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भाजपा जो फसल काट रही है, वह ‘गीता प्रेस’ ने तैयार की है

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भाजपा जो फसल काट रही है, वह 'गीता प्रेस' ने तैयार की है
भाजपा जो फसल काट रही है, वह ‘गीता प्रेस’ ने तैयार की है
सत्यवीर सिंह

महात्मा गांधी के विचारों का प्रसार करने के लिए, 1995 में शुरू हुआ, 2023 का ‘गांधी शांति पुरस्कार’, गीता प्रेस गोरखपुर को मिलेगा. ‘अहिंसा के गांधीवादी तरीके से, समाज में, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक बदलाव लाने के, शानदार योगदान के लिए, इस पुरस्कार के लिए गोरखपुर की ‘गोता प्रेस’ को चुना गया है’, ये घोषणा, 5 सदस्यीय जूरी के अध्यक्ष, प्रधानमंत्री मोदी ने, 2 जून को की.

इस पुरस्कार में 1 करोड़ रुपये नकद और प्रशस्ति पत्र दिया जाता है. जैसा कि ‘फासिस्ट मोदी सरकार के काम करने का तरीका है; जूरी में प्रमुख विपक्षी दल की हैसियत से सदस्य, अधीर रंजन चौधरी का कहना है कि उन्हें चयन की प्रक्रिया का हिस्सा बनाने का अवसर ही नहीं मिला. ‘गीता प्रेस, गोरखपुर’ ने देश के ‘चुहुंमुखी विकास’ में क्या करिश्माई योगदान किया है, देश को जुरूर जानना चाहिए.

‘भगतसिंह की फांसी की खबर, उसके अगले दिन पता चली थी. सारे गांब में रोटी नहीं बनी थी, मानो वह हमारे ही गांव का रहने वाला हो”, बचपन में दादी जी द्वारा सुनाई, शहीद-ए-आजूम भगतसिंह के बलिदान की ऐसी कहानियों ने, जहनियत पर बहुत गहरा और अमिट प्रभाव डाला है. बचपन में ही, शिवरात्री पर लगने वाले मेले से खरीदा, भगतसिंह का वह पहला पोस्टर आज भी याद है. भगतसिंह पीली पगड़ी पहने हुए, चंद्रशेखर आजाद आधे नंगे बदन पर मोटी जनेऊ प्रमुखता से दिखती हुई, धोती में पिस्तौल खोंसे और साथ में तलवार लिए घोड़ों पर सवार, शिवाजी और महाराणा प्रताप और सबसे ऊपर लहराता हिंदुत्व का भगवा झंडा !! उस समय कूछ समझ नहीं आया.

‘गोरखपुर की गीता प्रेस’ की ये करामात, बड़ा होने पर समझ आई. ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’  लिखने बाले, फिरकापरस्त सोच पर, बिना लाग-लपेट कड़ा प्रहार करने बाले, मार्क्सबादी-लेनिनवादी, शहीद-ए-आजम भगतसिंह, वह शख्श, जिसने फांसी का फंदा गले में डालते बक्त भी ईश्वर/ बाहे गुरु का नाम लेने से दृढ़ता से मना कर दिया था और ‘एचएसआरए के उनके कमांडर-इन-चीफ आजाद को, ‘सनातनी हिंदुत्व’ के भगवा झंडे के नीचे लाने और उनकी सेक्युलर, वैज्ञानिक, तर्कपूर्ण सोच को विकृत कर डालने का काम आसान नहीं था, जिसे, दुनिया भर में सनातनी हिंदुत्व का प्रचार-प्रसार करने को समर्पित ‘गीता प्रेस’ ने कितनी आसानी से कर डाला !! कोई बारीकी से ना सोचे तो ये शैतानी, समझ ही नहीं आएगी. मोदी सरकार, गीता प्रेस को गांधी पुरस्कार से ना नवाजती, तो भला किसे नवाजती ?

