आज हमारे देश का सामना जिस विकट परिस्थिति से है, उसके कारणों को समझने में कई बार हम इसलिए भी अक्षम हो जाते हैं कि बचपन से लेकर अब तक हमारा ध्यान ऐतिहासिक महापुरुषों की उदात्तता और उनके अवदान पर ही केन्द्रित रहा है, जैसे गौतम बुद्ध, सम्राट अशोक, बादशाह अकबर, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और डॉ. भीमराव अम्बेडकर वग़ैरह. इनकी रौशनी में हम अंधेरे में सक्रिय उन ताक़तों को देखने से चूक जाते हैं, जो शायद ज़्यादा असरदार थीं और कालान्तर में निर्णायक साबित हुईं. आज सत्ता-प्रतिष्ठान पर उन्हीं का आधिपत्य है.
ईसा से 185 बरस पहले सम्राट अशोक के पौत्र वृहदरथ मौर्य का साम्राज्य जब कमज़ोर पड़ा और यूनान की तरफ़ से भारत की पश्चिमी सीमा पर हमले होने लगे, तो उनके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने हालात का फ़ायदा उठाकर बग़ावत कर दी और राजा की हत्या करके स्वयं सिंहासन पर बैठा. वह सामवेदी ब्राह्मण था और उन ब्राह्मणों का प्रतिनिधि, जो सम्राट अशोक द्वारा बौद्ध धर्म अपनाए जाने से बहुत नाराज़ थे.
बौद्ध धर्म के समता के सिद्धान्त से वर्ण-व्यवस्था का शीराज़ा बिखर रहा था और ब्राह्मणों का यह भी कहना था कि अहिंसा से राज्य की शक्ति कम होती है इसलिए पुष्यमित्र शुंग ने बड़े पैमाने पर बौद्ध स्तूपों और विहारों का विध्वंस और बौद्ध भिक्षुओं का क़त्लेआम करवाया. उसने बाक़ायदा राजकीय घोषणा कर रखी थी कि जो बौद्ध भिक्षु का सिर काटकर लाएगा, उसे इतने दीनार का इनाम दिया जाएगा. नतीजे के तौर पर बड़ी संख्या में बौद्ध या तो मारे गए या तिब्बत, श्रीलंका, बर्मा (म्यांमार), जापान, थाईलैंड, कम्बोडिया जैसे देशों की ओर पलायन कर गए.
बौद्ध धर्म के प्रभाव के कारण जो कर्मकांड, ऊंच-नीच और बलिप्रथा कमज़ोर पड़ी थी, पुष्यमित्र ने उन सबको ज़बरदस्त प्रोत्साहन दिया. डॉ. राम पुनियानी कहते हैंं, ‘उसने दो बार अश्वमेध यज्ञ किए, यह जताने के लिए कि हमने बौद्ध धर्म पर संपूर्ण विजय प्राप्त कर ली है.’ बाद में पुष्यमित्र का ही अनुसरण करते हुए राजा शशांक ने बौद्ध धर्म से प्रतिशोध के तौर पर उस बोधिवृक्ष को ही कटवा डाला, जिसके नीचे बुद्ध को सत्य की प्राप्ति हुई थी. बौद्ध ज़्यादातर पूर्वोत्तर राज्यों और हिमालय की तलहटी में ही सीमित हो गए.
पुष्यमित्र शुंग ने ही अपने कार्यकाल में ‘मनुस्मृति’ की रचना करवाई, जिसमें तथाकथित निचली जातियों और स्त्रियों को कठोर अनुशासन में रखने और इसे न मानने पर दंडित करने के प्रावधान किए गए. आधुनिक काल में भी दक्षिणपंथी ताक़तें भारतीय संविधान के स्थान पर ‘मनुस्मृति’ को ही प्रतिष्ठित करना चाहती हैं.
