
कांशीराम इलाहाबाद संसदीय सीट से 1988 के उप चुनाव में कांग्रेस को हराने के लिए आरएसएस-बीजेपी के एक एजेंडा के तहत चुनाव लड़ते हैं. इस चुनाव में तीसरे स्थान पर रहते हुए कांशीराम को लगभग 70 हजार मत मिले थे. कांशीराम की सारी चुनाव सामग्री आदि का प्रबंधन बीजेपी नेता केसरी नाथ त्रिपाठी के इलाहाबाद के सर्कुलर रोड स्थित घर से होता था. यद्यपि चुनाव कार्यालय अलग था.
एस. आर. दारापुरी जी लिखते हैं – दरअसल दो जून, 1995 की घटना वैसी नहीं थी जैसा कि प्रचारित किया गया है. इसकी असली कहानी यह थी कि कांशी राम, मुलायम सिंह से पैसे की अपेक्षा कर रहे थे, क्योंकि उन को मालूम था कि हरेक मुख्यमंत्री को काफी अच्छी आमदनी होती है. यह कहा जाता है कि मुख्यमंत्री को कुछ विभागों जैसे पी.डब्ल्यू.डी., सिंचाई, ऊर्जा और कुछ अन्य विभागों से बंधी बंधाई रकम मिलती है.
1993 में सपा और बसपा की मिली-जुली सरकार थी. अतः कांशी राम, मुलायम सिंह से इसमें हिस्सेदारी चाहते थे. कांशी राम, मुलायम सिंह से सीधे पैसे न मांगकर बाहर उसकी आलोचना करते थे. जब मुलायम सिंह उन्हें कुछ दे देते थे, तो वह यह कह कर दिल्ली चले जाते थे कि अब मुलायम सिंह समझ गए हैं और वह ठीक काम करेंगे. यह सिलसिला कई महीनों तक चलता रहा, परन्तु कांशी राम के ब्लैकमेल करने के तौर तरीके में कोई अंतर नहीं आया.
वैसे अक्लमंदी की बात तो यह थी कि गठबंधन की सरकार में उन्हें मुलायम सिंह से अन्दर बैठ कर हिस्सा पत्ती तय कर लेनी चाहिए थी परन्तु तजुर्बे की कमी की वजह से उन्होंने ऐसा नहीं किया. मुलायम सिंह जो कि राजनीति के पुराने खिलाड़ी थे, ने सोचा कि क्यों न कांशी राम का ‘खाने और गुर्राने’ का खेल ही खत्म कर दिया जाये. उन्होंने बसपा के विधायकों को तोड़ना और खरीदना शुरू कर दिया और बसपा के 69 विधायकों में से लगभग 40 विधायकों को तोड़ लिया.
29 मई, 1995 को कांशी राम लखनऊ आये तो उन्होंने अपनी पार्टी के विधायकों की मीरा बाई मार्ग स्थित अतिथि गृह में मीटिंग बुलायी, पर उसमें बड़ी संख्या में विधायक हाज़िर नहीं हुए. जांच पड़ताल करने पर कांशी राम को पता चला कि मुलायम सिंह ने उनकी पार्टी के लगभग 40 विधायकों को तोड़ लिया है और वह सरकार गिरा कर नयी सरकार बना लेंगे.
इसपर कांशी राम तुरंत दिल्ली वापस गए और उन्होंने भाजपा के नेताओं से बातचीत की कि अगर वह बसपा को समर्थन देने को तैयार हों तो वह मुलायम सिंह की सरकार गिरा देंगे और मायावती को मुख्यमंत्री बनाया जायेगा. उस समय भाजपा, मुलायम सिंह से बहुत त्रस्त थी और वह किसी भी तरह से दलित-मुस्लिम-पिछड़ा गठबंधन को तोड़ना चाहती थी.
यह ज्ञातव्य है कि 1993 में जिस शाम गवर्नर हाउस में सपा-बसपा सरकार का शपथ ग्रहण हुआ था उस रात वहां पर ‘मिले मुलायम कांशी राम, हवा में उड़ गया जय श्रीराम’ के नारे लगे थे और राजनीति में दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों के गठबंधन की नयी शुरुआत हुयी थी. इससे इन वर्गों में एक नए उत्साह का सृजन हुआ था और सवर्ण जातियों के लिए एक बड़ी चुनौती पैदा हुयी थी. पूरे देश में इस गठबंधन की ओर बड़ी आशा से देखा जा रहा था. परन्तु पैसे के झगड़े ने इस समीकरण को तहस-नहस कर दिया. भाजपा ने कांशी राम का प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया.
भाजपा से समर्थन मिल जाने पर पहली जून को मायावती लखनऊ पहुंची और दो जून को उन्होंने बसपा के विधायकों की मीराबाई मार्ग स्थित अतिथि गृह के कॉमन हाल में मीटिंग बुलाई और सभी विधायकों को अपने-अपने इस्तीफे पर हस्ताक्षर करके देने को कहा.
