मनीष आजाद
क्या हो अगर एक दिन आपको पता चले कि आप जीवन भर जिस धर्म को मानते आये हैं, आपका जन्म उसमें नहीं बल्कि उस धर्म में हुआ है, जिससे आप घृणा करते है. उस वक़्त आप किस कदर सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक-आध्यात्मिक संकट से गुजरेंगे ?
यही कहानी है इस फ्रेंच फिल्म ‘The Other Son’ की. इस कहानी के साथ यह फिल्म इसलिए खास हो जाती है, क्योंकि इसकी पृष्ठभूमि इजराइल व फिलिस्तीन है, यानी यहूदी और मुस्लिम धर्म का टकराव.
जोसेफ जब 18 साल का होता है तो इजराइल की सेना में भर्ती होने के लिए वहां के नियम के अनुसार उसका डीएनए टेस्ट होता है. टेस्ट के रिजल्ट से पता चलता है कि जोसेफ यहूदी सिल्बर्ग और ओरिथ का बेटा नहीं है. फिर वह किसका बेटा है ? परिवार में भूचाल आ जाता है. कहानी आगे बढ़ते हुए जोसेफ के जन्म तक जाती है.
जोसेफ ने इजराइल के जिस हॉस्पिटल में जन्म लिया था, उसका रिकॉर्ड खंगाला जाता है. पता चलता है कि 1991 में जिस दिन जोसेफ का जन्म हुआ था, उसी दिन ‘खाड़ी युद्ध’ के दौरान एक मिसाइल आकर हॉस्पिटल के पास गिरी थी. बच्चों को बचाने की प्रक्रिया में जोसेफ एक दूसरे बच्चे से बदल गया था.
डीएनए प्रक्रिया से ही पता चलता है की जोसेफ के पिता सईद और लीला फिलिस्तीनी मुस्लिम हैं, जो गज़ा पट्टी में रहते है. और उनके घर जो बच्चा यासीन पल रहा है वो दरअसल यहूदी है, जिसके असली पिता सिल्बर्ग और ओरिथ हैं.
फिलिस्तीन और इजराइल के ऐतिहासिक संघर्ष की पृष्ठभूमि में दोनों परिवारों पर मानो बिजली गिर जाती हो. सहसा उन्हें अहसास होता है कि पिछले 18 सालों से वे अपने दुश्मन के बेटे को पाल रहे थे. लेकिन फिर अगले ही पल उन्हें ख्याल आता है कि ‘उनका अपना बच्चा’ भी तो दुश्मन के घर में दुश्मन की ही तरह पल रहा है. दोनों यहूदी और मुस्लिम परिवार भयानक नैतिक-धार्मिक और अध्यात्मिक संकट से गुजरते हैं.
दोनों परिवारों की माएं इस तथ्य को जल्दी ही अपना लेती है और एक तरह से यह मानने लगती हैं कि उनके अब दो बेटे हो गए. पिता काफी समय तक इस तथ्य को नहीं पचा पाते और बेहद तनाव में रहते है. यासीन का भाई बिलाल रेडिकल फिलिस्तीनी है और उसे भी यह तथ्य पचाने में दिक्कत हो रही है.
लेकिन खुद जोसेफ और यासीन इस तथ्य को जल्दी ही स्वीकार कर लेते हैं और अपनी धार्मिक पहचान से ऊपर उठने लगते हैं. फिल्म का वह दृश्य बहुत ही असरकारक है, जब जोसेफ इजराएल की सीमा लांघ कर गज़ा पट्टी में प्रवेश करता है और अपनी नई पहचान से रूबरू होता है.
चारों तरफ़ गरीब बच्चों के खेलते दृश्य और मुस्लिम महिला का जोसेफ का हाथ पकड़ कर उसे यासीन के घर पहुचाना बहुत असरकारक है. खाने की मेज पर जोसेफ के साथ बैठ कर किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा कि क्या बोले. सभी अपनी पहचान से लड़ रहे हैं या समझ नहीं पा रहे की मनुष्य की असली पहचान क्या है ?
मैंने किसी और फिल्म में मौन को इतना मुखर नहीं देखा. इस मौन को जोसेफ अपने संगीत से तोड़ता है. जोसेफ जो गीत गाता है, उससे यासीन, बिलाल और उनके पिता सईद और लीला भी जुड़ जाते हैं. जोसेफ का साथ देने के लिए सईद अपना गिटार ले आता है.
यहां संगीत एक प्रतीक रूप में भी है. दरअसल इजराइल और फिलिस्तीन का धर्म के अलावा (सच तो यह है कि यहां भी बहुत कुछ सांझा है) बहुत कुछ सांझा है, ठीक उसी तरह जैसे भारत पाकिस्तान का बहुत कुछ सांझा है. लेकिन साम्राज्यवादी राजनीति इस सांझेपन पर राख डाल देती है और हम एक दूसरे को दुश्मन नज़र आने लगते हैं.
जोसेफ को खोजते हुए जब सिल्बर्ग फिलिस्तीन में प्रवेश करता है तो लॉन्ग शॉट में विशालकाय ऊंची दीवार (apartied wall) नीचे चलते हुए मानो यह दृश्य यही कह रहा हो कि कैसा समय आ गया है जब दीवारें भी इंसानियत से ऊंची हो गयी है.
फिल्म अंत में यह शाश्वत सवाल छोड़ जाती है कि वह वक़्त कब आएगा जब हमारी सिर्फ एक पहचान होगी. और वह होगी – इंसानियत की पहचान. आज के ध्रुवीकृत विश्व में यह फिल्म बहुत ही प्रासंगिक हो जाती है.
2012 में आई इस फिल्म का निर्देशन लोरेन लेवी (Lorraine Lévy) ने किया है. और यह फिल्म you tube और MUBI पर उपलब्ध है.
Read Also –
‘पैरेलल मदर्स’: सच से आंख मिलाती महिलाएं और इतिहास…
Cairo 678 : पुरुषों के लिए एक बेहद जरूरी फ़िल्म
‘कायर’ : हम सबकी भावनात्मक टकराहटों की कथा…
[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]