मान लीजिये भारत में संघ की मनमानी चलने दी जाय तो ये ज्यादा से ज्यादा क्या कर लेंगे ? ये मुसलमानों, ईसाईयों, कम्युनिस्टों, सेक्युलर बुद्धिजीवियों, को मिलाकर मार ही तो डालेंगे ? बुरे से बुरे हाल में ये भारत में आठ दस करोड़ लोगों को मार डालेंगे, लेकिन उससे ना तो दुनिया से मुसलमान समाप्त होंगे, ना इसाई, ना कम्युनिस्ट विचारधारा समाप्त होगी, ना ही नए बुद्धिजीवी पैदा होने बंद हो जायेंगे, लेकिन उसके बाद हिंदुत्व की राजनीति ज़रूर हमेशा के लिए समाप्त हो जायेगी.
हिमांशु कुमार
आज की राजनीतिक हालात देखकर हमारे कुछ दोस्त निराश हैं. लेकिन मेरा कहना है कि हमारे लिए सबसे बेहतर समय आ चुका है. यह हमारे लिए काम करने का सबसे मुफीद समय है. चुनौती सबसे ज्यादा है.
हमारे मित्रों का कहना है कि जनता नहीं समझ रही. लेकिन हमारा कहना है कि जनता बहुत जल्दी समझेगी और जब जनता समझती है तो वह अच्छे-अच्छे को उखाड़ कर फेंक देती है. इस बार कोई बड़ा परिवर्तन होगा. हमें उसके लिए कमर कसकर तैयार रहना है. कोई भी तानाशाही ज्यादा लंबे वक्त तक नहीं टिकती है. और किसी भी देश की जनता ज्यादा वक्त तक सब कुछ सहन नहीं करती है.
भारत की आजादी के साथ साथ ही सारी दुनिया में नए मुल्क आज़ाद हुए नए राष्ट्र बने, नयी अर्थव्यवस्थाएं विकसित होने लगीं. समाजवाद और लोक कल्याणकारी राज्य की तरफ सबने चलने की कोशिश की. लेकिन जो ताकतें पहले से ही आर्थिक रूप से सत्तावान थी, जैसे यूरोप के पुराने लार्ड, युद्ध में अकूत पैसा कमाने वाले अपराधी, ड्रग के पैसे से अरबपति बने माफिया, भारत के राजा और सवर्ण सेठ साहूकार समाजवाद को फेल करने में लगे रहे.
इन्हीं ताकतों नें गांधी की हत्या करवाई, शांतिवादी केनेडी को मारा, रूस को तोड़ने में सफलता पायी. दुनिया से समाजवाद, लोककल्याणवाद और उदारवाद को समाप्त करने के लिए शिक्षा को घोर पूंजीवाद प्रशंसक, सेना प्रशंसक, बनाया गया.
पूंजीवाद ने अपने पैर ज़माने के बाद पहले तय किया कि सारी दुनिया की दौलत को लूटना ज़रूरी है, तब वैश्वीकरण को दुनिया के कमज़ोर देशों की सरकारों के मार्फ़त लागू करवाया. अमीर देशों के पूंजीपति वैश्वीकरण के नाम पर गरीब देशों को लूटने के लिए टूट पड़े.
अफ्रीकी देशों, लैटिन अमरीकी देशों, और दक्षिण एशिया के देशों में विदेशी पूंजीपति टूट पड़े. आदिवासी इलाकों में सारी दुनिया में एक साथ तबाही शुरू हुई. भारत में भी छत्तीसगढ़, झारखंड और उड़ीसा में भी उसी समय सैन्य बल बड़ी कंपनियों के लिए भूमि हडपने के लिए भेजे गए.
जो बीच में आया उन्हें मार डाला गया, जेल में डाल दिया गया, जगह छोड़ने के लिए मजबूर किया गया. हिमांशु कुमार, बिनायक सेन, सोनी सोरी का नाम आप सुनते हैं लेकिन सारी दुनिया में ज़मीन बचाने वाले लोगों की हत्याएं हुई, गायब कर दिया गया, जेलों में डाल दिया गया.
जो देश नहीं झुके उन पर युद्ध थोप दिया गया. ईराक, अफगानिस्तान समेत जहां चाहा वहां अपनी सेनायें भेजी गयीं. इसके बाद पूंजीवाद नें तय किया कि अब लूट के बाद जो फायदा होगा उसे हम अकेले ही खायेंगे. इसी के साथ राष्ट्रवाद और सम्प्रदायवाद का नया उफान सारी दुनिया में आया.
अमेरिका कहने लगा सभी बाहर वालों को निकालो, मेक्सिको वालों को निकालो, मुसलमानों को निकालो. भारत में भी मुसलमानों, आदिवासियों और दलितों पर हमले बढ़ने लगे और उन्हें दूर कर विकास का लाभ हडपने की होड़ बढ़ने लगी. सारी दुनिया में पुलिस, सेना, राष्ट्रवाद की जयजयकार का नया दौर आ गया.
भारत में हिंदुत्व के नाम पर जो ताकतें जीत रही हैं वह पूंजी और बाजारवादी ताकतों के ही घोड़े हैं. यह सारी हालत हमें फिर से संघर्ष करने का नया मौका दे रही हैं. ये लूटमार वाला निजाम ज्यादा दिन चलेगा नहीं.
लुटेरों में आपसी लडाइयां ज़रूर होती हैं. पूंजीवाद के विनाश के बीज उसके अपने पेट में होते हैं. इसलिए हमें नयी व्यवस्था लाने के लिए अभी से कोशिश शुरू कर देनी है. नौजवानों को नयी व्यवस्था की ट्रेंनिंग देनी ज़रूरी है, समाजवाद, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक न्याय किसे कहते हैं ? विकेन्द्रित और लोककल्यान्कारी राज्य, नया समाज कैसे बनेगा, इस सब पर नौजवानों को समझाना शुरू करना पड़ेगा.