इस देश में झूठ, पाखंड, कूपमंड्कता, गपोड़पंथ, घोर स्त्री-विरोधी, दलित विरोधी, मुस्लिम विरोधी विचार और हिंदू मजहबी जहालत को फैलाकर, सफेद झूठ को सच के मुकाबले कहीं अधिक बलवान बनाने में गोरखपुर की गीता प्रेस का योगदान आरएसएस से भी ज्यादा है. बांकुरा, पश्चिम बंगाल के रहने वाले, मारवाड़ी व्यापारी, ‘जयदयाल गोयन्दका’ ने अपने मित्र घनश्याम दास जालान की मदद से, ‘गीता प्रेस’ की स्थापना गोरखपुर शहर में, 1923 में की.

सूत, कपड़े, बर्तन और केरोसिन के व्यापारी, इस मारवाड़ी सेठ का माल देश भर में जाता था. हर शहर में होने वाली सत्संग, पूजा-पाठ की उन्हें जानकारी थी, इसलिए सनातन धर्म फैलाने वाली, इस संस्था का नेटवर्क देशभर में जमने में वक्त नहीं लगा. किसी भी ब्रांड का हो, मजहब का प्रचार-प्रसार करने वाली संस्थाओं को पैसे की किल्तत कभी नहीं होती. पगार में एक नया पैसा बढ़ाने की मांग करने वाले मजदूरों को, पुलिस से कूटवाने वाले, मारवाड़ी सेठों के सरगना, बिड़ला को, हर शहर में भव्य बिड़ला मंदिर बनवाने से पहले सोचना नहीं पड़ता. देखते ही देखते, गीता प्रेस के तंतु देशभर में फैल गए.

सनातन धर्म के नाम पर, मजहबी जहालत के प्रचार-प्रसार की इस फैक्ट्री के प्रोडक्शन पर नजर डालेंगे, तो सर चकरा जाएगा. तुलसीदास की रामचरित मानस, 3.5 करोड़; भगवत गीता- 66 करोड़; रामचरित मानस की कुल 10 लाख प्रतियां हर साल, सनातन धर्म फैलाने की मासिक पत्रिका ‘कल्याण’, जो 1926 से लगातार प्रकाशित हो रही है, की कूल 1.6 लाख प्रतियां हर माह खपत होती है.

गीता प्रेस के प्रवक्ता कहते हैं कि आजकल तो इतनी डिमांड है कि हम पूरी ही नहीं कर पा रहे हैं. 2022 -23 में गीता की रिकॉर्ड 2.4 करोड़ प्रतियां बेचकर 111 करोड़ रू. बनाए. कोरोना काल में, जब बाकी प्रेस बंद पड़ी थीं, गीता प्रेस दिन-रात दनदना काम कर रही थी. देश-विदेश में गीता प्रेस स्वामित्व की कुल 20 विशाल दुकानें, और लालाओं की 2500 निजी दुकानें है. अब तक, 15 भाषाओं में, सनातन धर्म की, 850 पुस्तकों की कुल 93 करोड़ प्रतियां बिक चुकी हैं. इस बारूद रूपी ‘धार्मिक साहित्य’ को बेचने वाली, चलती-फिरती गाड़ियों और उनके कारिंदों की तो गिनती करना ही संभव नहीं है.

कार्ल मार्क्स ने, धर्म को अफीम, यूं ही, बे-वजह नहीं कहा था. मजहबी नशे का पहला हमला, तर्कपूर्ण सोच और जो कुछ भी घट रहा है, उसका कारण जानने की इच्छा पर होता है. गीता प्रेस नाम की सनातन फैक्ट्री अगर 100 साल से अपनी पूरी क्षमता पर, उत्पादन  ना कर रही होती और उसके उत्पाद की खपत सारे देश में ना हो रही होती, तो लोग सवाल करते कि हुकूमत जिसे ‘अमृतकाल’ बता रही है, उसमें 80 करोड़ लोग, दो जून की रोटी का जुगाड़ करने लायक भी क्यों नहीं बचे ? मोदी कीर्तन में शामिल होने की बजाए, ऊंची आवाज में, एक सुर में बोलते कि मोदी जी, ये तो अडानी-अम्बानी का ‘अमृत काल’ है, हमारा तो ‘मृत काल’ है !! आप हमें धोखा दे रहे हैं !! आप किसके हित में, 18-18 घंटे काम कर रहे हैं ?