डॉ. अम्बेडकर ने लिखा है कि भारतीय इतिहास का प्रमुख अन्तर्विरोध हिन्दू-मुस्लिम नहीं, बल्कि बौद्ध धर्म और ब्राह्मणवाद के बीच रहा है. मुस्लिम शासकों का ब्राह्मणवाद से न सिर्फ़ यह कि विरोध नहीं रहा, बल्कि ब्राह्मण उनके राजकाज में शामिल रहे. पंडितराज जगन्नाथ इसके प्रमुख उदाहरण हैं, जो शाहजहां के राज्यकाल में उनके राजपंडित और दाराशिकोह की हत्या तक (1659 ई.) उनके घनिष्ठ मित्र रहे.
अम्बेडकर मानते हैं कि गौतम बुद्ध का आना क्रांति है, तो पुष्यमित्र शुंग का अभ्युदय प्रतिक्रांति. उसके बाद का इतिहास कम-से-कम उत्तर भारत में ब्राह्मणवाद या सनातन धर्म के वर्चस्व का इतिहास है. इसी से आहत होकर अम्बेडकर ने 13 अक्टूबर, 1935 को नासिक के निकट येवला में एक सम्मेलन में एलान किया, ‘हालांकि मैं एक अछूत हिन्दू के रूप में पैदा हुआ हूं, लेकिन मैं एक हिन्दू के रूप में हरगिज़ नहीं मरूंगा !’
…और सचमुच डॉ. अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म में समय के साथ जुड़ी रूढ़ियों तथा अंधविश्वासों और इसकी महायान तथा हीनयान जैसी शाखाओं को अस्वीकार करते हुए ‘नवयान बौद्ध धर्म’ की स्थापना की और 14 अक्टूबर, 1956 को दीक्षाभूमि, नागपुर में अपने लगभग पांच लाख अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अंगीकार किया. तब से आज तक हर साल उनके हज़ारों समर्थक बौद्ध धर्म की दीक्षा लेते हैं. इसी बदौलत आज भारत में ‘नवयान’ के नब्बे प्रतिशत अनुयायी केवल महाराष्ट्र में रहते हैं.
इस सबके बावजूद आपको जानकर हैरत होगी कि आज पूरे भारत में बौद्धों की जनसंख्या मात्र 85 लाख है, जो कुल आबादी का केवल 0.7 प्रतिशत है. यह आश्चर्य तब और बढ़ जाता है, जब आपको पता चलता है कि अपनी जन्मभूमि में भले बौद्ध धर्म का यह हाल हो, लेकिन आज दुनिया का वह चौथा सबसे बड़ा धर्म है, उसके अनुयायी लगभग 52 करोड़ हैं, जो विश्व की कुल आबादी का लगभग सात प्रतिशत है.
इसी परिदृश्य का दूसरा पहलू यह है कि कांग्रेस का नेतृत्व जब लोकमान्य तिलक के बाद महात्मा गांधी को मिला, तो तिलक के साथी रहे बालकृष्ण शिवराम मुंजे ने ब्राह्मण वर्चस्व की अपनी मानसिकता के कारण कांग्रेस छोड़ी और हिन्दू महासभा में शामिल हुए, जिसके 1927-28 में वह अध्यक्ष रहे और अपने बाद इसका नेतृत्व उन्होंने सावरकर को सौंप दिया. मुंजे की प्रेरणा से ही 1925 में केशव बलिराम हेडगेवार ने आरएसएस की स्थापना की.
30 जनवरी, 1948 को जब नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या की तो इस षड्यंत्र में शामिल ताक़तों ने ही अपनी खाल बचाने के लिए कहा कि गोडसे का उनसे कोई सम्बन्ध नहीं है और यह भी कि वह तो सिरफिरा है. इसका प्रतिवाद करते हुए राहुल सांकृत्यायन ने आत्मकथा में लिखा है कि ‘गोडसे कोई पागल या सिरफिरा नहीं, बल्कि ब्राह्मणवादी शक्तियों का प्रतिनिधि था.’
- पंकज चतुर्वेदी
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