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फ़ासिस्ट जिसे लोयागति नहीं दे सकते हैं, उसे वर्मागति दे देते हैं

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फ़ासिस्ट जिसे लोयागति नहीं दे सकते हैं, उसे वर्मागति दे देते हैं
फ़ासिस्ट जिसे लोयागति नहीं दे सकते हैं, उसे वर्मागति दे देते हैं
Subrato Chatterjeeसुब्रतो चटर्जी

जस्टिस वर्मा के उपर लगे इल्ज़ाम की आड़ में क्रिमिनल लोगों की सरकार ने पूरी न्यायपालिका पर क़ब्ज़ा करने का घिनौना प्लान बनाया है और मज़ेदार बात तो यह है कि कोलेजियम खुद इस खेल में मोहरा बना दिखाई दे रहा है.

पहली बात तो ये है कि कोई भी हाईकोर्ट का जज इतना stupid तो नहीं होता है कि पचास करोड़ रुपए अपने घर में रखें. दरअसल जो इस बात पर टाईम्स ऑफ़ इंडिया के लिखे हुए को सच मान रहे हैं, उनका stupidity के सामने surrender करने की असीम क्षमता को मेरा सलाम.

दूसरी बात ये है कि, जिस तरह से एक पूरा ecosystem जस्टिस वर्मा के पीछे हाथ धो कर पड़ गया है, उससे ऐसा लगता है कि एक बहुत बड़ा sinister design इसके पीछे है. बात जस्टिस वर्मा तक नहीं रुकती है, बात पूरी न्यायपालिका की ईमानदारी की है और प्रकारांतर में उस पर फ़ासिस्ट लोगों के द्वारा संपूर्ण क़ब्ज़ा करने की कोशिश की है.

जो कोलेजियम सिस्टम को पानी पी पी कर कोसते हैं, क्या वे बता सकते हैं कि अगर जजों की नियुक्ति क्रिमिनल लोगों की सरकार के हाथों में सौंप दी जाए तो न्यायपालिका में वे जाने लायक भी बचेंगे ?

यहां पर एक बात स्पष्ट कर दूं कि मैं न्यायपालिका के मामले में किसी भी coterie के हाथों जजों की नियुक्ति के समर्थन में नहीं हूं, चाहे वो कोलेजियम हो या कोई क्रिमिनल लोगों की सरकार. ज़रूरत है एक All India Judicial Services Exam की, लेकिन फासीवाद के इस दौर में उसमें से भी घृणित संघी चुन कर आ जाएंगे, जैसे कि IAS में आ रहे हैं.

Disease is very deep, malady appears to be incurable. पूंजीवादी लोकतंत्र के अंतर्विरोधों को बिना समझे आप इसी तरह की मरीचिका में भटकते रहेंगे. मैं जस्टिस वर्मा को न ईमानदार कह सकता हूं और न ही बेईमान, लेकिन he seems to be a design sacrificed for the sake of a larger design.

संभव है कि 11 मई को सेवानिवृत्त होने से पहले संजीव खन्ना साहब मोदी जी के हाथों जजों की नियुक्ति का अधिकार दे कर भारतीय न्यायपालिका की ताबूत में आखिरी कील ठोक देंगे. देखते जाइए !

भूख, भय और भ्रष्टाचार

भूख, भय और भ्रष्टाचार पुराना राजनीतिक नारा है. अब इसके साथ एक और शब्द जुड़ गया है, भीख. संघियों या 35 सालों तक भीख मांगकर खाने वाले प्रधानमंत्री की कृपा से.

पिछले दिनों ‘आप’ के संजय सिंह के विश्व भूख सूचकांक की रिपोर्ट के हवाले भारत में बढ़ती हुई भुखमरी की समस्या पर जवाब देते हुए प्राक्तन भिखारी के मंत्री ने संसद में कहा कि भारत में कोई भुखमरी की समस्या नहीं है, क्योंकि यहां लोग आवारा कुत्तों को भी भोजन देते हैं.