सवाल करने वालों से हुकुमतें बहुत डरती है. मारवाड़ी सेठ की बनाई, गीता प्रेस की ही मेहरबानी है कि हुकूमत, ग्रीबों की प्रचंड फौज से बिलकुल नहीं डरती. वह जानती है कि चुनाव से 2 महीने पहले, हिंदू धर्म खतरे में आ जाएगा और धर्म को खतरे से सही-सलामत बाहर निकालना, हर सनातनी हिन्दू का पहला फर्ज भूख से, पेट में आंतें सिकुड़ ही क्यों न गई हों.

‘हमें रोटी नहीं चाहिए, रोजगार नहीं चाहिए, हम 200/- लीटर पेट्रोल खरीद लेंगे लेकिन, हमें राम-मंदिर चाहिए’, ऐसी दीवानगी वाले भक्त, 93 करोड़ श्रीमद भागवत गीता, रामायण, वेद, उपनिषद, मनु-स्मृति की खपत हुए बिना संभव ही नहीं थी. भारतीय फासीबाद के जनक, लालकृष्ण अडवानी के ‘राम-मंदिर आंदोलन से पहले,.भाजपा की मात्र 2 सीटें थी. कोई उन्हें पूछता नहीं था. पार्को में, मिनी पेटीकोट जैसी खाकी चड्डी पहने कलाबाजी करते, मोटी तोंद वाले खाए-अघाए लोगों को देखकर, लोग हंसा करते थे.

गीता प्रेस, लेकिन, समाज में धर्मान्धता का बारूद बिछने के काम में बदस्तूर लगी रही और नतीजा सामने है. आज, उसी भाजपा की सही माने में बघ रही है. उनकी उन्हीं लाठियों में से धुआं उठ रहा है. आज वे कितने ही शातिर अपराधी को, गिरफ्तारी से बचा लेते हैं, भले सारा देश ही क्यों न उस दुरदांत गुंडे की गिरफ्तारी के लिए चिल्ला रहा हो. किसी भी बेकूसूर को, आज वे, जब तक चाहें जेल में सड़ा सकते हैं. जो भी उनकी आंखों में आंखें डालकर बात करने की जुर्रत करता है, सुबह 4 बजे उसके दरवाजे के सामने ईडी की जिप्सी खड़ी नजर आती है !!

‘कर्म किए जा, फल की इच्छा मत कर ऐ इंसान’, गीता के इस ज्ञान की, प्रतिष्ठित व्यंगकार हरिशंकर परसाई ने बिलकुल सही व्याख्या किया है – ‘हे मजदूर, तू तो, जब तक मालिक कहे, बस काम किए जा, अपने वेतन, भत्ते, बोनस की मांग ना कर !’ भूखे बेहाल लोगों को अगर ‘गीता प्रेस, गोरखपुर’ के प्रयासों से ये समझा दिया जा चुका हो, कि ये सब तुम्हारे पूर्व-जन्म का परिणाम है, जो भाग्य में लिखा होता है वह होकर रहता है. होनी को कोई नहीं टाल सकता. बंदे की सांसे गिनी हुई होती है, तो फिर हुकूमत को करने को रह ही क्या जाता है. ना अस्पताल की जरुरत, ना स्वच्छ पानी की, ना सीवर की !!

मठ, अखाड़े, आश्रम, मंदिर, महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित स्थान हैं. राम मंदिर में चंदे का घोटाला हुआ, 6 गुना मंहगी जमीन खरीद कर प्रबंध कमेटी ने लूट की, केदारनाथ मंदिर का सैकड़ों करोड़ का सोना गायब हो गया, सारा देश आंदोलनकारी महिला खिलाड़ियों के साथ है लेकिन ‘साधू संत’ नाम की मुफ्तखोर जमात, खुलकर गुंडे बृज भूषण के साथ है; इस सबके बावजूद लोगों की आस्था ड्स मजहबी माफिया में कम नहीं होती.