इसी बीच मुलायम सिंह के खेमे में यह खबर पहुंच गयी कि बसपा समर्थन वापस लेकर सरकार गिराने जा रही है और अहमदाबाद जहां उस समय भाजपा की सरकार थी, से एक हवाई जहाज़ लखनऊ आ रहा है जो बसपा के विधायकों को अहमदाबाद ले जायेगा. इस पर मुलायम सिंह के समर्थकों ने मुलायम सिंह को समझाया कि चिंता करने की कोई बात नहीं क्योंकि हम बसपा के विधायकों, जिनके साथ पहले ही सौदा पट चुका था, को गेस्ट हाउस से उठा ले आयेंगे.
इस पर वे गाड़ियां लेकर मीराबाई मार्ग गेस्ट हाउस पहुंचे और कॉमन हाल में से उन विधायकों को उठा कर गाड़ियों में बैठाने लगे. उस समय मायावती गेस्ट हाउस के कमरा नंबर एक में कुछ विधायकों के साथ बैठी थी और बाहर हल्ला-गुल्ला सुनकर उसने अपने कमरे का दरवाज़ा बंद कर लिया.
उस समय वहां पर आईटीबीपी की सुरक्षा गारद लगी हुयी थी. बाद में जब मैंने उस समय वहां पर तैनात पुलिस अधिकारियों से घटना के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि वहां पर एकत्र हुई भीड़ ने मायावती के बारे में कुछ अपशब्द तो ज़रूर कहे थे, परन्तु उन पर किसी प्रकार का कोई हमला नहीं किया गया था जैसा कि मायावती द्वारा प्रचारित किया गया. उन्होंने मुझे बताया था कि वहां पर तैनात गार्ड ने किसी को भी मायावती के कमरे तक नहीं जाने दिया था.
उसी समय पूर्व योजना के अंतर्गत भाजपा ने गेस्ट हाउस की घटना को लेकर राज्यपाल के कार्यालय पर धरना दे दिया जिसके फलस्वरूप मुलायम सिंह की सरकार बर्खास्त कर दी गयी और भाजपा के समर्थन से मायावती मुख्यमंत्री बन गयी. इन तथ्यों से स्पष्ट है कि मायावती पर गेस्ट हाउस पर उस पर जानलेवा हमला किये जाने की बात बिलकुल गलत है और यह केवल मामले को तूल देने के लिए कही गयी थी.
इस घटना से लाभ उठा कर मायावती मुख्यमंत्री तो बन गयी. भाजपा ने इस मौके का पूरा फायदा उठाया और मायावती की कुर्सी और पैसे की भूख के कारण तीन बार गठबंधन करके उत्तर प्रदेश में अपने को पुनर्जीवित कर लिया. यदि देखा जाये तो उत्तर प्रदेश में भाजपा को पुनर्जीवित करने का सारा श्रेय बसपा को ही जाता है. मायावती ने तो 2001 में गुजरात जा कर मोदी के पक्ष में चुनाव प्रचार भी किया था. अब भी मायावायी भाजपा सरकार को समर्थन दे रही है.
यह सर्विदित है कि कांशी राम ने दलितों की लामबंदी तो ‘बाबा तेरा मिशन अधूरा, कांशी राम करेंगे पूरा’ के नारे से की थी. पर क्या उन्होंने बाबासाहेब की राजनीति के मिशन को कभी परिभाषित भी किया ? क्या उन्होंने बाबासाहेब की सैद्धांतिक तथा एजेंडा आधारित राजनीति का अनुसरण किया ? क्या उन्होंने बाबासाहेब की जनांदोलन आधारित राजनीति को कभी अपनाया ? क्या उन्होंने दलितों की भूमिहीनता को लेकर कोई भूमि आन्दोलन किया तथा स्वयं चार बार सत्ता में आने पर भूमि का आवंटन किया ? क्या उन्होंने अपने नारे ‘जो ज़मीन सरकारी है, वो ज़मीन हमारी है’ के नारे को चार बार सत्ता में आने पर (भी) लागू किया ?
मायावती सरकार ने तो 2008 में दलित-आदिवासियों को वनाधिकार कानून के अंतर्गत भूमि आवंटित न करके सबसे बड़ा अन्याय किया है, जिस कारण आज लाखों दलित-आदिवासी बेदखली का दंश झेल रहे हैं.
क्या कांशी राम ने कभी दलित एजेंडा बनाया अथवा जारी किया था ? क्या उन्होंने ‘राजनीतिक सत्ता सब समस्यायों की चाबी है’ का इस्तेमाल दलितों के विकास के लिए किया जैसा कि बाबासाहेब के इस नारे के दूसरे हिस्से में निहित ‘इसका (राजनीतिक सत्ता) का इस्तेमाल समाज के विकास के लिए किया जाना चाहिए’, किया ?
