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गिग अर्थव्यवस्था : तकनीक की आड़ में पूंजीवादी लूट की नई शैली

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गिग अर्थव्यवस्था : तकनीक की आड़ में पूंजीवादी लूट की नई शैली

‘गिग अर्थव्यवस्था’ सेवा क्षेत्र की उन आर्थिक गतिविधियों को कहा जाता है, जो अस्थाई या ‘फ़्रीलांस’ मज़दूरों द्वारा की जाती हैं. इसी तरह, इन गतिविधियों को करने वाले मज़दूरों को ‘गिग वर्कर’ कहा जाता है. पिछले एक दशक में, इंटरनेट (मोबाइल ऐप और वेबसाइट) के माध्यम से विभिन्न सेवाओं के लिए मज़दूर मुहैया करने वाली कंपनियां कुकुरमुत्तों की तरह उग आई हैं.

ज़मैटो, स्विगी, डिलिवरो, ऐमाज़ोन, फ़्लैक्स आदि इस क्षेत्र की बड़ी कंपनियां हैं. इनसे ग्राहक घर बैठे ही इंटरनेट से भोजन, दवा और किराने का सामान मंगवा सकता है, यात्रा के लिए कैब बुक करवा सकता है, घर की सफ़ाई, प्लंबर, बिजली के काम, ब्यूटीशियन और यहां तक कि अपने कुत्ते को घुमाने के लिए भी निश्चित समय के लिए मज़दूर किराए पर ले सकता है.

भारत में 15 मिलियन ‘गिग वर्कर’ विभिन्न कंपनियों से जुड़े हुए हैं. इस क्षेत्र में ज़्यादातर काम कम आय वाले हैं, जैसे डिलीवरी, छोटे घरेलू और रखरखाव का काम आदि. विकसित देशों (1% से 4%) की तुलना में भारत जैसे विकासशील देशों (5% से 12%) की ‘गिग अर्थव्यवस्था’ में अधिक भागीदारी है. भारतीय पूंजीपतियों के संघ एसोचैम का दावा है कि भारत की ‘गिग अर्थव्यवस्था’ अगले 8-10 वर्षों में तिगुनी हो जाएगी, जिससे 9 करोड़ लोगों को रोज़गार मिलेगा.

पूंजीवाद के बौद्धिक चाकर, सूचना तकनीक पर आधारित इस व्यापार मॉडल की प्रशंसा करते हैं और दावा करते हैं कि इससे सेवा क्षेत्र के मज़दूरों के साथ-साथ ग्राहकों को भी लाभ हुआ है. यह प्रचारित किया जाता है कि जहां ग्राहक कम समय में सस्ती सेवाओं का लाभ उठा सकता है, वहां उसने पारंपरिक मालिक-मज़दूर के रिश्ते को ख़त्म कर दिया है.

इस कारोबारी मॉडल को ‘सामान्य अर्थव्यवस्था’ के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जिसमें ‘गिग वर्कर’ अपनी ‘इच्छा’ की क़ीमत पर ‘स्वतंत्र रूप से’ अपनी ‘सुविधा’ के अनुसार काम के घंटे चुन सकता है. वह अपने ख़ाली समय में दूसरे काम करके ‘अतिरिक्त पैसा’ कमा सकता है. यह भी दावा किया जाता है कि इस क्षेत्र के कर्मचारी किसी मालिक के अधीन काम करने वाले नहीं हैं बल्कि ‘निजी ठेकेदार’ या ‘स्वरोज़गार’ प्राप्त श्रमिक हैं.

यह ओला, उबर, आदि जैसे कार मालिकों के लिए तो सच है, जो इन ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म के माध्यम से अपनी कार की सवारी की तलाश करते हैं, जहां ये ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म टैक्सी स्टैंड के ठेकेदार की भूमिका निभाते हैं. ‘गिग अर्थव्यवस्था’ में शामिल इन ‘कैब मालिकों’ का चरित्र छोटे मालिक जैसा है, जिनमें से ज़्यादातर पूंजीवादी बाज़ार में मुकाबले से बाहर हो जाते हैं और कुछ बड़े मालिक बन जाते हैं.

हालांकि, जो लोग ज़मैटो, स्विगी, ऐमाज़ोन के लिए डिलीवरी का काम करते हैं, वे ना तो ‘स्वरोज़गार’ प्राप्त हैं और न ही ‘निजी ठेकेदार’ हैं. इनका चरित्र उजरती मज़दूरों वाला है. आगे जब हम इन उज़रती मज़दूरों की लूट को समझने के लिए ‘गिग अर्थव्यवस्था’ के कारोबारी मॉडल की कार्यप्रणाली की बारीकी से जांच-पड़ताल करेंगे तो इसके ‘सांझा अर्थव्यवस्था’, ‘स्वरोज़गार’ जैसे पर्दे तार-तार हो जाएंगे और पूंजीवादी लूट का बदसूरत चेहरा हमारे सामने बेनकाब किया जाएगा.

