जगदीश्वर चतुर्वेदी
हलवाई के बिना बाजार और जीवन में मजा नहीं है. हलवाई हमारे बाजार की शोभा हुआ करते थे, उनसे ही बाजार या इलाके की पहचान थी. छोटे शहरों में हलवाई लोकल पहचान का संकेत था. हलवाई को मैं समानान्तर बाजार मानता हूं. एक तरफ विभिन्न किस्म के दुकानदार और दूसरी ओर हलवाई की दुकान. हलवाई लंबे समय से बाजार के परंपरागत खाद्य उद्योग की धुरी रहा है. हलवाई कब दुकान पर आया, कब घर तक चला आया और कब हलवाई का सामाजिक कायाकल्प हो गया, हमने कभी ध्यान ही नहीं दिया.
भारत में हलवाई परिवार की रसोई और मेहमाननबाजी का भागीदार होकर आया. जब भी पहला हलवाई आया होगा, वह निश्चित तौर पर प्रगतिशील रहा होगा. घर के बाहर हलवाई की बनी चीजें खाना या उन चीजों को घर में लाकर खाने की परंपरा तब ही आई होगी, जब हमारे समाज के कुछ अतिरिक्त धन बचता होगा. हलवाई की बनी चीजें पुराने वर्णसमाज के तंत्र, मूल्यबोध और तयशुदा आदतों को तोड़ने में मदद करती रही हैं.
हलवाई ने भोजन की निजता में एक नयी कोटि भोजन की सामाजिकता को शामिल किया. हमारे यहां भोजन निजी होता था और निजी व्यक्ति के विस्तारित संबंधों को ही हम दावतों में बुलाकर सामाजिकता निभाते थे लेकिन हलवाई की बनी चीजों के आने के साथ सामाजिक जीवन और खासकर जीवनशैली में धीमी गति से परिवर्तनों की शुरुआत होती है.
हलवाई कहने को वैश्यजाति का अंग रहा है लेकिन हलवाई का काम और तंत्र जिस तरह जीवनशैली, खानपान और पापुलर कल्चर को प्रभावित करता रहा है, उसकी कभी हमने विस्तार से मीमांसा ही नहीं की. हलवाई मतलब खाने की वस्तुओं का दुकानदार.
हलवाई का व्यापार सबसे पुख्ता व्यापार रहा है. यह विकेन्द्रित और छोटी पूंजी से आरंभ होने वाला कारोबार है. मसलन् कचौडी की दुकान खोलने के लिए बहुत बड़ी पूंजी की आज भी जरुरत नहीं पड़ती. विकेन्द्रीकृत ढ़ंग से इसने आम जनता के स्वाद को बदला और नवीकृत किया. हलवाई को जनता के स्वाद का बादशाह कहना अतिशयोक्ति नहीं है.
एक हलवाई अपने माल के जरिए मुनाफा कमाने के साथ अभिरुचि और स्वाद का भी निर्माण करता है. सबसे अच्छा हलवाई वह माना जाता है जिसके माल के स्वाद को आप बार-बार महसूस करें और लौटकर उसकी दुकान पर आएं. हलवाई की रिटर्न अपील बहुत ही महत्वपूर्ण होती है. वह अपने अपभोक्ता को बांधता है और उसकी रुचि को स्टीरियोटाइप होने से बचाता है.
हलवाई का काम पेसन का काम है. हलवाई के पकवान हमारी खाद्य अभिरुचि को सीधे प्रभावित करते हैं. हलवाई का सबसे बड़ा आनंद यह है कि यह अनौपचारिक खानपान को बढ़ावा देता है. खाने में हम जितना अनौपचारिक होंगे उतने ही बेहतर सामूहिक मनुष्य होंगे. खानपान में हम जितने संगठित और औपचारिक रहेंगे उतने ही एकांतवासी होंगे. हलवाई के खाने में बाजार की ध्वनियों और खुली हवा की गंध रहती है. वहां रेस्तरां की तरह तयशुदा धुनें और गंध नहीं तैरती.
