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लकड़बग्घा हंस रहा है…

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लकड़बग्घा हंस रहा है...
लकड़बग्घा हंस रहा है…

फिर से तपते हुए दिनों की शुरूआत

हवा में अजीब सी गन्ध है

और डोमों की चिता
अभी भी दहक रही है,

वे कह रहे हैं
एक माह तक मुफ्त राशन
मृतकों के परिवार को

और लकड़बग्घा हंस रहा है…

हत्यारे सिर्फ मुअत्तिल आज
और घुस गये हैं न्याय की लम्बी सुरंग में
वे कभी भी निकल सकते हैं साबुत
और किसी दूसरे मुकाम पर
तैनात खुद मुख्त्यार
कड़काते अस्पृश्य हड्डियों को
हंस सकते हैं
अपनी सवर्ण हंसी…

उनकी कल की हंसी के समर्थन में

अभी लकड़बग्घा हंस रहा है

जुल्म के पहाड़ों को
पुख्ता कर रहे हैं
कमजोर अस्थि पंजर
अनपढ़ आंखों में थरथराते
इतिहास के भयभीत साये

जबकि यह गांव में
विलाप की रात है

और चारों औरतें
अपने तेरह बच्चों के साथ
छाती कूटती हुई
फोड़ती हुई चूड़ियां
अपने रुदन से
भय की छाया को गाढ़ा करती हुई…

और पागल कुत्तों के दांत
अंधेरे के भीतर
वक्त की पिण्डली पर,

तभी वह आता है
आकाश और हवा से होता हुआ
सूक्ष्म राजदूत

और देश भर के कान में
सगर्व करता है घोषणा-
चारों रांडों को
बच्चों समेत
एक माह मुफ्त राशन

तीस दिन दोनों जून
बिन चुकाए भकोस लेंगे तेरह$चार

और देश के नाभि-केन्द्र में
गांवों की सरहदों के पास
बच्चों के सपनों को आतंकित करता

लकड़बग्घा हंस रहा है…

घिग्घी बंध गयी थी जो नदियों की
खुल गयी
दिल का दौरा पड़ा था देश के पहाड़ों को
हुआ दुरूस्त
कितनी बड़ी राहत की सांस ली
अवसन्न पड़े पठारों ने…

लाशों की राख को
ठिकाने पहुंचा
अब इस सगर्व राहत उपचार के बाद
प्रश्न उठा क्या विलायत के गोरों को
हरा देंगे हाकी में भारत के शूरवीर ?

और मैं…
मैं फिर से खड़ा हूं
इस अंधेरी रात की नब्ज को थामे हुए
कह रहा हूं-
ये तीमारदार नहीं
हत्यारे हैं, और वह आवाज
खाने की मेज पर
बच्चों की नहीं
लकड़बग्घे की हंसी है….

सुनो….

यह दहशत तो है
लेकिन चुनौती भी

लकड़बग्घा हंस रहा है…

  • चंद्रकांत देवताले

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