आज से पचास साल बाद कोई व्हाट्सप आये, और कहे कि राहुल गांधी ने ज्योतिरादित्य पर काफी अत्याचार किये, और पार्टी से बाहर निकाल दिया…यकीन करेंगे ? जरूर करेंगे, यदि आप प्रोपगेंडे के दाने खाकर ही पले बढ़ें हों.
कांग्रेस, सुभाष के लिए, आउट ऑफ रिस्पेक्ट कोई काउंटर नहीं करती. जब तक सरकार रही, उनके अवदानों का मान ही बढाया, उनकी लिगेसी को इम्मोर्टल किया. अगर जय हिंद, हमारी सेना और पुलिस की ऑफिशियल ग्रीटिंग है. यह नेहरू दौर से ही है. क्यों है ?
बहरहाल, सुभाष के इस्तीफे के पीछे गांधी नेहरू का षड्यंत्र बताने वाले संघियो से पूछना है मुझे –
- गांधी के आशीर्वाद से मिले साल भर के कार्यकाल में सुभाष ने ऐसा क्या क्या किया, जिसमें कांग्रेस का एक बड़ा तबका उनके खिलाफ हो गया. बताइये.
- क्या एकतरफा फैसले, कार्यसमिति की राय को ताक पर रखकर मनमर्जी करना, हेकड़ी वाले बयान देना, या श्यामा प्रसाद जैसों को पीटने के लिए दौड़ा लेना, कम से कम तब कांग्रेस की तासीर नहीं थी.
- सबसे बड़ा सवाल- फारवर्ड ब्लॉक. कांग्रेस का अध्यक्ष, अपने ही दल में एक उप दल बना रहा है. इसमें सुभाष के वफादार समर्थक भरे हैं. तमाम पदों पर यही लोग भरे जा रहे हैं. डेलीगेट भी यही बन रहे हैं. याने कांग्रेस अध्यक्ष के लिए वोट देने वाले लोग. इन्हीं के बूते, तमाम विरोध के बावजूद वे चुनाव लड़ने की हिम्मत करते है, और गांधी जैसे शख्स का समर्थन न होने के बावजूद, इन नम्बर्स के बूते, नैरो मार्जिन से जीत भी जाते हैं.
तो क्या था फारवर्ड ब्लॉक ? और सुभाष के चुने हुए लोग फारवर्ड ब्लॉक थे, तो क्या बाकी की कांग्रेस बैकवर्ड ब्लॉक थी ? गांधी, सरदार, नेहरू, मौलाना, सीतारमैया, नरेंद्रदेव, राजेन्द्र प्रसाद…निहायत बैकवर्ड थे भईया.. ??
सत्य यह कि सुभाष ने अपने एक साल को गुटबाज़ी में बर्बाद कर दिया. उनकी लड़ाई अंग्रेजों से ज्यादा, कांग्रेस के भीतर स्थायी वर्चस्व के लिए थी. वर्चस्व बनाकर वे क्या करते, खुदा जाने लेकिन उस एक साल तो यह यह देश से ज्यादा, स्व की लड़ाई थी. आगे चलकर उन्होंने जो भी किया, वह भी गलत तरीका था. फेल होने को अभिशप्त था.
साथ लड़ने वाले फौजियों को, जब उनकी सबसे ज्यादा जरूरत थी, सुभाष सुविधाजनक तारीख में मर गए. फौजियों की लड़ाई तो नेहरू की INA डिफेंस कमेटी ने लड़ी. यहां तक कि जिन्ना और कम्युनिस्टों ने भी लड़ी. लेकिन फिर भी, सुभाष के देशप्रेम पर कोई संशय नहीं. उनकी लीडरशिप क्वॉलिटी और ईमानदारी पर कोई संशय नहीं.
वे हमारे बड़े लीडर, इंस्पिरेशन और देश की थाती हैं. आजादी के लिए उन्हें जो सूझा, सब कुछ दांव पर लगाकर किया. लेकिन मेरी स्पष्ट अवधारणा है कि 1938 के अध्यक्ष के रूप में वे स्वहित के लिए लड़ते हुए, कांग्रेस को, नेशनल मूवमेंट को नुकसान पहुंचाने वाले पहले बड़े कांग्रेसी शख्स थे.
