैं और बाहर विवेकानंद पर भाषण देते हैं. हमारे राष्ट्र निर्माता माइग्रेन की बीमारी के प्रतीक नहीं हैं जो कभी-कभी उभर जाएं. वे वक्तन वावक्तन प्रासंगिक नहीं है, बल्कि शाश्वत हैं.
विवेकानंद की याद में उनकी आत्मा के शीशे के सामने खड़े होकर शर्मसार होने का भी यही वक्त है. हम उनके दिमाग को तर्क की आरी से चीरना नहीं चाहते, केवल उनके भगवा वस्त्रों का प्रचार कर सिर झुका लेते हैं. विवेकानंद केवल श्रद्धा का विषय नहीं है. श्रद्धा श्राद्ध में तब्दील हो जाती है. विवेकानंद की पैरवी करने के लिए जन अदालतों में जाना चाहिए. उनकी बातों में तफसील से जाने की जरूरत है.
इस देश का हर वह नागरिक जो आत्मग्लानि से पीड़ित है, जो नागरिक असफलताओं से पीड़ित है, जो समझता है कि उसने विवेकानंद के रास्ते पर चलने की कोशिश की, लेकिन देश को नहीं चला सका. हां, विवेकानंद उसके ही पास आते हैं. नेता केवल गाल बजाते हैं, भाषण देते हैं इसलिए भाषण देते हैं कि खूब तालियां बजे. खुद आडम्बर में घूमते रहते हैं. विवेकानंद हर वक्त उनसे दूर चले जाते हैं.
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