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महान उपन्यासकार बाल्जाक और उनका दर्दनाक ‘अजनबी’ प्रेम

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महान उपन्यासकार बाल्जाक और उनका दर्दनाक ‘अजनबी’ प्रेम
महान उपन्यासकार बाल्जाक और उनका दर्दनाक ‘अजनबी’ प्रेम

आज से 200 वर्ष पूर्व फ्रांस में बाल्जाक हुए. यूरोप में उनके उपन्यासों को लेकर तहलका मचा रहता था. उनके जीवन से जुड़ी एक कहानी 1832 ई. में शुरू होती है. उस समय उनकी उम्र 32-33 वर्ष की थी. उनके घर में थैला भर-भरकर चिट्ठियां आती थीं. एक रोज वह सारी चिट्ठियां देख रहे थे. एक चिट्ठी पर उनका खासतौर पर ध्यान गया. चिट्ठी किसी मोहतरमा ने लिखी थी, जिसकी शुरुआत में बाल्जाक की खूब तारीफ़ की गई थी लेकिन जैसे-जैसे आगे बढ़ी वैसे-वैसे बाल्जाक के माथे से टप-टप पसीना टपकने लगा. क्योंकि मोहतरमा ने बड़ी बारीकी से उनके नए उपन्यास ‘दा मैजिक स्किन’ की बुराई की थी.

पुराने सारे उपन्यास की भूरी-भरी प्रशंसा लेकिन नए उपन्यास की उतनी ही निंदा ! खत में मोहतरमा ने अपना नाम और पता कुछ नहीं लिखा था. पढ़ते ही बाल्जाक समझ गए यह कोई बड़ा फेन है, जिसने मेरा लिखा एक-एक शब्द पढ़ रखा है. तारीफ़ दिल से की है लेकिन बुराई के लिए ऐसी तेजाबी जबान ? बाल्जाक एकदम छटपटाकर रह गए जवाब कैसे दें ? जवाब न दे तो नींद नहीं आएगी. दो-तीन दिन तक ऐसे ही करवट बदलते और सोचते रहने के बाद बाल्जाक ने अंत में एक तरीका अपनाया. उन्होंने फ्रांस के एक अखबार में विज्ञापन छपवाया. उस बेनाम मोहतरमा को संबोधित करते हुए एक सार्वजनिक जवाब जनहित में जारी कर दिया.

उस मोहतरमा ने उस विज्ञापन को जिंदगीभर देखा ही नहीं होगा क्योंकि वह फ्रांस में रहती ही नहीं थी. कुछ हफ्ते इसी तरह बीत गए. वह मोहतरमा फ्रांस से दूर यूक्रेन में घर के बगीचे में बैठी बाल्जाक की किताबें पढ़ रही थी. अफसोस करते हुए रो रही थी कि मैंने अपने प्रिय लेखक को इतनी जहरीली भाषा में चिट्ठी क्यों लिखी ! वह बाल्जाक को फिर से एक खत लिखती है, उसमें अपनी जबानदराजी के लिए माफी मांगती है. उसके बाद बाल्जाक की तारीफ़ में एक, दो, तीन खत भेजती हैं.

पेरिस में बाल्जाक पढ़-पढ़कर हैरान हो रहे हैं कि यह मोहतरमा कितना सुंदर पढ़ती हैं और उससे भी सुंदर पढे हुए को लिखती हैं. बाल्जाक जवाब देने के लिए बैचेन हैं लेकिन उस मोहतरमा ने किसी भी खत में अपना नाम, पता नहीं लिखा है. हर खत के नीचे एक ही सिगनेचर – तुम्हारी अजनबी.

बाल्जाक एकदम भरे पड़े हैं. जवाब दें तो कैसे दें ? तभी एक खत और आता है. उसमें लिखा है – ‘मुझे लगता है जैसे आप मुझसे बात करना चाहते हैं ? मुझे जवाब देना चाहते हैं. लेकिन आपके पास मेरा पता ही नहीं है. एक काम कीजिए अखबार में मेरे नाम का विज्ञापन छपवाइये लेकिन अपने शहर की अखबार में नहीं बल्कि मेरे शहर के अखबार में. मैं यूक्रेन के उदेसा शहर में रहती हूं. उसके फलां-फलां अखबार में मेरे नाम से एक संदेश जारी करवा दीजिए. तब मैं आपको अपना नाम, पता और अपने बारे में जानकारियां बताऊंगी.’

रहस्य गहराता जा रहा था. बाल्जाक से सहन नहीं हो रहा था. वह जल्दी से एड एजेंसी पहुंचे. अखबार में विज्ञापन छपवा दिया. उस शहर में मोहतरमा ने यह विज्ञापन देख लिया. विज्ञापन देखकर मोहतरमा मुतमइन हुई तब आया रहस्य खोलता हुआ एक नया पत्र – ‘मेरा नाम एवलिना हांसका है. मैं एक पोलिश अमीर की पत्नी हूं. जोकि उम्र में मुझसे बहुत बड़ा है और लगातार बीमार रहता है. मैं उसकी बड़ी सी हवेली में रहकर उसकी सेवा करती हूं. उसके जायदात के सारे काम करती हूं और बचे हुए समय में अपनी प्रिय लेखक बाल्जाक की किताबें पढ़ती हूं. एक ही किताब चार-चार, पांच-पांच बार पढ़ती हूं.’