आदमी को कुत्ता समझने की संघी परंपरा रही है. भूतपूर्व भिखारी कहता है कि उसे गाड़ी के नीचे कुत्ते के बच्चे के मरने पर भी दुख होता है, तो गुजरात में नरसंहार करवाने का दुख क्यों नहीं होगा ? पैटर्न समझिए और सोच को भी.

न तो भूतपूर्व भिखारी और न ही उसके मंत्री को मालूम है कि इस देश में जहां कुत्तों और गाय को अपना ‘परलोक’ सुधारने के लिए लोग खाना खिलाते हैं, वहीं झारखंड की एक बच्ची ‘भात भात’ चीखते हुए दम तोड़ देती है. वे नहीं जानते कि साठ प्रतिशत कुपोषित बच्चों के इस देश में करोड़ों लीटर दूध पत्थर के लिंग पर रोज़ परलोक सुधारने के लिए चढ़ाया जाता है. क्या वाक़ई वे नहीं जानते, या उनका अस्तित्व ही ऐसे कूपमण्डूकों की वजह से है ?

अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के प्रति इनका अविश्वास स्वाभाविक है, क्योंकि गोदी मीडिया की तरह वे झूठ नहीं बोलते. भूतपूर्व भिखारी सिर्फ़ अनर्गल झूठ ही नहीं बोलता, वह झूठ को जीता है, personified falsehood का इतना बड़ा दृष्टांत हिटलर और मुसोलिनी के बाद दुनिया आज देख रही है.

भारत सरकार के लिए यह शर्म की बात होनी चाहिए कि कोरोना काल में 3.23 करोड़ लोग ग़रीबी रेखा के नीचे चले गए और 12 करोड़ जाने की प्रतीक्षा में हैं. यह आंकड़ा सिर्फ़ उन लोगों का हैं जिन्होंने अपनी नौकरी और कारोबार इस दौरान खोया. अगर इसमें नोटबंदी के दौरान बर्बाद हुए लोगों की संख्या को जोड़ दिया जाए तो भारत में नव दरिंद्रों की संख्या पाकिस्तान की आबादी के बराबर होगी. यही है इनका नया भारत !

कालांतर में भूतपूर्व भिखारी के द्वारा भारत को विश्व के सबसे बड़े ग़ुलामों की मंडी में विकसित करने के चैप्टर को विश्व इतिहास के एक कलंकित अध्याय के रूप में पढ़ाया जाएगा. इसके लिए सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी, भूतपूर्व भिखारी की नहीं, हमारे देश के करोड़ों स्वैच्छिक ग़ुलाम होंगे, जिसका सबसे बड़ा हिस्सा मध्यम वर्ग है.

निम्न मध्यम वर्ग जब ग़रीबों की श्रेणी में डिमोट हो रहे हैं, तब क्या उनका वर्ग चरित्र बदल रहा है ? ये सामाजिक शोध का विषय है. चुनावी जीत हार के पैमाने पर नापा जाए तो हिंदी क्षेत्र में तो बिल्कुल नहीं. जैसे नव धनाढ्य दिखावे पर ज़्यादा खर्च कर अपनी उपस्थिति समाज में दर्ज करवाते हैं, उसी तरह नव भिखारी भी ऊंची आवाज़ में भजन गाकर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता है.

और भजन भी किसका ? उसी भूतपूर्व भिखारी का ? दूसरे किसी देवता को पूजने में शर्म आती है न ? पांच किलो गेंहू और एक किलो चने पर संतुष्ट समाज ऐसा ही होता है. अपना हक़ भी भीख मांग कर लेने वाले लोगों के लिए मोदी का कोई विकल्प नहीं है !

पूंजीपतियों के ऋण माफ़ी में कितना हिस्सा क्रिमिनल्स को मिला ?

