2024 लोकसभा चुनाव में भाजपा के चुनावी घोषणा-पत्र में ‘मोदी की गारंटी’ 66 बार लिखी पाई गई, जबकि मंहगाई का ज़िक्र महज़ एक बार नज़र आता है. जब भाजपा, यह दावा करती है, ‘हमने कम मंहगाई और बड़ा विकास कर दिखाया !!’ मानो, देश में मंहगाई कोई मुद्दा ही ना हो !! जबकि, देश के 90% मेहनतक़श लोग, दिन में कई बार बोलते हैं, ‘उफ्फ मंहगाई ने मार डाला !!’ ‘जब मांग ज्यादा और सप्लाई कम होती है; तब दाम बढ़ते हैं, और जब इसका उल्टा, सप्लाई ज्यादा और मांग कम होती है; तब दाम घटते हैं’, यह ज्ञान देने के लिए व्यक्ति का अर्थशास्त्र का प्रोफ़ेसर होना ज़रूरी नहीं. हर बंदा जानता है. मंहगाई का मामला, आज क्या इतना सरल और सीधा रह गया है ?
देश के हर व्यक्ति के जीवन-मरण से जुड़ा, मंहगाई का मुद्दा, इतना सरल होता तो फ़सल के हर सीजन में दाम कम होते. अभी सेव की फ़सल आने वाली है; लेकिन दामों में बस मामूली कमी ही आएगी. किसी वस्तु के, उत्पादक से उपभोक्ता तक, पहुंचने की प्रक्रिया को ‘सप्लाई चेन’ कहते हैं. फ़सल आने के वक़्त, अगर सप्लाई चेन को पूरी तरह नियंत्रित कर लिया जाए, तो फसल के सीजन में भी सप्लाई कम ही बनी रहेगी, और दाम नीचे नहीं आ पाएंगे.
यह वित्तीय पूंजी का युग है, अर्थात औद्योगिक पूंजी और बैंकिंग पूंजी एक हो गए हैं. यह पूंजी इतनी विशालकाय हो गई है कि देश में उपजी किसी भी फ़सल को पूरे का पूरा ख़रीद सकती है. जमाखोरी कर, मुनाफ़ा कमाने की अमानवीय प्रथा तो पूंजीवाद के जन्म से ही है. ब्रिटिश गुलामी के दिनों में अनाज की जमाखोरी कर, भुखमरी, अकाल में, उसे मुंहमांगे दाम पर बेचकर ही तो बिड़ला, देश का पहला बड़ा पूंजीपति बना. इतिहास साफ़ बताता है.
छोटी, सीमित पूंजी और सरकार द्वारा जमाखोरी पर रोक; ये दो ही कारण थे, जो जमाखोरी की भयावहता को नियंत्रित रखते थे. पूंजी तो अब कोई मसला रह ही नहीं गया; वित्तीय पूंजी के पहाड़, इतने विशालकाय हो चुके कि निवेश के अवसर नहीं मिल रहे. दूसरा कारण, सरकार द्वारा जमाखोरी ना करने देना, ‘व्यवसाय की सुगमता’ सरकारी परियोजना के तहत चला गया. वैसे भी प्रधानमंत्री (मोदी) के शब्दों में, व्यवसाय के बीच में सरकार का क्या काम !!
ऊपर लिए गए, सेव के उदहारण को ही लें तो पूरी बात स्पष्ट हो जाएगी. पिछले सेव के सीजन में अडानी-अंबानी ने हिमाचल की सेव की लगभग पूरी की पूरी फसल ही खरीद ली थी, लेकिन कश्मीर के सेव उत्पादकों ने, उसे बेचने से मना कर दिया था. ट्रकों में भरकर वे अपने सेव को दिल्ली की आजादपुर मंडी और दूसरी फल मंडियों में ले जाने के लिए निकले तो उन ट्रकों को, सुरक्षा का मुद्दा बताकर रास्ते में तब तक अड़ाकर रखा गया, जब तक सेव के सड़ने के डर से वे उसी अडानी को बेचने के लिए तैयार नहीं हो गए. मीडिया में यह पूरी कहानी काफ़ी विस्तार से कवर हो चुकी है.
