इस घने अंधेरे में
शब्दों की वे उंगलियां भी नहीं हैं
जिनके सहारे हम पहुंचते थे
तुम तक,
चौक-चौराहों तक,
जंगल और नदियोें तक,
किले के दरवाजे तक.
अब इस कमरे की खिड़कियां
खुलती हैं सिर्फ रेगिस्तान में
जहां शब्द मरीचिका की तरह
भागते हैं दूर अर्थ से
वे फौलादी शब्द भी
दूर हैं अपने अर्थ से
जो जंजीरें काटते थे
और फांसी पर चढ़ रहे भगत सिंह
के नारे को पहुंचाते थे
हजारों मील दूर तक
‘इंकलाब जिंदाबाद’
फरेब का आलम तो देखो !
जल्लाद ही चिल्लाने लगे हैं
इंकलाब जिंदाबाद
सील हुई सीमाओं पर
लिखा है
वसुधैव कुटुंबकम
और जेल की दीवारों पर
टंगे हैं आजादी के पोस्टर
सरकार की सख्त हिदायत है
कि गोली चलाने के पहले
सिपाही लोकतंत्र का नाम ले
चलो छुड़ा लाएं शब्दों को
रोशनी भरें उनमें
और दीपक की तरह जलाएं उन्हें
सुबह आने तक
- अनिल सिन्हा
[प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]