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कानून में दम तब है जब वह संकल्पवान लोगों से जुड़ कर चलता है

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कानून में दम तब है जब वह संकल्पवान लोगों से जुड़ कर चलता है

गांधीवादी, अंबेडकरवादी, मार्क्सवादी सब इस लेख को जरूर पढ़ें. उत्तर प्रदेश में हेमवती नंदन बहुगुणा के समय सीलिंग की जमीन भूमिहीनों में बांटने के लिए एक भूमि व्यवस्था समिति का गठन किया गया था. गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता रमेश श्रीवास्तव ने सरकारी जमीनों को भूमिहीनों में कैसे बंटवाया, उनकी जीवन संगिनी उर्मिला बहन की कलम से निकली यह लेखनी पढ़िए.

लेकिन उर्मिला बहन का यह लेख पढ़ने से पहले यह जानना जरूरी है कि नेहरू के आग्रह पर गांधी जी के अध्यात्मिक उत्तराधिकारी आचार्य विनोबा भावे ने जमीन की समस्या हल करने के लिए भूदान आंदोलन शुरू किया था.

विनोबा भावे 12 साल तक पैदल-पैदल देशभर में घूमे थे. उन्हें 45 लाख एकड़ जमीन दान में मिली थी. विनोबा भावे से लोग कहते थे कि आप क्यों पैदल पैदल घूम रहे हैं ? नेहरू से कहकर कानून बनवा कर जमीन ले लीजिए.
विनोबा कहते थे खेत में ट्रैक्टर ले जाना हो तो पहले मेड़ काटकर रास्ता बनाना पड़ता है, मैं रास्ता बना रहा हूं. सरकार पीछे-पीछे आएगी.

विनोबा के भूदान आंदोलन के बाद देश में सीलिंग का कानून बना और एक सीमा से ज्यादा जमीन रखने पर रोक लगाई गई. इंदिरा गांधी ने 20 सूत्री कार्यक्रम में इन सीलिंग की जमीनों को भूमिहीनों को बांटने का कार्यक्रम बनाया. उत्तर प्रदेश में वह जमीन कैसे बांटी गई उसका अनुभव सुनिए. गांधी का रास्ता किस तरह समाज को बदल सकता है, यह उसकी कहानी है.

हिम्मत और कानून

आवंटन के इतने अनुभव हैं कि इसी की पूरी किताब बन जाये और बढ़िया साहित्य साबित हो. तो हम लोग अलग अलग जनपदों में थे और युद्व स्तर पर पूरे सूबे में आवंटन का काम चल रहा था. कौन कहां भेजा जाएगा, जिले से आई डिमांड पर निर्भर करता था. महीनों हम सबको घर आने का समय नहीं मिलता था.

इधर हमारे यहां भी जमीन का आवंटन होना था. सुना था बड़ी मुश्किल से हो पाया था. इसमें सीनियर ऑफिसर इन्वॉल्व थे. पर काम अधूरा इसलिए रहा था क्योकि आवंटियों को कब्जा नहीं मिल रहा था. जिन व्यक्ति की जमीन थी वो उस जमीन पर कब्जा छोड़ना नहीं चाहते थे और धमकी खाने के बाद लेखपाल की हिम्मत दुबारा इस गांव में आने की हो नहीं रही थी.

ऐसा नहीं कि लेखपाल आया न हो. वो आया था, कुछ जमीन नापी थी पर धमकी मिलने से, डर कर,चला गया था, फिर कई बार बुलाने पर भी नहीं आया था. खबर ऊपर तक पहुंची थी. हम सबके लिए शर्मिंदगी की बात थी. रमेश जी गांव में आये, सब से कहा –

‘आज रात में जमीन नापी जाएगी !’

‘रात में जमीन नापी जाएगी. रात में कैसे ?’

लोग आश्चर्य व्यक्त कर रहे थे. तब बिजली नहीं थी गांव में. वो तो आगे के पचीस साल बाद आई. तो चूंकि रमेश जी ने कहा था तो गरीब आवंटी तो उम्मीद में और बाकी लोग उत्सुकता वश शाम होते ही आवंटित जगह पर इकट्ठे हो गए.