सारे देश में इस काम को जोर शोर से करने की ज़रूरत है. गांव गांव कसबे कसबे युवाओं के प्रशिक्षण शिविर लगाइए. हम सब मिलकर सारे देश में जाएं, नए नौजवानों को प्रशिक्षक के रूप में तैयार करें. साईकिल, मोटर साइकिल, बस, जो साधन मिले घूमना शुरू कर दीजिये.
लोगों से संपर्क कीजिये नाम नोट कीजिये, सहायता देने के लिए तैयार कीजिए, किसी से जगह मांगिये, किसी से खाना. और तीन दिन या हफ्ते के ट्रेनिंग शिविर लगाइए. भगत सिंह, आंबेडकर, गांधी की किताबें निकाल लीजिये, पढ़िए और पढ़वाइए. हम सिर्फ मोर्चा हारे हैं, युद्ध नहीं हारे. चलिए जुट जाइए फिर से.
राजनीति दो तरह की हो सकती है. पहली असली राजनीति. असली राजनीति का मतलब है जनता की समस्याओं को दूर करने वाली राजनीति. जैसे रोज़गार, शिक्षा, मजदूरों को शोषण से मुक्ति, किसान की बेहतरी, महिलाओं की समानता, जाति, सम्प्रदायवाद से समाज को मुक्त करने की राजनीति वगैरह.
एक दूसरी राजनीति होती है मूर्ख बनाने वाली राजनीति. उस राजनीति में किसी एक धर्म की इज्ज़त के नाम की राजनीति होती है. कुछ जातियों की श्रेष्ठता को आधार बना लिया जाता है, फर्जी राष्ट्रवाद के नारे लगाए जाते हैं, काल्पनिक दुश्मन खोजे जाते हैं, फालतू में नफरत फैलाई जाती है, सेना के नाम पर उत्तेजना का निर्माण किया जाता है, कुछ सम्प्रदायों को दुश्मन घोषित किया जाता है.
पहली वाली राजनीति से समाज की प्रगति होती है, जीवन सुखमय होता जाता है, लेकिन दूसरी वाली राजनीति से समाज में भय, नफरत और हिंसा बढ़ती ही जाती है. दूसरी वाली राजनीति में लोगों के जीवन से जुड़े मुद्दे पर काम नहीं होता सिर्फ जुमले छोड़े जाते हैं.
दूसरी वाली राजनीति का एक लक्षण यह है कि इसमें धीरे धीरे कट्टरपन बढ़ता जाता है, नए गुंडे पुराने गुंडों को उदारवादी बता कर सत्ता अपने हाथ में लेते जाते हैं, और धीरे धीरे पूरी तरह मूर्ख और क्रूर नेता सबसे बड़ा बन जाता है. इसके बाद इस राजनीति का निश्चित अंत होता है. क्योंकि हिंसा तो नाशकारी है ही, यह आग तो सभी को जलाती है.
मान लीजिये भारत में संघ की मनमानी चलने दी जाय तो ये ज्यादा से ज्यादा क्या कर लेंगे ? ये मुसलमानों, ईसाईयों, कम्युनिस्टों, सेक्युलर बुद्धिजीवियों, को मिलाकर मार ही तो डालेंगे ? बुरे से बुरे हाल में ये भारत में आठ दस करोड़ लोगों को मार डालेंगे, लेकिन उससे ना तो दुनिया से मुसलमान समाप्त होंगे, ना इसाई, ना कम्युनिस्ट विचारधारा समाप्त होगी, ना ही नए बुद्धिजीवी पैदा होने बंद हो जायेंगे, लेकिन उसके बाद हिंदुत्व की राजनीति ज़रूर हमेशा के लिए समाप्त हो जायेगी.
उसके बाद भारत ज़रूर दुनिया के अन्य सभी देशों की तरह ठीक से अपना काम काज करता रहेगा. हिटलर ने यही तो किया था. उसने खुद को आर्य कहा और अपनी नस्ल को दुनिया की सबसे श्रेष्ठ नस्ल घोषित किया, इसके बाद हिटलर ने यहूदियों को अपने देश के लिए समस्या घोषित किया.
हिटलर ने एक करोड़ बीस लाख औरतों, बच्चों, जवानों, बूढों को घरों से निकाल निकाल कर बड़े बड़े घरों में बंद कर के ज़हरीली गैस छोड़ दी. उसने भी सिर्फ यहूदियों को नहीं मारा, बल्कि कम्युनिस्टों, बुद्धिजीवियों, उदारवादियों, विरोधियों, समलैंगिकों सबको मारा. अंत में हिटलर ने खुद को गोली मार ली. हिटलर के देश जर्मनी के दो टुकड़े हो गए थे.
आज भी हिटलर के देश के लोग हिटलर का नाम लेने में हिचकिचाते हैं, और अगर नाम लेते हैं तो शर्म और नफरत के साथ लेते हैं. अगर भारत में भी साम्प्रदायिकता और राष्ट्रवाद की नकली राजनीति इसी तरह बढ़ेगी, तो यह अपने अंत की और ही जा रही है यह निश्चित है.
भाजपा राजनीति के जिस रास्ते पर बढ़ रही है वह ज्यादा दूर तक नहीं ले जाता. थोड़े ही दिन में इस तरह की राजनीति का खुद ही अंत हो जाता है. अपनी चिता में जलकर एक नया भारत निकलेगा. ये ज़रूर है कि वह राजनैतिक तौर पर एक राष्ट्र बचेगा या टुकड़ों में बंट जायेगा, यह नहीं कहा जा सकता.
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