‘गिग’ बिज़नेस मॉडल

‘गिग अर्थव्यवस्था’ का कारोबारी मॉडल हमेशा उपलब्ध मज़दूरों की बड़ी आरक्षित फ़ौज पर आधारित होता है. मज़दूरों की इस आरक्षित फ़ौज के बीच आपसी मुकाबला कंपनियों के लिए संभव बनाता है कि वो ग्राहकों को सस्ती सेवाएं प्रदान कर सकें, क्योंकि आपसी मुकाबले के कारण मज़दूर कम-से-कम मज़दूरी पर भी काम करने के लिए तैयार हो जाते हैं. मज़दूरों की यह आरक्षित फ़ौज कंपनी के कर्मचारी नहीं होते, बल्कि मांग होने पर ही काम पर रखे जाते हैं.

कर्मचारी कंपनी के ऐप या वेबसाइट पर पूरे दिन लॉग इन रहता है, जिसका कंपनी को कोई ख़र्च नहीं पड़ता. एक काम से दूसरे काम के बीच इंतज़ार के घंटों के लिए भी मज़दूरों को भुगतान करने के लिए कंपनी की कोई ज़िम्मेदारी नहीं है. काम के लिए ज़रूरी कौशल प्रशिक्षण के लिए भी कंपनी ज़िम्मेदार नहीं होती. कम वेतन सहित प्रशिक्षण की लागत को कम करने से इन कंपनियों के लिए अपने ग्राहकों को सस्ती सेवाएं प्रदान करना और बाज़ार की अधिक-से-अधिक हिस्सेदारी हासिल करना संभव हो जाता है.

शुरुआत में ये कंपनियां मज़दूरों को आकर्षक मज़दूरी देती हैं, लेकिन जब एक बार बड़ी संख्या में श्रमिकों को जोड़ लिया जाता है, तो यह मज़दूरी कम होने लगती है. जैसे-जैसे कंपनी का कारोबार बढ़ता है और बाज़ार के बड़े हिस्से पर क़ब्ज़ा होता जाता है, इसके समानांतर मज़दूरों की मज़दूरी में गिरावट आती रहती है.

यह दावा करते हुए कि कंपनी और ‘गिग वर्कर’ के बीच का रिश्ता मालिक-मज़दूर वाला नहीं है, कंपनियां ख़ुद को मज़दूरों के प्रति मालिक की ज़िम्मेदारी और श्रम क़ानूनों (न्यूनतम वेतन, स्वास्थ्य बीमा, दुर्घटना मुआवज़ा आदि) के दायरे से बाहर मानती हैं और मज़दूरों को उनके अधिकारों से वंचित रखती है लेकिन दूसरी ओर, ये कंपनियां, एक मालिक के रूप में, उन सभी हथियारों का उपयोग करती हैं, जिनके साथ वे मज़दूरों से अधिकतम लाभ निचोड़ सकें.

किसी विशेष काम के लिए कितना वेतन लिया जाएगा, यह मज़दूर नहीं बल्कि कंपनी तय करती है. यदि कोई ग्राहक सेवाओं को रद्द करता है, काम के बाद भुगतान करने से इनकार करता है, या रेटिंग कम करता है, तो पूरा बोझ कर्मचारी पर पड़ता है, कंपनी पर नहीं. अधिकांश कंपनियां इस शर्त पर हस्ताक्षर करवाती हैं कि कर्मचारी कंपनी के बाहर काम के लिए ग्राहक से संपर्क नहीं कर सकता.

जिस प्रकार एक कारख़ाना मालिक अपने प्रबंधकों द्वारा अपने मज़दूरों के काम की देखरेख करता है, उसी तरह ये कंपनियां तकनीक (एल्गोरिदम) के माध्यम से इस काम को अंजाम देती हैं. ‘गिग मज़दूर’ का अपने काम पर कोई नियंत्रण नहीं है, वे एक दिन में कितना काम करेंगे, कितने घंटे काम करेंगे, और नौकरी के लिए उन्हें कितना पैसा मिलेगा, यह मज़दूरों के हाथ में नहीं है, यह सब एल्गोरिदम द्वारा निर्धारित किया जाता है, जिनका कंपनी पर पूर्ण नियंत्रण होता है.

कंपनी द्वारा कर्मचारी की लगातार निगरानी की जाती है और निर्धारित समय के भीतर कोई भी काम करने में विफलता या काम करने से इनकार करने पर ऐप या वेबसाइट पर कर्मचारी का खाता बंद (पारंपरिक अर्थ में कर्मचारी की बर्ख़ास्तगी) हो जाता है.