आस्था के नाम पर, जन-मानस के एक विशाल हिस्से के विवेक को इस हद तक लकवा मार गया है. इसकी मूल वजह गोरखपुर की यही गीता प्रेस है.

सड़ती पूंजीवादी राज-सत्ता को, लोगों के आक्रोश से बचाने का, फासीवाद का आखरी दांव खेला जा चुका है. इस खूनी, घृणित और नंगी तानाशाही के कार्यान्वयन के लिए, समाज को उन्मादी बनाने के लिए, एक कृत्रिम शत्रु चाहिए होता है, जैसे जर्मनी में यहूदी थे. बदकिस्मती से, हम बहुत तकलीफ के साथ देख रहे हैं कि काफी बड़े हिस्से में मुस्लिम-घृणा इतनी गहरी बैठी हुई है, कि लिंचिंग जैसी बर्बरता की इन्तेहा के भी हिमायती काफी संख्या में न सिर्फ मौजद हैं बल्कि वे, हत्यारों के समर्थन में, मोर्चे और महापंचायतें तक करते हैं.

मजहबी पाठ, दूसरे सूफी संतों, फकीरों और गौतम बुद्ध-नानक-कबीर की इस धरती पर, ऐसे मुस्लिम समाज के लिए, जो सच्चर कमेटी के अनुसार सबसे ज्यादा गुरबत में जी रहा है, इतनी घृणा कैसे पैदा हुई, शक की सुई, सनातन धर्म वाली, गीता प्रेस नाम की फैक्ट्री की तरफ घूम जाती है.

गीता प्रेस नाम की फैक्ट्री को, वैचारिक प्रदूषण और जहनी जहर फैलाने देने के लिए इसे गांधी पुरस्कार से नवाजने वाली मोदी सरकार, क्‍या अकेली जिम्मेदार है ? उसने तो बस पके हुए खेत की फसल काटी है, नफरत की ये फसल, भले अब लहलहाई है, लेकिन ये फसल 9 साल से नहीं बल्कि पूरे 100 साल से फल-फूल रही है.

मोदी-पूर्व काल के शासकों ने क्यों नहीं समझा कि समाज में सनातन धर्म के प्रसार की नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण, तर्क-विवेकपूर्ण सोच पैदा करने की जरूरत है ? महात्मा गांधी, खुद, हमेशा ‘वैष्णव जन’ वाले भजन से ही अपनी सभाओं की शुरुआत किया करते थे. गीता प्रेस के स्थापक मारवाड़ी, गांधी जी के दोस्त थे, भले बाद में उनमें मतभेद हुए और गांधी को हत्या में उनकी गिरफ्तारी हुई.

गांधी हर वक्त सचेत रहते थे, कि उस वक्त मौजूद, भगतसिंह वाली क्रांतिकारी विचारधारा, देश के युवाओं को अपनी ओर आकृष्ट करने में कामयाब हो गई तो क्‍या होगा ? नेहरू को तो जनवाद और सेकुलरिज्म का चैंपियन बताया जाता है. उस वक्त, इस फसल की निराई, गुड़ाई, सिंचाई हो रही थी. वह एक दिन लहलहायेगी, क्या नेहरू जी को अंदाजा नहीं था ?

इंदिरा गांधी के जमाने में तो धीरेंद्र ब्रह्मचारी जैसे मुस्टंडे, सत्ता प्रतिष्ठान के शिखर पर ही विराजमान हो चुके थे. 1980 के बाद तो मजहबी नंगई शुरू हो ही गई थी.

पूंजीवादी सत्ता देश में उस वक्त प्रस्थापित हुई जब एक तिहाई विश्व में उसे उखाड़कर कुड़ेदान में फेंका जा चुका था. सही माने में जनवाद, स्त्री-पुरुष बराबरी, सही माने में सेकुलरिज्म जिसमें कोई किसी भी धर्म को माने या ना माने ये उसका निजी मामला है, राज्य किसी भी धर्म को नहीं मानेगा, इन विचारों को पूंजीवाद ने ही प्रस्थापित किया था. हमारे देश में, आजादी के वक्त से ही पूंजीवादी सत्ता शुरू से ही गली-सड़ी सामंती अधिरचना को ढोती चली आई और 1970 के बाद से तो उसने पुरातनपंथी धार्मिक विचारों को पुनः स्थापित करना शुरू कर दिया था.