बात महज सेव तक सीमित नहीं रही. हर फ़सल का यही हाल है. ‘टमाटर 350/ प्रति किलो’, इस देश के लोगों ने पहली बार सुना !! लहसुन, प्याज, जीरा, हल्दी, इलायची, अदरक, खाने का तेल सभी जगह वही सेव वाला नियम काम करता है. स्वाभाविक रूप से फ़सल कमज़ोर होने से उत्पन्न होने वाली मंहगाई, कुछ प्रतिशत बढ़ा करती थी, कई गुना नहीं. मोदी सरकार द्वारा लाए गए, कृषि बिल पास हो जाते, तो नज़ारा और भी भयानक होता. मंहगाई, जिंदा रहने की आधारभूत वस्तुओं, जैसे गेहूं और चावल को भी अपनी चपेट में ले चुकी होती. अभी भी लेकिन नीतियां वही हैं, सभी खाद्य पदार्थों के दाम, मेहनतक़श मज़दूरों की पहुंच से बाहर ही हैं.
सरकार ने जमाखोरों पर छापे डाले हों, उन्हें जेलों में ठुंसा हो, क्यों कभी पढ़ने में नहीं आता ? सरकार को ऐसा करने को कहने वालों और सरकार ऐसा क्यों नहीं कर रही; ऐसे सवाल पूंछने वालों को जेलों में डाले जाने की ख़बरें बारहा पढ़ने को मिलती हैं. मंहगाई के विरुद्ध संघर्ष भी व्यवस्था परिवर्तन से जुड़ चुका है, क्योंकि ना वित्तीय पूंजी, फिर से उभरती औद्योगिक पूंजी में बदलने जा रही, और ना सरकार अपना रास्ता बदलने वाली.
सरकार पर, मंहगाई-बेरोज़गारी के विरुद्ध जन-आंदोलनों की आंच बढ़ाते रहने से सरकार को कुछ क़दम उठाने के लिए ज़रूर मज़बूर किया जा सकता है, जिससे फौरी राहत भी मिलेगी, लेकिन इन जानलेवा रोगों से छुटकारे का संघर्ष, व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई नाभिनाल-बद्ध हो चुका है.
मंहगाई के मुद्दे पर सरकार का काम है; उसे छुपाना, उससे ध्यान भटकाना
सरकार द्वारा, मुद्रा-स्फीति की दर बढ़ने के रूप में, मंहगाई बढ़ने की दर को, लोगों को सूचित करने का तरीका बहुत भ्रामक है, और यह अंजाने में नहीं, जान-पूछकर हो रहा है. उदाहरण के लिए, ‘जून 2024 में, ‘अखिल भारतीय उपभोक्ता मूल्य सूचकांक’, 5.08% था, जो मई 2023 को मौजूद सूचकांक, 4.7% से, 0.38% ज्यादा था’. ठेट सरकारी जुबान में बोली गई, इस लाइन से क्या कोई मेहनतक़श इंसान ये समझ पाएगा कि मई 23 से जून 24 के महज एक महीने के दौरान, उसके खान-पान, रहन-सहन पर क्या प्रभाव पड़ा ? उसे बस इतना लगेगा कि सरकारी भाषा में कुछ बताया गया, जो अर्थशास्त्रियों के मतलब की बात है, इससे उसका क्या सरोकार ? जबकि सरोकार उसी का है, बिलकुल सीधा और गंभीर है.
मई से जून 2024 में उसकी आय में कोई वृद्धि नहीं होगी जबकि थाली मंहगी हो गई. इसका परिणाम यह होगा कि उसकी थाली में मौजूद पदार्थ कम हो जाएंगे. मज़दूरों की थालियों में से तो एक-एक कर सभी पदार्थ गायब हो चुके हैं, ख़ुद थाली भी ग़ायब हो गई है !! खाने के नाम पर, अगर सूखी रोटी, उस पर अचार या चटनी ही हो, तो थाली की भी क्या झंझट; हाथ ही थाली बन जाता है. मंहगाई बताने का यह सरकारी तरीका बहुत ही भ्रामक है. जान-बूझकर ऐसा किया जा रहा है, जिससे लोगों का ध्यान मंहगाई पर जाए ही ना.
