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दि फर्स्ट ग्रेडर : एक मर्मस्पर्शी फिल्म

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दि फर्स्ट ग्रेडर : एक मर्मस्पर्शी फिल्म
दि फर्स्ट ग्रेडर : एक मर्मस्पर्शी फिल्म
मनीष आज़ाद

केन्या सरकार की सबको मुफ्त शिक्षा देने की घोषणा के बाद एक 84 साल के बुजुर्ग ‘किमानी मारुगे’ भी पढ़ाई शुरु करने की ठानते हैं और पहुंच जाते है गांव के प्राइमरी स्कूल के गेट पर. स्कूल के सभी स्टाफ उनसे बुरा व्यवहार करते है और इसे बूढ़े की सनक मानते हैं. लेकिन स्कूल की संवेदनशील अध्यापिका ‘जाने’ उनसे सहानुभूति से पेश आती है और उनसे कहती है कि यह बच्चों का स्कूल है. सरकार का यह प्रोग्राम बच्चों के लिए है.

दूसरे दिन मारुगे अपनी पैन्ट को नीचे से काटकर बच्चों की यूनिफार्म में जूता -मोजा पहन कर आ जाते हैं. अन्ततः ‘जाने’ अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल करके उन्हे प्रवेश दे देती है. मारुगे बहुत लगन से सीखते हैं लेकिन स्कूल का स्टाफ और बच्चों के अभिभावक इससे खुश नही हैं. इसी दौरान जाने को पता चलता है कि मारुगे अग्रेज उपनिवेशवादियो के खिलाफ ‘माउ-माउ’ आन्दोलन में शामिल थे और इस कारण से अंग्रेजों ने उनकी पत्नी और बच्चे की हत्या कर दी थी और मारुगे को भी काफी टार्चर किया था.

स्कूल में जब उनसे अपनी पेन्सिल को शार्प करने को कहा जाता है तो उन्हे याद आता है कि इसी नुकीली पेन्सिल से अंग्रेजों ने उन्हे टार्चर करने के दौरान उनका एक कान का पर्दा फाड़ डाला था. जाने का उनके प्रति सम्मान और बढ़ जाता है और जाने उन्हें स्कूल के अलावा प्राइवेट कोचिंग भी देने लगती है. फिल्म में बीच में ऐसा दृश्य भी आता है जिससे पता चलता है कि केन्या का समाज कबीलों में बंटा है और उनके बीच तीखा तनाव है. मारुगे जिस कबीले से संबधित है वह अंगेजों से लगातार लड़ता रहा था.

जबकि स्कूल के डायरेक्टर व अन्य लोग उस कबीले से है जो अंगेजों से समझौता किये रहा और आजादी के बाद पूरा फायदा उसी को मिला. मारुगे नफरत से कहते हैं कि अंग्रेजों के साथ उनकी समझौता-परस्ती की कीमत हमारे कबीले ने चुकायी, अपनी जान देकर.

यहां आकर साफ होता है कि मारुगे को स्कूल में न लिए जाने के पीछे यह तनाव भी काम कर रहा था. फिल्म में मारुगे के बहाने केन्या के औपनिवेशिक अतीत और अंग्रेजों से उनके हथियारबन्द संघर्ष और अंग्रेजों के बर्बर दमन पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है. मारुगे बच्चों से भी काफी घुल मिल जाते हैं और उन्हें केन्या की स्वतंत्रता की कहानियां सुनाते हैं. वे बच्चों को आजादी का मतलब समझाते हैं. ये दृश्य काफी प्रभावोत्पादक हैं.

बहरहाल फिल्म की कहानी आगे बड़ती है और मारुगे के कारण जाने को स्कूल का सीनियर स्टाफ काफी परेशान करता है. जाने का पति भी जाने को इन पचड़ों से दूर रहने की सलाह देता है. अन्ततः स्कूल के अधिकारी जाने का दूर कही स्थानान्तरण कर देते हैं. जाने इससे काफी परेशान है. जाने के स्थान पर जिसकी नियुक्ति हुई है, बच्चे उसका बहिष्कार कर देते हैं. उधर मारुगे अपनी एकमात्र बकरी बेचकर राजधानी नैरोबी के लिए चल देते हैं.

वहां वह रिसेप्सनिस्ट के विरोध के बावजूद सीधे शिक्षा मंत्री के केबिन में घुस जाते हैं. वहां कोई महत्वपूर्ण मीटिंग चल रही होती है. मारुगे बेहद नाटकीय तरीके से वहां सबके बीच अपनी शर्ट निकालते है और शासक वर्ग के उन प्रतिनिधियों को अपने शरीर पर अंग्रेजों द्वारा दिये गये टार्चर के चिन्ह दिखाते हैं. मारुगे उन्हें बताते हैं कि जनता के अकूत बलिदान के कारण ही आज वे लोग यहां पर हैं. उन्हें यह याद रखना चाहिए तथा जनता के हित में काम करना चाहिए.

फिल्म के अगले दृश्य मे पता चलता है कि जाने का स्थानान्तरण रुक गया है.

फिल्म का अंतिम दृश्य बहुत ही मार्मिक है. मारुगे एक पत्र लेकर जाने के पास आते हैं और कहते हैं कि यह पत्र बहुत समय से मेरे पास है और इसे पढ़ने के लिए ही उन्होने स्कूल आना शुरु किया था. लेकिन यह पत्र बहुत कठिन है. मुझे पढ़ने में दिक्कत हो रही है. तुम पढ़कर सुना दो. जाने पत्र पढ़ती रहती है और मारुगे रोते रहते हैं. जाने की आवाज भी भर्रा जाती है.

दरअसल पत्र केन्या के राष्ट्रपति का था. इसमे मारुगे की केन्या के स्वतंत्रता आन्दोलन में निभाई भूमिका की तारीफ की गयी थी और इसके लिए उन्हे क्षतिपूर्ति देने की घोषणा की गयी थी. यह पत्र एक तरह से आजादी के बाद के केन्या की बिडंबनापूर्ण स्थिति की ओर इशारा करता है.

दरअसल तीसरी दुनिया के ज्यादातर देशों की ही यह बिडंबना है कि जिन्होंने देश की आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी, वे आजादी मिलने के बाद किनारे लगा दिये गये और जो उपनिवेशवादियों के साथ समझौतों में रहे वे ही आजादी के बाद नये शासक बन बैठे. क्या अपने देश की भी यही स्थिति नहीं है ?

यह फिल्म एक सच्ची घटना पर आधारित है. 2004 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी मारुगे को उनकी जुझारु इच्छा शक्ति के लिए सम्मानित किया था. 2009 में मारुगे की मृत्यु हुई. मारुगे के बारे एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि उनका नाम गिनीज बुक में दर्ज है-सबसे ज्यादा उम्र में प्राइमरी स्कूल मे प्रवेश लेने वाले व्यक्ति के रुप में. इस फिल्म का निर्देशन Justin Chadwick ने किया है.

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ROHIT SHARMA

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