इसी का परिणाम था कि गोरखपुर की गीता प्रेस फलती-फूलती गई, सनातन धर्म पसरता गया, अंधेरा गहराता गया और नफरत की फसल लहलहाती गई, जिसका असली विकराल स्वरूप देश को अब झेलना पड़ रहा है जब चारों ओर फासीबाद का दैत्य श्मशान नृत्य करता नजर आ रहा है. देश में बिकने वाला सारा प्रगतिशील साहित्य, गीता प्रेस का दसवां हिस्सा भी है क्या ?

जर्मनी की प्रख्यात फासीवाद-विरोधी योद्धा, क्लारा जेटकिन ने हिटलर-मुसोलिनी के नंगे फ़ासीवाद की विवेचना करते हुए कहा था; ‘फासीवाद, सर्वहारा वर्ग को इस बात की सजा है कि उसने रुसी बोल्शेविक क्रांति को आगे नहीं बढ़ाया.’. उसी बात को आगे बढ़ाया जाए तो, हमारे देश में फासीवाद, पूरी तरक्कीपसंद क्रांतिकारी जमात को इस बात की सजा है कि वे सब मिलकर भी गीता प्रेस जैसी कोई संस्था कायम नहीं कर पाए.

हिन्दुत्ववादियों ने 93 करोड़ धार्मिक ग्रन्थ समाज में खपा दिए, और क्रांतिकारी कहकर शेखी बघारने वाले, बुद्धिजीवी कहकर खुद की कमर.ठोकने वाले, शहीद-ए-आजम भगतसिंह की पुस्तिका, ‘मैं नास्तिक क्यों ?’ की 1 लाख प्रतियां भी, समाज के हाथों में नहीं दे पाए. कुसूरवार कौन है ? सनातन धर्म फैलाने वाली, हिन्दुत्ववादी मासिक पत्रिका ‘कल्याण’ की कुल 1.6 लाख प्रतियां बिक रही हैं, मजदूर वर्ग की सारी पत्रिकाओं का इससे आधा सर्कुलेशन भी नहीं है. गलती किसकी है ?

‘हमारे विचार, शोषित-पीड़ित समाज को गोलबंद कर, समाज की मुक्ति का मार्ग खोल सकते हैं, लेकिन उन्हें हम अपने भेजे में छुपाए रखते हैं, ताला-बंद रखते हैं. गीता प्रेस के ग्राहकों के विचार, इकट्ठे होकर लड़ने पर उतारू, बेरोजगारी-मंहगाई से कराहती विशाल सेना को टुकड़े-टुकड़े कर, एक दूसरे के खून के प्यासे बनाने वाले हैं, लेकिन वे, अपने मखौल की परवाह किए वगैर, उन्हें हर तरफ फैलाने में, जी-जान लगा देते हैं. दोषी कौन है ?

हमारे पास सच है और उनके पास झूठ. ‘इस देश में जनवाद की जड़ें बहुत गहरी हैं, गंगा-जमुनी तहजीब, जर्रे जर्रे में रची-बसी है, ये अफगानिस्तान नहीं बन सकता’, कहकर हम अपनी जड़ता और निकम्मेपन को छिपाते रहे. झूठ बलशाली होता गया और सच निरीह-कमजोर. हमें तब पता चला, जब गंगा-जमुनी तहजीब में पलीता लग गया.

मोदी ज॒मात ने गीता प्रेस, गोरखपुर को गांधी शांति पुरस्कार देकर सारी प्रगतिशील जमात को एक चुनौती प्रस्तुत की है. हम चाहें तो उसे स्वीकार कर अपने काम में लग सकते हैं, और चाहें तो सोते-ऊंघते, अपने विनाश का इंतजार कर सकते हैं.

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