किसी काम को करने में कितना समय लगता है या किन हालातों में किया जाएगा, उदाहरण के लिए, ज़मैटो से जुड़ा डिलीवरी बॉय यह निर्धारित नहीं कर सकता है कि किसी ख़ास स्थान से ग्राहक को कितनी बार और किस मार्ग से भोजन पहुंचाया जाता है. यह ‘ऐप एल्गोरिथम’ सेट करता है और कर्मचारी को इसे मानना पड़ता है, चाहे वह वास्तविकता में कितना भी अवास्तविक क्यों न हो. मज़दूर कम-से-कम समय में काम पूरा करने के लिए अपनी जान जोखिम में डालते हैं, ताकि कहीं वो अपनी नौकरी से हाथ ना धो बैठें.

काम पर दुर्घटना की स्थिति में कर्मचारी को कंपनी से कोई मुआवज़ा नहीं मिलता है. ‘स्विगी’ में काम करने वाला एक युवा मज़दूर ऑर्डर लेकर जा रहा था कि वह किसी से टकरा गया और नीचे गिर गया. लोगों ने उसे उठाया और अस्पताल जाने को कहा, मगर वह घायल होने पर भी डरा हुआ अपना फ़ोन देख रहा था और कह रहा था कि ‘उसे पहले ऑर्डर पूरा करना होगा.’

एक मज़दूर किन हालतों में माल की डिलीवरी करता है, इससे कंपनी को कोई लेना-देना नहीं होता, भले ही कर्मचारी की जान चली जाए, घायल हो जाए, उसका साधन टूट जाए, उसे हर हालत में ग्राहक से अच्छी ‘रेटिंग’ प्राप्त करना ज़रूरी है, नहीं तो उसका भुगतान काट दिया जाएगा या उसे निकाल दिया जाएगा.

‘स्विगी’ में काम करने वाला एक मज़दूर न्यूनतम मज़दूरी घर ले जाने के लिए पूरे हफ़्ते 12 घंटे काम करता है, वो भी पूरे महीने बिना कोई छुट्टी किए. एक सर्वेक्षण के अनुसार, हर तीन में से एक कर्मचारी प्रतिदिन 150 रुपए कमा पाता है. लंबे समय तक काम करने के कारण, उनको अक्सर सेहत समस्याओं जैसे पीठ दर्द, लीवर और गर्दन में दर्द आदि से जूझना पड़ता है.

लूट के ख़िलाफ़ ‘गिग मज़दूरों’ का संघर्ष

दुनिया-भर के मज़दूरों ने अब तक जितने भी श्रम अधिकार हासिल किए हैं, चाहे वह न्यूनतम मज़दूरी क़ानून हो, आठ घंटे का वेतन क़ानून हो या यूनियन बनाकर संगठित होने का अधिकार, अपने क़ुर्बानियों भरे संघर्षों से ही हासिल किए हैं. इनको लागू करवाने के लिए भी मज़दूरों को संघर्ष करना पड़ता है और पूंजीपति वर्ग और उनकी सरकारें इन अधिकारों को मिटाने की लगातार कोशिश कर रही हैं. ‘गिग मज़दूरों’ के लिए स्थिति और भी बदतर है, जिन्हें मज़दूर ही नहीं माना जाता है, क्योंकि उन्हें श्रम क़ानून के दायरे से बाहर रखा गया है.

भारत सरकार का ‘सामाजिक सुरक्षा कोड 2020’ क़ानून जिसमें मज़दूरों को मिले अधिकारों को कम किया गया है, ‘गिग मज़दूरों’ को असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों के रूप में मान्यता देता है और सरकारी सामाजिक सुरक्षा सुविधाएं आदि प्रदान करने के लिए एक काग़ज़ी वादा भी करता है, लेकिन इन्हें वे हक़ भी नहीं मिलेंगे जो पारंपरिक मज़दूरों को प्राप्त हैं. इसमें उन कंपनियों की कोई ज़िम्मेदारी तय नहीं की गई, जिनके साथ ये मज़दूर जुड़े हुए हैं.

ऐसा नहीं है कि ‘गिग मज़दूर’ चुपचाप सिर झुकाए, तकनीक की आड़ में लूटपाट की इस व्यवस्था को सहन कर रहे हैं. दुनिया-भर के अलग-अलग देशों में मज़दूर इस लूटपाट को लेकर जागरुक हो रहे हैं और अपने हक़ों के लिए संघर्ष भी कर रहे हैं. भारत में भी, स्विगी में काम करने वाले मज़दूरों ने कंपनी द्वारा लूट के ख़िलाफ़ सितंबर 2020 में हड़ताल की थी. इन संघर्षों के कारण ही यूरोपीय संसद ने एक विधेयक का मसौदा तैयार किया है, जो ‘गिग मज़दूरों’ को ‘निजी ठेकेदार’ के बजाय ऐप-आधारित कंपनियों के मज़दूरों का दर्जा देता है और इन्हें न्यूनतम मज़दूरी और स्वास्थ्य बीमा जैसे कई अन्य श्रम अधिकारों के दायरे में लाया गया है.

  • तजिंदर (मुक्ति संग्राम से)

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