इस बार
शाम फिर से सुर्खियों में है
और जब जब शाम
सुर्ख़ियों में होती है
पिचके हुए गुब्बारों से पट जाता है
खेल का मैदान
एक विशाल परित्यक्त वेश्यालय की
बदरंग दीवार पर पीठ टिकाकर
अंतिम सांसे गिनता है समय
कुछ सरीसृप बेलौस चढ़ते हैं
सर कटे पेड़ों पर
और गह्वर में फुफकारते हैं विषधर
जानता हूं
शाम का यह दृश्य
सहसा हज़म नहीं होता
लेकिन दुपाए से चौपाए बनने की प्रक्रिया भी
आसान नहीं होती
नीले ब्रह्मांड की रोशनी में
छुप जाती है
पश्चात पसरण की असह्य पीड़ा उकेरता
आदमी का चेहरा
नदी में बहती अधजली अस्थियां
मछलियों का भोजन भी नहीं बनते
तुम चाहो तो बहा कर ले आओ शाम
सुर रिक्त स्वर में
परिंदे फिर भी नहीं लौटेंगे
सर कटे पेड़ों पर साथी
- सुब्रतो चटर्जी
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