हलवाई खुलेपन को लेकर आया. खानपान में खुलेपन को लेकर आया. रेस्तरां ने खानपान को बंद रेस्तरां का खाद्य बना दिया. हलवाई ने समाज में खुलेपन और लिबरल माहौल को पैदा किया. वह बाजार में जीवनशैली को प्रभावित करने वाले प्रमुख कर्ता के रुप में दाखिल हुआ.
हलवाई गतिशील है. वह जड़ नहीं है. गतिशील हलवाई हमेशा नए पर नजर रखता है. जड़ हलवाई यथास्थितिवादी होता है. वह दसियों साल एक जैसा सामान बेचता रहता है. गतिशील हलवाई सामान की लिस्ट बढ़ाता जाता है, अपनी इमेज का नए युग के साथ रुपान्तरण करता जाता है. भारत के हलवाई आज से तीस साल पहले तक लोकल थे लेकिन विगत तीस सालों में इन्होंने अपने को बाजार निर्माण की नयी प्रक्रियाओं से जोड़ा है. अपने को लोकल से ऊपर उठाकर क्षेत्रीय-राष्ट्रीय और ग्लोबल बनाया है.
हलवाई कल तक लघु व्यापार था लेकिन विगत चार दशकों में इसने उद्योग की शक्ल ले ली है. एक-एक हलवाई के यहां सैंकड़ों–हजारों लोग काम कर रहे हैं. हल्दीराम से लेकर भीखाराम तक अनेक देशज हलवाई पूरे देश में मिल जाएंगे और इनकी ग्लोबल शाखाएं भी मिल जाएंगी. हलवाईयों का कारोबार खरबों रुपये का है. हलवाई उद्योग मूलतः राष्ट्रीय उद्योग है, जिसका बहुराष्ट्रीय खाद्य कंपनियों से सीधा मुकाबला है.
फुचका गरीब की रसोई का विस्तार है
इसी तरह गोलगप्पे का भी कोई जवाब नहीं है.कहने को कुटीर उद्योग में है पर राष्ट्रीय स्तर पर इसकी स्थिति भोजन उद्योग में महत्वपूर्ण स्थान रखती है. तमाम बहुराष्ट्रीय ब्रांड इसके सामने पानी भरते हैं.
कोलकाता आएं और फुचका न खाएं, यह हो नहीं सकता. कोलकाता में रहें और फुचका न खाएं, यह भी हो नहीं सकता. फुचका के खोमचे पर जाएं और औरतें नजर न आएं, यह भी हो नहीं सकता. फुचका वाला किसी कच्ची बस्ती में न रहता हो, यह भी हो नहीं सकता. दिल्ली में इसे गोलगप्पे कहते हैं और मैं जब मथुरा रहता था तो वहां टिकिया कहते थे. शाम को अमूमन टिकिया खाने की आदत सी पड़ गयी थी. मैं आज भी गोलगप्पे को टिकिया कहता हूं.
कोलकाता की पहचान में जहां एक ओर लालझंडा है, छेना की मिठाई और रसगुल्ला है, वहीं दूसरी ओर फुचका भी है. फुचका बनाने और बेचने वाले अधिकांश लोग हिन्दीभाषी हैं. जिह्वा सुख के लिए, स्वाद को चटपटा बनाने या मोनोटोनस स्वाद से छुट्टी पाने के लिए जब भी कुछ चटपटा-खट्टा खाने की इच्छा होती है, फुचका मददगार साबित होता है.
फुचका औरतों का प्रिय खाद्य है, इसलिए इसके साथ जेण्डर पहचान भी है. फुचका शौकीनों में औरतों की संख्या ज्यादा है. मैं नहीं जानता कि बाजार में बिकने वाले अन्य किसी खाद्य के साथ जेण्डर पहचान इस तरह जुडी हो. औरतों के साथ फुचका का जुड़ना कई मजेदार पहलुओं की ओर ध्यान खींचता है.
