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सनातन धर्म का ‘स्वर्णकाल’ दरअसल और कोई नहीं बल्कि ‘मुगलकाल’ ही था

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हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्ति काल सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखता है. आदिकाल के बाद आये इस युग को ‘पूर्व मध्यकाल’ भी कहा जाता है. यह हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग है जिसको जॉर्ज ग्रियर्सन ने ‘स्वर्णकाल’, श्याम सुन्दर दास ने ‘स्वर्णयुग’, आचार्य राम चंद्र शुक्ल ने ‘भक्ति काल’ एवं हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘लोक जागरण’ कहा.

इस भक्ति काल में सूरदास, संत शिरोमणि रविदास, ध्रुव दास, रसखान, व्यास जी, स्वामी हरिदास, मीराबाई, गदाधर भट्ट, हित हरिवंश, गोविन्द स्वामी, छीतस्वामी,चतुर्भुज दास, कुंभन दास,परमानंद, कृष्णदास, श्रीभट्ट, सूरदास मदनमोहन, नंददास, चैतन्य महाप्रभु और रहीम दास, तुलसीदास, कबीरदास, मीराबाई और जायसी इत्यादि थे.

संक्षेप में कहूं तो सूरदास, तुलसीदास, कबीरदास और जायसी, देश के सर्वश्रेष्ठ माने जाने वाले यह चारों विभिन्न प्रकार के महाकवि ‘भक्तिकाल’ में ही उत्पन्न हुए.

इसी भक्ति काल से मुख्यतः दो धाराएं निकली, एक धारा ‘रामभक्ति’ कहलाई और दूसरी ‘कृष्ण भक्ति’ कहलाई, बाकी कबीर दास इत्यादि लोग निर्गुण निराकार की भक्ति की लाईन खींचते रहे तो जायसी हिंदू मुस्लिम सद्भाव की लकीरें खींचते रहे.

कृष्ण भक्ति काल में सूरदास (1478–1583), नंददास, श्रीभट्ट, ध्रुव दास, स्वामी हरिदास (1478–1573), हित हरिबंस महाप्रभु (1552), मलुक दास (1574–1682), मीराबाई (1498-1547) और रसखान (1548) थे.

सूरदास को हिन्दी के भक्तिकाल का महानतम कवि माना गया. इनका जन्म मथुरा में ही हुआ था. हिन्दी साहित्य में श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि महात्मा सूरदास का जीवन 102 साल का रहा और यह पूरे जीवन अपनी रचनाओं से श्रीकृष्ण का महिमा मंडन करते रहे.

इन 250-300 सालों में इन तमाम कवियों ने अपनी कविताओं से श्रीकृष्ण के जीवन का काव्य के रूप में चित्रण किया और श्रीकृष्ण की लीला को जन-जन तक पहुंचा कर उनके व्यक्तित्व को देश और दुनिया में फैलाया. इसका परिणाम यह हुआ कि कृष्ण पूरी दुनिया में अलग-अलग संप्रदाय के द्वारा माने जाने लगे, यहां तक कि श्रीकृष्ण को लेकर कुछ अलग संप्रदाय भी स्थापित हुए.

कोई श्रीकृष्ण के सिर्फ बचपन पर काव्य रचनाएं रचता रहा तो कोई सिर्फ उनकी जवानी और रास लीलाओं पर रचनाएं गढ़ता रहा, तो कोई सिर्फ उनके महाभारत में किए योगदान पर रचनाएं लिखता रहा‌‌.

इसी तरह रामभक्ति की धारा भी इसी भक्तिकाल के समानांतर चलती रही. और इसमें रामानंद (1400-1470) ने ‘राम रक्षा स्त्रोत’, विष्णु दास (1442) ने रामायण कथा, ईश्वरदास ने भरत मिलाप (1444), अंगदपैज (1444) और गोस्वामी तुलसीदास (1532-1623) ने रामचरितमानस (1574), विनय पत्रिका (1585), कृष्ण गीतावली (1571), कवितावली (1612), पार्वती मंगल (1582), जानकी मंगल (1582), रामलला नेहछू (1586), लाल दास ने अवध विलास (1643) और सेनापति ने कवित्त रत्नाकर (1649) की काव्य रचनाएं की और घूम घूम कर इन 250-300 सालों में अपनी कविताओं से राम के जीवन का काव्य के रूप में चित्रण किया और राम की महिमा को जन-जन तक पहुंचा कर उनके व्यक्तित्व को देश और दुनिया में फैलाया.

यही नहीं, इसी समयकाल में एक मुस्लिम कवि ‘सैयद इब्राहिम’ भी थे जिनको ‘रसखान’ के नाम से जाना जाता है, जिनका जन्म 1548 ई में हुआ और यह भी कृष्ण भक्त कवि थे. इनकी काव्य रचनाएं कृष्ण के महिमा का वर्णन करती रही.