फोर्ब्स कंपनी ने एक शोध श्रंखला शुरू की है, जिसका नाम है, ‘इंडिया क्या खाता है (How India Eats) ?’. इस कंपनी ने, अक्टूबर 23 में, हमारे देश में आम आदमी की घर में तैयार हुई, खाने की थाली की क़ीमतों में एक साल (अगस्त 22–अगस्त 23) में हुई वृद्धि का शोध किया, तो पाया कि आम मध्य परिवार के घर बनी शाकाहारी थाली का लागत मूल्य, अगस्त 22 में, 27.2 रु था, जो अगस्त 23 में बढ़कर 33.8 रु हो गया. साल में कुल 24% की वृद्धि हुई. इसी एक साल में, कुछ वस्तुओं, जैसे खाद्य तेल तथा आलू की क़ीमतें अगस्त 23 में, अगस्त 22 के मुकाबले में कुछ कम हुईं. यह वृद्धि उस कमी को हिसाब में लेने के बाद हुई है.
मंहगाई जैसे लोगों की जिंदगी-मौत से सीधे जुड़े मुद्दे को, अगर आम जन-मानस को समझाना है, तो उसे इसी तरह से समझाना पड़ेगा. मुद्रा स्फीति अथवा जीडीपी वृद्धि दरें, जिस तरह बताई जाती हैं वह सरकारी किताबी तरीका है, जिसे असलियत बताने के लिए नहीं, बल्कि छुपाने की मंशा से अपनाया जाता है.
जुलाई 2014 में, सरकारी कर्मचारियों को मिलने वाला डीए, बेसिक का 107% था, जो जुलाई 2024 में बढ़कर, 217.8% हो गया. इसका मतलब है, पिछले दस सालों में, डीए, दो गुने से भी ज्यादा हो गया. संगठित, सरकारी, सार्वजनिक निकाय कर्मचारियों को तो, मंहगाई की भरपाई पूरी भी नहीं तो काफ़ी हद तक हो गई. लेकिन, ऐसे कर्मचारी तो कुल मज़दूरों का मात्र 4% ही है. बाक़ी 96% का क्या ? मेहनतक़श किसानों का क्या ? निजी क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों के डीए में, पिछले 10 सालों में शायद ही कोई बढ़ोत्तरी हुई हो, डबल होने का तो सवाल ही नहीं.
असंगठित और दिहाड़ी मज़दूरों के वेतन में तो कोई वृद्धि होती ही नहीं. ‘नॉन स्टॉप हरियाणा’ नाम से, हर रोज़ अख़बारों में, ‘अभूतपूर्व विकास’ के बड़े-बड़े विज्ञापन छपवा रही, हरियाणा की भाजपा सरकार के राज़ में, न्यूनतम मज़दूरी, दिल्ली से 42% कम है !! मज़दूर कैसे ‘नॉन स्टॉप’ जाएगा !!
दवा निर्माताओं को लूट की छूट देने में भाजपा-कांग्रेस एकमत हैं
मंहगाई का सबसे ज्यादा क़हर दवाइयों पर टूटा है. जब भी कोई दवा ख़रीदने मेडिकल स्टोर जाते हैं, पहले से ज्यादा पैसे देकर ही घर आते हैं. क्या कभी किसी ने यह घोषणा या सूचना पढ़ी कि फलां तारीख के बाद, अमुक दवाई की क़ीमतें बढ़ने जा रही हैं ? उत्तर है, नहीं. क्या दवाईयों की क़ीमतें, उत्पादक कंपनियां ख़ुद अपनी मर्ज़ी से, जब चाहें बढ़ा लेती हैं ? उत्तर है, हां. क्या उन्हें सरकार की ओर से क़ीमतें बढ़ाने की छूट मिली हुई है ? उत्तर है, हां !!