ऐसा नहीं था कि बाल्जाक खाली बैठे हो या उनके जीवन में कोई आकाल पड़ा हो. वह कई लोगों से जुड़े थे लेकिन एवलिना हांसका के शब्दों ने जैसे उन पर जादू कर दिया. बाल्जाक खुद शब्दों के जादूगर कहलाते थे लेकिन जादूगर किसी और के जादू में फंस चुका था. हांसका जिसके चेहरे की उन्होंने एक भी झलक नहीं देखी थी. वह उनकी स्वप्न कन्या बन गई थी. उसके बारे में कल्पनाएं करते हुए वह अपनी किताबों में चेप्टर पर चेप्टर लिखे जा रहे थे.

हांसका ने कुछ ऐसा मैनेज किया कि इन सभी घटनाओं के एक वर्ष बाद बाल्जाक, हांसका के परिवार से मिलने स्विटरलैंड पहुंच गए. एक होटल में रहने लगे. हांसका की हवेली में अक्सर देखते रहते. वह देखते हैं कि बगीचे में एक सुंदर स्त्री उनकी किताब को उलट-पलट कर पढ़ रही है. वह समझ गए यही है हांसका. पांच दिन में बाल्जाक ने उस घर में प्रवेश कर लिया. उस परिवार से उन्होंने मुलाकात की लेकिन यह मुलाकात केवल परिवारिक बनकर रह गई थी. बाल्जाक चुपचाप वापस आ गए.

वर्ष दर वर्ष बीतते चले गए. हर हफ्ते दोनों एक-दूसरे को खत लिखते, अपने-अपने प्रेम का इजहार करते और एक-दूसरे के खत का इंतजार करते. ऐसे नौ साल बीत गए. 1841 में बीमारी के कारण हांसका के पति की मृत्यु हो गई. तब बाल्जाक ने कहा अब हम शादी कर सकते हैं. हांसका ने कहा – ‘अभी संभव नहीं है क्योंकि शादी करने पर मुझे अपने पति की कोई सम्पति नहीं मिलेगी. मैं पहले अपनी दोनों बेटियों का भविष्य सुरक्षित करना चाहती हूं. उसके बाद ही मैं तुमसे शादी कर पाऊंगी.’

यह पढ़कर बाल्जाक ने खत लिखा और सुझाव दिया मेरे साथ रूस चले चलो, वहां का जज मुझे बहुत मानता है. वह सरलता से सम्पति की सारी समस्या का समाधान कर देगा. उसका कानून विभाग बहुत मजबूत है. वहीं पर वह हमारी शादी भी करवा देगा. लेकिन हांसका ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया. बाल्जाक से और इंतजार करने के लिए कह दिया.

बाल्जाक, हांसका से प्रेम करने लगे थे इसलिए सिर्फ एक-दो बार मिलने के बाद भी वह उसकी प्रतीक्षा करने लगे थे. एक बार उन्होंने हांसका के सारे खतों को जला दिया और उन्होंने हांसका से खत में कहा – ‘मैंने सारे खतों को जला दिया है हांसका यह पंक्तियां लिखते समय मैं कागजों की राख देख रहा हूं. 15 साल की सैकड़ों चिट्ठियां और महज इतनी-सी राख ! 15 साल का समय क्या सच में इतना कम समय घेरता है !!

बाल्जाक बीहड़ किस्म के लेखक थे. बहुत मेहनती लेखक. एक बार लिखने बैठते तो दो दिन तक अपनी मेज से उठते नहीं थे. इसी चक्कर में अपनी तबीयत खराब कर बैठते थे. देखते-देखते 1850 का वर्ष आ गया. एक दिन हांसका का खत आया – ‘अब सारे मामले सुलट गए हैं. अब हम शादी कर सकते हैं.’

18 वर्ष बीत चुके थे. इन 18 वर्षों में बाल्जाक, हांसका महज दो बार ही मिल पाएं थे. वह भी दोस्ताना मुलाकात लेकिन दोनों के भीतर एक-दूसरे के लिए प्रेम का राग था. यह राग इतना गहरा था कि दोनों शादी करने के लिए अपने-अपने शहर से निकले. पांच घंटे घोड़ा गाड़ी पर चले और पांच घंटे पैदल चले. इस तरह दस घंटे का सफर तय करके दोनों बीच के एक निर्धारित शहर में पहुंचकर एक-दूसरे से विवाह किया.

किस्मत का खेल देखिए, विवाह के अगले दिन दोनों की तबीयत खराब हो गई. हांसका की तबीयत तो काबू में आ गई लेकिन बाल्जाक फिर कभी पूरी तरह स्वस्थ न हो सके. हांसका जो अठारह साल पहले अपने पोलिश बीमार पति की सेवा करती थी, अब अपने नए पति बीमार बाल्जाक की सेवा करने लगी. शादी के सिर्फ पांच महीने बाद बीमारी के कारण बाल्जाक की मृत्यु हो गई. जिस प्रेम का इंतजार वह इतने वर्षों तक करते रहे, वह उनके जीवन में आया तो था लेकिन जिसका सुख वह भोग न सके …!

  • भरत कनफ

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