उनका इस्तीफा, एक लॉजिकल और अपरिहार्य नतीजा था. गांधी सहित किसी पर भी षड्यंत्र का इल्जाम लगाना, फिजूल का दुराग्रह है. वैसा ही, जैसे आज से पचास साल बाद कोई व्हाट्सप आये, और कहे कि राहुल गांधी ने ज्योतिरादित्य पर काफी अत्याचार किये, और षड्यंत्र करके पार्टी से बाहर निकाल दिया…तो क्या आप यकीन करेंगे ? जरूर करेंगे, यदि आप प्रोपगेंडे के दाने खाकर ही पले बढ़ें हों.
सुभाषचन्द्र बोस की सबसे खूबसूरत तस्वीर
मेरी निगाह में सुभाषचन्द्र बोस की सबसे खूबसूरत तस्वीर यह है. सिर पर गांधी टोपी है, गले मे सूत की माला है, जो फिलहाल फूलों की माला के नीचे छुप चुकी है. गांधी की ब्लेसिंग्स उस वक्त उनके साथ है. वे नेहरू के उत्तराधिकारी है, और खुद नेहरू बगलगीर है. इस तस्वीर में असीम सम्भावनायें हैं.
1930 के बाद सुभाष यूरोप में थे, और नेहरू-गांधी जेल में. सविनय अवज्ञा आंदोलन के बाद कांग्रेस लीडरशिप को तोड़ने के लिए ब्रिटिश सरकार हर हथकंडा अपनाती है. गांधी को जेल डालती है. फिर राजकीय अतिथि बनाकर लंदन बुलाती है, राजा के साथ चाय पिलाती है. बकिंघम पैलेस की टी पार्टी के चार महीने बाद ही फिर से वे जेल में चाय पी रहे हैं.
नेहरू भी जेल में है. उनके जीवन का सबसे बुरा वक्त है. पहले पिता की मृत्यु होती है, फिर पत्नी गम्भीर बीमार होती है. वयोवृद्ध माता और किशोरवय बेटी, बाप के बनाये विशाल आनंद भवन में बहू की देखभाल कर रहे हैं. खुद जवाहरलाल जेल में हैं.
यह दौर वित्तीय कठिनाइयों का भी है, मानसिक, राजनीतिक और भावनात्मक संकट का भी लेकिन फिर भी, जेल से छूटा जवाहर, घर के रस्ते में एक प्रदर्शन में भाग लेता है, और फिर जेल पहुंच जाता है.
कमला को इलाज के लिए स्विट्जरलैंड भेजा जाता है. नेहरू की गैरमौजूदगी में, वहां मौजूद सुभाष उन्हें भर्ती कराते हैं लेकिन 1936 में जब कमला मरणासन्न हैं, नेहरू शर्तों के तहत रिहा होकर पहुचंते है. कमला की मृत्यु होती है. तमाम व्हाट्सप अफवाहों के विपरीत, सत्य यह है कि कमला की मृत्यु के वक्त वे स्विट्जरलैंड में मौजूद थे.
अब वे पूरी तरह देश के हैं. इसी वर्ष वे फिर कांग्रेस प्रेजिडेंट बनते हैं, इसके अगले वर्ष भी. दो साल वे कांग्रेस को गांधी के निर्देश और नीतियों के तहत चलाते हैं. 1938 में अगला प्रेसिडेंट बनाया जाना है. वे मित्र सुभाष को चुनते है, जो अब भी यूरोप में है. अपनी गैर मौजूदगी में कांग्रेस के प्रस्ताव से अध्यक्ष नामित होकर वे भारत आते हैं. गद्दी सम्हालते है.
इस तस्वीर में उनके सर पर गांधी टोपी है, गले में सूत की माला. वे जवाहर के उत्तराधिकारी हैं और कांग्रेस सम्हालने को तैयार हैं. पद छोड़ने वाले नेहरू, उनके साथ है. बगलगीर है. प्रधानमंत्री नेहरू का दूसरा पहला कार्यकाल चमकता सूरज है, दूसरा साधारण और तीसरा डिजास्टर…
दरअसल लगातार सत्ता की जिम्मेदारी थका देती है, निचोड लेती है, चूस लेती है. उम्र भर की सोच, आइडियाज और आइडियल्स, खर्च हो चुके होते हैं. समय रहते, अपने पीक का उतार दिखते ही उसे पीछे हट जाना चाहिए. तो सन 1957 में जवाहर, सत्ता सुभाष चन्द्र बोस को सौप देते हैं. ठीक वैसे ही जैसे 1937 में उन्हें पार्टी की कमान सौंपी थी.