ये छूट देने की शुरुआत, यूपीए सरकार ने 2013 में ही दे दी थी. उसके बाद, भाजपा सरकार ने उस छूट की रुकावटों को दूर किया; पहले 2019 में और फिर 2022 में. राहुल गांधी नोट करें, दवा निर्माताओं को, मंहगाई-बेरोज़गारी-अपर्याप्त वेतन की, तिहरी मार से कराह रहे, लोगों की जेबें काटने की खुली छूट देने के मामले में, भाजपा और कांग्रेस में कोई मतभेद नहीं !!
दवाइयों के उत्पादन में इंडिया वाक़ई ‘विश्वगुरु’ है. हमें दुनिया की फार्मेसी कहा जाता है. देश के दवा व्यवसाय का आकार $60 बिलियन है, जिसके, 2030 तक $130 बिलियन हो जाने का अनुमान है. दुनिया की 20% दवाईयों, 40% टीकों, अमेरिका की दवाईयों का 40% तथा ‘संयुक्त राष्ट्र संघ शैक्षणिक, वैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक संगठन (UNESCO)’ की दवाईयों की कुल आवश्यकता की 60% दवाईयों का उत्पादन, इंडिया में ही होता है. इसकी वज़ह है, दुनिया में सबसे सस्ता श्रम हमारे ही देश में है, और इंसानी ज़िन्दगी की सबसे कम क़ीमत भी हमारे देश में ही है. दवा उत्पादन में ज़हरीले रसायन निकलते हैं, जिसे ज़मीन या नदियों में मिलाते जाने, ज़हरीला प्रदुषण फ़ैलाने की हमारे देश जैसी छूट दुनिया में कहीं नहीं है.
‘आवश्यक वस्तु क़ानून, 1955’ देश में पास हुआ, एक बेहतरीन क़ानून है. इसकी धारा 3 के तहत, 300 जीवनावश्यक दवाईयों के दाम, सरकार के लिखित आदेश के बगैर नहीं बढ़ाए जा सकते थे, और ना ही कोई निर्माता एक निश्चित सीमा से ज्यादा स्टॉक ही कर सकता था. इसका उल्लंघन करने वाले को सज़ा और उसका लाइसेंस रद्द हो जाने का प्रावधान भी था. दवाओं की क़ीमत संबंधी, इस क़ानून के प्रावधानों को, यूपीए सरकार ने, ‘ड्रग प्राइस कंट्रोल एक्ट, 2013’ पास कर, दवा कंपनियों को लूट की छूट देने का गुनाह किया. इस संशोधन के पैरा 16 (2) के अनुसार, दवाईयों के निर्माता, थोक मूल्य सूचकांक के अनुसार, अपने उत्पादों की क़ीमत, जब चाहें बढ़ा सकते हैं. इसके लिए उन्हें सरकार से अनुमति लेने की ज़रूरत नहीं.
इतना ही नहीं, दवाईयों की क़ीमतों पर नियंत्रण रखने का काम अब सरकार नहीं, बल्कि ‘नेशनल फार्मास्यूटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी’ करेगी. किसी क़ानून को प्राणहीन करने की यही पद्धति है. ऐसी ‘अथॉरिटी’, दरअसल, कॉर्पोरेट के इशारे पर नाचती हैं, रिटायर होकर या इस्तीफा देकर, ये लोग, इन कॉर्पोरेट के सीधे चाकर बन जाते हैं. दवाईयों की क़ीमतों में आग लगी हुई है; किसी दवा निर्माता पर, इस ‘अथॉरिटी’ ने कोई कार्यवाही की, किसी को याद आता है क्या ? 2013 में, इस घोर जन-विरोधी संशोधन को लाने की, इसके सिवा क्या वज़ह हो सकती है कि 2014 का लोकसभा चुनाव नज़दीक था !! दवा कंपनियां सबसे ज्यादा रिश्वत खिलाने के लिए कुख्यात हैं !!