ख़बर ये नहीं है कि क्रिमिनल लोगों की सरकार ने पूंजीपतियों के 16.4 लाख करोड़ रुपए के ऋण माफ कर दिए, सवाल ये है कि इसका कितना हिस्सा क्रिमिनल लोगों को मिला ?

इस प्रश्न के जवाब में ही क्रिमिनल लोगों की सरकार की अमरता और शक्ति का राज़ छुपा हुआ है. इतनी आसानी से उपभोक्तावाद और बाज़ारवाद के इस ज़माने में न्यायपालिका से लेकर चुनाव आयोग तक और कार्यपालिका से लेकर ईडी, सीबीआई तक सारे बिक नहीं जाते हैं.

जब सरकारी तंत्र को मालूम होता है कि उनका ग़ैर क़ानूनी इस्तेमाल क्रिमिनल लोगों की सरकार को जिलाए रखने के लिए किया जा रहा है तो वो अपनी क़ीमत ज़रूर वसूलेंगे. अब आप सारे शीर्षस्थ अफ़सरों को तो लोयागति नहीं दे सकते हैं.

यही हाल न्यायपालिका का भी है. दिल्ली हाईकोर्ट के जज के भ्रष्टाचार की कहानी तो सामने आ गई है, लेकिन मेरे अनुमान से न्यायपालिका का हर वो जज, जो किसी भी महत्वपूर्ण फ़ैसले में क्रिमिनल लोगों की सरकार के पक्ष में और जनविरोधी फैसलों के लिए कुख्यात है, वो सारे बिके हुए हैं.

लोया बनाने का एक नतीजा ये भी है कि अब जज लोया बनने से बेहतर अपनी क़ीमत वसूल कर जजमेंट देने में अपनी भलाई समझते हैं. यह ठीक उसी तरह की स्थिति है जैसे कि गौरी लंकेश की हत्या के बाद देश के सारे मूर्धन्य पत्रकार और प्रेस पैसे खाकर क्रिमिनल लोगों की सरकार के पट्टे गले में लटका कर आज़ादी के मृत महोत्सव का आनंद उठा रहे हैं. आख़िर बहती गंगा में हाथ धोने का मौक़ा जो मिला है, यूं ही कैसे जाने दें ?

इसलिए प्रधानमंत्री चोरी फ़ंड का ऑडिट नहीं होता है, चुनावी बांड ग़ैरक़ानूनी है, लेकिन सुप्रीम कोठा इस ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से अर्जित धन को ज़ब्त नहीं कर सकता है. इसलिए महाराष्ट्र सरकार ग़ैरक़ानूनी है, लेकिन सुप्रीम कोठा उसे बर्ख़ास्त नहीं कर सकता है. इसलिए अयोध्या की ज़मीन मस्जिद की है, लेकिन सुप्रीम कोठा उसे राम जन्मभूमि ट्रस्ट को दे देता है. इसलिए विपक्षी राजनेता करप्ट नहीं हैं, लेकिन ईडी सीबीआई उनको जेल भेजती है. हरि अनंत, हरि कथा अनंता !

2014 से जितने भी उदाहरण subversion of justice के हुए हैं, सारे उदाहरणों के पीछे जो भी व्यक्ति या संस्था दोषी है, उन सबके घरों से पैसों का पहाड़ ही निकलेगा. इसलिए, नोटबंदी के समय बाज़ार में जो 15 lac crores कैश उपलब्ध था, वह बढ़ कर आज 35 lac crores हो गया है, लेकिन रिजर्व बैंक कहता है कि बाज़ार और बैंकों में तरलता की कमी है.

पैसे कहां गए अब समझे ? इन साधारण बातों को जानने के लिए two plus two = four करना पड़ता है, किसी Grok की चरणों में लोटने की ज़रूरत नहीं है. India is a banana republic ruled by the worst ever criminals that Nature has ever allowed to creep upon this earth !

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ROHIT SHARMA

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