याने 1937 से 1947 तक सुभाष-नेहरू की युति, गांधी की राह पकड़, अंग्रेजों से लडती है. सुभाष ने अपना ईगो और टेम्पर काबू में रखा. वे कांग्रेस की धारा बदलने पर उतारू न हुए. न अलग थलग पड़े, न इस्तीफा देना पड़ा. एक्सिस पॉवर्स के फेर में न पड़े. उनकी मौत के ड्रामा कभी हुआ ही नहीं.
और जब वे गांधी के आइडियल्स के साथ, लगातार भारत में रहते हुए आजादी की लड़ाई लड़ते रहे, तो बंगाल में उनके रहते, मुस्लिम लीग-हिन्दू महासभा को सत्ता कभी नहीं मिली. तो उस सरकार को दंगों में 3 दिन के लिए पुलिस के हाथ बांधने का अवसर न मिला. जिन्ना डायरेक्ट एक्शन डे करने में असमर्थ रहे.
इसलिए बंगाल से विभाजन की धारा निकलकर, पंजाब को नाहक बांटने का उद्यम नहीं कर पाई. सिंध, खैबर, बलूचिस्तान को अलग देश बनाने का बहाना, अंग्रेजो को नहीं मिला. कोई पाकिस्तान नहीं बना.
अंततः आजादी आई है. नेहरू 10 साल, कॉन्सटीयूटशन की रीढ़ मजबूत करने के बाद पीछे हटे. 60 बरस के सुभाष, अगले दस बरस के लिए देश की कमान सम्हाल रहे हैं. ये एक भारत है, श्रेष्ठता की ओर बढ़ता भारत है.
आजाद भारत में पहली बार कमान बदल रही है. दोनों नेता इस ऐतिहासिक अवसर पर कैमरे की ओर देखते हैं. जरा वृद्ध और उम्र की झुर्रियों थोड़ी गहराई के साथ…मगर उसी ओज, भरोसे और प्रेम से भरे मित्रों की, फिर एक बार वही तस्वीर है.
हां, यह मेरी विशफुल थिंकिंग है. हम जानते हैं, ऐसा नहीं हुआ. इतिहास वही लिखता है, जो हुआ. मगर जो नहीं हुआ, उसकी सम्भावनायें इस तस्वीर में जड़ी हैं. मानवीय स्वभाव, आक्रमकता, हॉट हेडेडनेस, एक्सट्रीम मेजर्स के प्रति आग्रह- सुभाष अगर इन मानवीय दुराग्रहों पर काबू पा लेते, तो इस उपमहाद्वीप के 200 करोड़ लोगों की जिंदगी कुछ और होती और वह मेरी निगाह में सुभाषचन्द्र बोस की सबसे खूबसूरत तस्वीर होती.
शहादत से बड़ा तमगा और कुछ नहीं
तो सुभाष बोस जैसे व्यक्तित्व की शानदार कहानी का सबसे शानदार अंत, उस गरिमामयी मृत्यु के साथ ही हो सकता था. याने गांधी का बुढ़ापे, या सर्दी खांसी से मरना वैसा दैवत्व नहीं देता, जो किसी गोडसे की गोली से बहता खून देता है.
सुभाष, यदि जीवित रहते, तो संकट बड़ा था. अगर न मरे हों, कहीं छुपकर रह रहे हों, तो भी नाजी एकोम्प्लीस होने का संकट निकल जाने के बाद, पकी उम्र में यही सोचे होंगे..कि उनके लेजेंड का सबसे शानदार अंत तो हो चुका है. क्यो ही उसे छेड़ा जाए !
और जो छेड़ने की कोशिश करते हैं, वे मूर्ख है. उन्हें चुपचाप यह मान लेना चाहिए… कि प्लेन दुर्घटना में 18 अगस्त 1945 को उनका लेजेंड समाप्त हो गया.