इस पूरी भक्तिकाल की समयावधि 1375 ई. से 1700 ई. तक की मानी जाती है. इसी भक्ति काल में निर्गुण निराकार भक्ति के पक्षधर कबीर दास अपनी रचनाओं से हिंदू और मुस्लिम के आडंबर पर ज़ोरदार चोट किया करते थे.

हिंदू या सनातन धर्म के मौजूदा स्वरूप को बहुत हद तक इन कवियों ने ही 250-300 साल के अपने काव्य से गढ़ा और स्थापित किया. इसी में गोस्वामी तुलसीदास की लिखी ‘रामचरितमानस’ भी है.

दरअसल ‘रामचरितमानस’ के बाद ही उत्तर भारत में ‘राम’ लोकप्रिय हुए और उनकी महिमा का जन जन तक प्रचार और विस्तार हुआ. इसके पहले भारत में राम ‘वाल्मीकि रामायण’ से दक्षिण तक ही सीमित थे. संस्कृति में लिखी वाल्मीकि रामायण के 400 दोहे भाषा के कारण आमजन की समझ से परे आज भी हैं और तब भी थे.

वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस के अतिरिक्त रामायण पर 300 और पुस्तकें लिखी गई हैं, जो पूरी दुनिया में इसी भक्तिकाल में लिखीं गयीं मगर सर्वाधिक लोकप्रिय हुई ‘रामचरितमानस.’

वर्तमान अयोध्या और तमाम मंदिरों का निर्माण भी इन्हीं कवियों की रचनाओं और रामचरितमानस से प्रभावित होकर उसी भक्तिकाल में हुआ. इसके पहले वह ‘साकेत’ के नाम से जानी जाती थी.

कहने का अर्थ यह है आज ये जो बड़े बड़े हिंदू धर्म के ठेकेदार बने हैं ना, इनका सनातन धर्म के विस्तार में योगदान भक्ति काल के इन कवियों के मुकाबले कुछ नहीं. एक कण के बराबर भी नहीं.

और यह सब हुआ मुग़ल काल में. मुग़ल शहंशाह बाबर से लेकर मुग़ल बादशाह औरंगजेब तक के शासनकाल में. पूरा भक्तिकाल ही मुगलकाल के प्रारंभ से शुरू हुआ और मुगलकाल के अंत के पहले खत्म हो गया.

यह दौर तब था जब तलवार की ज़ोर से इस्लाम फैलाने की बात की जाती है और एक भी तलवार भक्तिकाल के इन सैकड़ों कवियों की गर्दन पर नहीं गिरी, जो मुगलकाल में अपने धर्म के प्रचार प्रसार में जीवन भर लगे रहे.

यहां तक कि कबीरदास को किसी ने एक चांटा भी नहीं मारा जो इस्लामिक व्यवस्थाओं पर अनर्गल रचनाएं लिख कर प्रहार करते रहे. और रसखान, कृष्ण भक्त रसखान तो मुग़ल दरबार के खास कवियों में से एक थे. भक्तिकाल के उत्तर से दक्षिण के सैकड़ों कवि अपने धर्म के प्रचार प्रसार में लगे रहे और इन्होंने कहीं एक शब्द भी नहीं लिखा कि इस्लाम की तलवार को उन्होंने झेला या देखा.

यहां तक कि इस्लाम की वह तलवार रहीम ओर सैयद इब्राहिम (रसखान) तक भी नहीं पहुंची कि तुम एक मुसलमान होकर कृष्ण की भक्ति और उनकी महिमा का गुणगान क्यों करते हो ?

आप इन कवियों द्वारा भक्तिकाल में सनातन धर्म के देवी-देवताओं के चरित्र चित्रण का अध्ययन करें तो पाएंगे कि सनातन धर्म का ‘स्वर्णकाल’ दरअसल और कोई नहीं बल्कि ‘मुगलकाल’ ही था. जॉर्ज ग्रियर्सन ने ‘स्वर्णकाल’, श्याम सुन्दर दास ने ‘स्वर्णयुग’ ऐसे ही नहीं कहा था‌. इसी काल में पूरे देश में कृष्ण और हनुमान मंदिरों का निर्माण हुआ.

कहने का मतलब यह है कि ‘झूठकाल’ में चल रही व्हाट्स ऐप युनिवर्सिटी में दिमाग लगाने के पहले कुछ सोचिए और अध्ययन कीजिए, तब आपको महसूस होगा कि ‘द्वापर युग’ और ‘कलयुग’ के बीच में अचानक आया यह जो ‘झूठयुग’ है.

हम उसी में जी रहे हैं और ‘झूठयुग’ के उस देवता को देख रहे हैं जिसे सनातन धर्म के चारों शंकराचार्यों की आलोचना और धर्म की व्यवस्था के अनुसार सलाह की ज़रा भी परवाह नहीं. वह दौर और था जब बाबा और संतों को मुग़ल बादशाह सम्मान दिया करते थे.

  • मो. जाहिद

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