मरीज़ों तथा दवा उत्पादकों के हितों में ‘सामंजस्य’ सिर्फ़ मोदी सरकार ही कर सकती है !!
2014 के बाद तो, लुटेरे कॉर्पोरेट का अमृत काल ही शुरू हो गया. ‘दवा (क़ीमत नियंत्रण) संशोधन क़ानून, 2019’ जनवरी 2019 में पास हुआ. फिर वही दिलचस्प इत्तेफ़ाक; अप्रैल 2019 में लोकसभा चुनाव थे !! इस संशोधन का मूल मन्त्र था – उत्पादक एवं उपभोक्ता, दोनों के हितों में सामंजस्य बिठाना !! विपरीत हितों वाली पार्टियों के हितों में एक साथ सामंजस्य बिठाने की जादूगरी, फ़ासिस्ट मोदी सरकार ही कर सकती है !! इसका मतलब होता है; उपभोक्ता के लिए लफ्फाजी तथा उद्योगपतियों की जी हुजूरी !! मोदी सरकार द्वारा पारित बाक़ी क़ानूनों की ही तरह इस क़ानून की भाषा भी लच्छेदार है; जैसे इन पंक्तियों के लेखक ने, अंग्रेज़ी का एक नया शब्द, ‘मोनोप्सोनी (ख़रीददार का एकाधिकार)’, इसी क़ानून को पढ़कर सीखा.
दवा निर्माता, कॉर्पोरेट मगरमच्छों को ये क़ानून इतना पसंद आया, कि भाजपा को सबसे ज्यादा चंदा दवा कंपनियों से ही प्राप्त हुआ. सबसे ज्यादा चुनाव बांड दवा कंपनियों ने ही ख़रीदे. इस क़ानून ने मुनाफ़ाखोर, बेईमान दवा निर्माताओं को, जो नकली दवाइयां बनाने, किसी भी आपदा या महामारी को अवसर बनाने से नहीं चूकते, लूट की खुली छूट दे दी. याद कीजिए, भगवा वस्त्रधारी ठग रामदेव, किस तरह ‘कोरोनिल’ जैसे फर्ज़ीवाड़े को, दो केन्द्रीय मंत्रियों के माध्यम से उस वक़्त ठेल रहा था, जब, हर तरफ़ लाशों के अम्बार लगे हुए थे, श्मशानघाट पर दिन-दिन भर इंतज़ार करना पड़ रहा था.
क्या सरकार, इन संशोधनों के बाद यह सुनिश्चित कर रही है कि औषधी निर्माता, अपनी दवाईयों की क़ीमतें थोक मूल्य सूचकांक के अनुरूप ही बढ़ा रहे हैं ? सरकार को दवाईयों के उन निर्माता कॉर्पोरेट पर इतना भरोसा क्यों है, जो अपने मुनाफ़े के लिए, जाली, घटिया दवाईयां ना सिर्फ़ घरेलू बाज़ार के लिए ठेलते रहते हैं, बल्कि जो निर्यात होने वाली दवाईयों, टीकों में फर्ज़ीवाड़े करते पकड़े जा चुके हैं ? दवाओं की बेतहाशा बढ़ी क़ीमतें ग़रीब मज़दूरों, मेहनतकशों की जान ले रही हैं.
मंहगाई की पीड़ा को व्यक्त करने वाला, इरशाद क़ामिल और आशीष साहू का लिखा, फिल्म चक्रव्यूह का, ये गाना आज हर रोज़ याद आता है –
भैय्या देख लिया है बहुत तेरी सरदारी रे
अब तो हमरी बारी रे, ना..
मंहगाई की महामारी ने हमरा भट्टा बिठा दिया
चले ग़रीबी हटाने, ग़रीबों को हटा दिया
सरबत की तरह देश को गटका है गटा गट
आम आदमी की ज़ेब हो गई है सफा चट…
- सत्यवीर सिंह
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