जमीन जिनको एलाट हुई थी उनको फावडे लेकर आने को कहा गया था, वो फावडे समेत मौजूद थे. कई आवंटी लोग तो अपने अपने भाई बंधुओं के साथ कई कई फावड़ों के साथ मौके पर मौजूद थे.

रमेश जी लेखपाल को, नापने के उपकरणों के साथ उसके घर से लेकर जीप पर बिठाकर सूरज ढलने के समय गांव में पहुंचे.

आशंकित और आशान्वित लोग शाम से इंतजार कर रहे थे. तब तक सबसे बात करते करते रात हो गई थी. फिर जीप की हेड लाइट जलाई गई. उस रोशनी में लेखपाल ने लोगों की जमीन नापी.

जमीन नपती जाती और नपने के तुरंत बाद एलाटी लोग मेड़ बनाना शुरू कर देते.

अब आबंटियों के घरों की महिलाएं एवं अन्य लोग अपने अपने घरों से कुप्पी, लालटेन, लैंप, टार्च, जो था उनके घरों में वो, जला कर लाने लगे थे.

किसी ने बीच में विनोबा गांधी, भारतमाता की जय के नारे भी लगाने शुरू कर दिए थे. वो लगते जा रहे थे और काम होता जा रहा था.

निराशा और अन्याय का अंधेरा छंट रहा था और उम्मीद की किरणें उन छोटे छोटे उजालों के रूप में बिखर रही थीं. अब उनको किसी का भय नहीं था. लोगों के हाथ तेजी से मशीन की तरह चल रहे थे.

क्यों न चलते इस क्षण की उन्होंने आजीवन प्रतीक्षा की थी. उनके पुरखे इस दुनिया मे आये और बगैर जमीन की ओनरशिप के दुनिया से बिदा हो गए, दूसरे के खेतों में मजदूरी व बेगार करके, अपनी जमीन का सपना देखते देखते.

दरअसल गांव में जो व्यक्ति रहता है और उसके पास अपनी जमीन नहीं होती वो कसक व दर्द उसके सिवाय कोई और जान ही नहीं सकता.

तो रात के दूसरे पहर तक सबने अपनी अपनी मेड़ें बांध ली थी. आश्वस्त रमेश जी 25 किलोमीटर वापस हरदोई लौटे थे. सरकारी जीप वापस करनी थी. और अगले दिन शाम को ‘रमेश को देख लेने’ की धमकी देकर वे दरवाजे से वापस जा चुके थे. पर नैतिक शक्ति, जन शक्ति, शासन शक्ति और रमेश जी के व्यक्तित्व की दृढ़ता ने धमकी देने वाले सज्जन को भविष्य में इनसे बोलचाल की पहल के लिए मजबूर कर दिया.

पहले भी रमेश जी के लिए न वो कभी दोस्त रहे थे न दुश्मन. वो पहले भी सामने पड़ने पर वरिष्ठ होने के नाते उनके पैर छूते थे और बाद में भी छूते रहे. औऱ सच में व्यक्तिगत राग द्वेष किससे ?

ये व्यक्ति से नहीं उन मानसिकताओं से लड़ाई थी जो जमीन को उसकी सेवा औऱ उपज की प्राप्ति से नहीं बल्कि उन पर अधिकार भावना से हक जताने के लिए अपने पास रखना चाहते थे. ये आवंटन समय की करवट थी, उन सबको बताने के लिए जो धरती के मालिक कहलाना चाहते थे, अब भी चाहते हैं जबकि दुनिया में सब धरती पुत्र हैं, ये मां सबका ही पेट भरती है.

ये सिद्धांत की लड़ाई थी जो लड़ी गई थी और जारी थी. इस घटना में कुछ नया नहीं था। कमोबेश ऐसी न्याय की लड़ाई हर कार्यकर्ता अपने मोर्चे पर रोज लड़ रहा था. कमोबेश ये सबके रोज के अनुभव थे.

किसी समय जमीन के लिए लड़ा जाने वाला महाभारत अब पुराने शासक रह चुके के मनों को कमजोर कर रहा था. सीलिग एक्ट का मतलब वो समझ पा रहे थे. कानून उनके खिलाफ था तो वो कमजोर पड़ चुके थे.

कानून में भी दम तो है. पर कानून में दम तब है जब वह संकल्पवान लोगों से जुड़ कर चलता है.

  • हिमांशु कुमार

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