आमतौर पर औरतें घरेलू काम करते और घरेलू भोजन खाते हुए बोर हो जाती है और स्वाद बदलने के लिए पुचका खाती हैं. फुचका भोजन नहीं है. यह दोपहर के खाने और शाम के नाश्ते के बीच का लघु नाश्ता है. यह अंतराल में भूख या स्वाद को जगाने के लिए लिया जाने वाला खाद्य है. फुचका पूरी तरह लघुव्यापार है और लंबे समय तक इसी अवस्था में इसके बने रहने की संभावनाएं हैं. यदि आप अपने शहर को देखें तो पाएंगे कि वहां क्रमशः फुचका की खपत बढ़ी है.
यह छोटी पूंजी का व्यापार है और ऐसे लोगों का व्यापार है जो कच्ची बस्ती या झुग्गी-झोंपडियों में रहते हैं. फुचका की बढ़ती खपत ने बड़े हलवाईयों को भी गोलगप्पे बेचने के लिए मजबूर किया है. फुचका इस बात का भी संदेश देता है कि हमारे समाज में चटपटे और खट्टे भोजन की मांग लगातार बढ़ रही है. अनेक लोग इसके अस्वास्थ्यकर होने की बातें भी कर रहे हैं, इसके बावजूद फुचका खाने वालों की संख्या में लगातार इजाफा हुआ है.
फुचकावाला जानता है उसका कितना माल आमतौर पर रोज खप सकता है. पुचका के व्यापार में रिस्क कम है, बशर्ते फुचका बढ़िया खिलाएं. फुचका पर्यावरण फ्रेंडली खाद्य है. इसके बनाने और बेचने में घर के लोग ही मदद करते हैं, इस अर्थ में फुचका गरीब की रसोई का विस्तार है. फुचका खाते हुए हम सब जाने-अनजाने गरीब के स्वाद में शिरकत करते हैं. गरीब के स्वाद में खूब लाल और हरी मिर्च और तीखापन होता है.
फुचकावाले की खूबी है कि वह स्वाद को नियंत्रण में रखता है. आप जैसा और जितना तीखा-चटपटा खाना चाहते हैं, वह खिलाएगा. हर खाने वाले के स्वाद के वैविध्य की वह कदर करता है और स्वाद को मांग के अनुरुप ढाल देता है. इस अर्थ में फुचकावाला मुझे ज्यादा खुला, लोकतांत्रिक लगता है. वह हलवाई से भिन्न है. हलवाई इकसार स्वाद का मास्टर होता है जबकि फुचकावाला स्वाद का नियंत्रक और लोकतांत्रिक होता है. फुचका का सिस्टम जोखिम मुक्त और पर्यावरण फ्रेंडली होता है.
फुचका की सामान्य विशेषता है कि यह स्वाद के मानकीकरण का निषेध करता है. यह निषेध इसमें अन्तर्निहित है. यही वजह है कि फुचका हर इलाके में और अलग-अलग फुचकावाले के यहां भिन्न स्वाद में मिलेगा. यह स्वाद की भिन्नता फुचका से इतर सामग्रियों की प्रकृति पर निर्भर करती है. इसके कारण ही फुचका के स्वाद का खाने के पहले अनुमान नहीं कर सकते.
फुचका वाला आमतौर पर पब्लिक स्पेस में खड़ा रहता है. पब्लिक स्पेस में अनौपचारिक ढ़ंग से खाने की आदत के विकास में फुचका की बड़ी भूमिका है. भोजन की अनौपचारिकता हमें ज्यादा मानवीय बनाती है. इस अर्थ में फुचकावाला इंसानियत के कम्युनिकेशन और लिंक का काम भी करता है.
Read Also –
काग़ज़ के दोने
भोजन की बहुतायत के बावजूद विश्वव्यापी भुखमरी
गाय : भारतीय अदालती-व्यवस्था का ग़ैर-जनवादी रवैया
कॉरपोरेट्स के निशाने पर हैं आदिवासियों की जमीन और उनकी संस्कृति
[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]