यह डेट बड़ी सुविधाजनक डेट थी. 6 और 9 को हिरोशिमा नागासाकी हो चुका था. याने जापान युद्ध हार चुका था. आजाद हिंद फौज के फौजी भाग रहे थे, सरेंडर कर रहे थे. कोई बैकअप नहीं था. तो सुभाष गुप्त यात्रा पर निकल गए. वह बड़ा ही गुप्तम गुप्त जहाज था, जिसका ट्रेवल प्लान किसी को नहीं पता था.
उनके साथ एकमात्र अंगरक्षक था. सेवक, कॉन्फिडॉन्ट, एकमात्र गवाह था. एक छोटी सी हवाई पट्टी थी. वहां जो थोड़े बहुत लोग थे, उनके कॉज के समर्थक थे.
15 को तो जापान ऑफिशियली सरेंडर पेपर साइन कर चुका था. अब उसके नेता वार क्रिमिनल बनकर फांसी चढ़ने वाले थे. सुभाष के मित्र, जापानी प्राइमिनिस्टर तोजो को युद्ध अपराध में फांसी लटका दिया गया, मालूम है न आपको ??
उधर जर्मनी तो 5 माह पहले ही नेस्तनाबूद हो चुका था. नाजी एकोम्प्लीस, सहयोगी, अफसर दुनिया भर में हंट किये जा रहे थे. नाम बदलकर कोई यूरोप में कहीं छुप रहा था, तो कोई अर्जेंटीना भाग रहा था. उसमें हर तीसरा नाजी, अपनी मौत की फर्जी खबर फैला रहा था. उसकी लाश या तो नदी में बह रही थी, विस्फोट में टुकड़े टुकड़े हो रही थी, या जल जा रही थी. सुभाष भी ऐसे ही मारे गए.
क्योकि वे संयोग से प्लेन में ऐसी जगह बैठे थे, जहां ऊपर पेट्रोल टैंक था. क्रेश में टैंक फटा, तो जलते तेल से वे ऐसे जल गए कि बॉडी पहचान नहीं हो सकी. ठिक्क है भई !
भईया, एक सिविलियन आदमी, जो जीवन भर नेतागिरी करता रहा…वो अपने ही घर में 3 माह रहकर, अपने घरवालों से न मिला. साधना की बात कहकर परदे के पीछे से बात करता, ताकि दाढ़ी बढ़ जाये, किसी को पता न चले.
फिर एक पठान, मोहम्मद जियाउद्दीन उनकी खिड़की से कूदकर, मोटर पे चढ़, खिड़की से कूद, 70 मील दूर एक बियाबान स्टेशन से ट्रेन में चढ़ता है. स्टेशन पर, बंगाल की स्कॉटलैंड यार्ड टाइप पुलिस, जियाउद्दीन को पहचान नहीं पाती और पठान बने सुभाष, देश भर की जीआरपी को चकमा देकर, कलकत्ता से पेशावर पहुंच गये.
याद रहे कि यह उस दौर की छुक छुक ट्रेन थी. सफर कई दिन का रहा होगा. इतने दिन नमाज भी पढ़ी होगी, असल उर्दू में बातचीत भी करते होंगे. फिर यह बन्दा गूंगा बहरा बनकर पूरा अफगानिस्तान पार कर गया. ताकि पश्तो न जानने के कारण, कोई उन्हें भाषा बोली से न पहचान सके.
काबुल में इटालियन एम्बेसी से बात न बनी, तो भाई यूरोप पहुंच गया. हिटलर से मिल लिया, फिर पनडुब्बी से जापान पहुंच गया. फिर सेना बना लिया. एक समूचे देश पे अटैक कर दिया. कैन यू बिलीव दिस..?
असल जीवन मे ऐसा या तो सुभाष कर सकते हैं, या इयन फ्लेमिंग के उपन्यासों में जेम्स बांड. ऐसा शख्स, एक सुविधाजनक डेट पर ऐसे मर जाये कि बॉडी को घड़ी से पहचाना जाये. आई डोंट बिलीव दिस…?
लेकिन, इफ़ यू लव सुभाष, बेटर बिलीव इट..क्योंकि सुभाष बोस जैसे व्यक्तित्व की शानदार कहानी का सबसे शानदार अंत, उस गरिमामयी मृत्यु के साथ ही हो सकता था.
- मनीष सिंह
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