क्या उन्होंने बाबासाहेब द्वारा आगरा के भाषण में दलितों की भूमिहीनता को दलितों की सबसे बड़ी कमजोरी के रूप में चिन्हित कर बाबासाहेब की तरह अपने जीवन के शेष भाग में दलितों को ज़मीन दिलाने के लिए संघर्ष करने का आवाहन किया ? मेरे ज्ञान में इन सब सवालों का उत्तर ‘नहीं’ में ही है.
यह सर्वविदित है कि बाबासाहेब ने कभी भी जाति के नाम पर वोट नहीं मांगा था. उनकी सारी राजनीति वर्गहित पर आधारित थी. बाबासाहेब ने स्वयं कहा था, ‘जो राजनीति वर्गहित की बात नहीं करती वह धोखा है.’
बाबासाहेब ने जो भी पार्टियां (स्वतंत्र मजदूर पार्टी, शैडयूल्ड कास्ट्स फेडरेशन आफ इंडिया तथा रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया) बनायीं उन सबका विस्तृत रेडिकल एजंडा था. उसमें दलित, मजदूर, किसान, भूमि आवंटन, महिलाएं, उद्योगीकरण, शिक्षा तथा स्वास्थ्य सुविधाएं आदि प्रमुख मुद्दे रहते थे. इनमें ऐतहासिक तौर पर वंचित वर्गों जैसे दलितों, आदिवासियों तथा पिछड़ों के उत्थान के लिए विशेष व्यवस्थाएं करने की घोषणा भी थी.
बाबासाहेब की सभी पार्टियों ने समय समय पर भूमि आवंटन के लिए भूमि आन्दोलन चलाए थे, जिनमें सबसे बड़ा अखिल भारतीय आन्दोलन रिपब्लिकन पार्टी द्वारा 6 दिसंबर 1964 से जनवरी 1965 तक चलाया गया था. इस भूमिं आंदोलन के दौरान 3 लाख से अधिक पार्टी कार्यकर्ताओं ने गिरफ्तारी दी थी तथा तत्कालीन कांग्रेस सरकार को बाध्य हो कर भूमि आवंटन, न्यूनतम मजदूरी तथा ऋण मुक्ति आदि मांगें माननी पड़ी थीं. क्या कांशी राम ने इन मुद्दों को लेकर कभी कोई जनांदोलन चलाया ?
दरअसल कांशी राम ने बाबासाहेब की जनांदोलन तथा एजेंडा आधारित राजनीति को ख़त्म करके अवसरवादी तथा सौदेबाजी की राजनीति को स्थापित किया. क्या आज कांशी राम की सिद्धांतविहीन, मुद्दाविहीन तथा अवसरवादी राजनीति का खामियाजा दलित भुगत नहीं रहे है ? क्या कांशी राम ने सत्ता के लालच में घोर दलित भाजपा से तीन बार हाथ नहीं मिलाया था ?
क्या कांशी राम ने उन दलित विरोधी गुंडों तथा माफियाओं को टिकट नहीं दिए थे जिनसे दलितों की लडाई थी ? क्या यह कहना सही है कि कांशी राम का मिशन तो सही था पर मायावती उससे भटक गयी है ?यदि निष्पक्ष होकर देखा जाए तो ऐसा कहना बिलकुल गलत है क्योंकि मायावती ने तो कांशी राम के एजेंडा को ही पूरी ईमानदारी से आगे बढाया है.
मायावती पर टिकट बेचने का जो आरोप है, पर उसकी शुरुआत कांशी राम ने 1994 में जयंत मल्होत्रा पूंजीपति को राज्य सभा का टिकट बेच कर की थी. यह बात कांशी राम ने मेरे सामने स्वीकार भी की थी. उसी बातचीत में कांशी राम ने दलित मुद्दों को लेकर जनांदोलन न करने का कारण दलित लोगों के कमज़ोर होने को बताया था और कहा था वे पुलिस का डंडा नहीं झेल पाएंगे. जिस पर मैंने कहा था कि जब तक दलित पुलिस का डंडा नहीं खायेगे तब तक वे कमज़ोर ही बने रहेंगे.
इसी तरह बौद्ध धर्म परिवर्तन के बारे में उनका कहना था कि इससे कोई फायदा नहीं है, इसीलिए शायद उन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण नहीं किया था. (वैसे बौद्ध धर्म तो मायावती ने भी ग्रहण नहीं किया है पर यह उसका व्यक्तिगत मामला है.) .
दलित एजेंड के बारे में कांशी राम ने बताया था कि हम ने तैयार तो कर रखा है पर वह दिल्ली में तालाबंद है, क्योंकि उन्हें डर था कि उसे आऊट करने पर दूसरे लोग उसे चुरा कर लागू कर देंगे. शायद इसी लिए उन्होंने कभी चुनावी घोषणा पत्र तक जारी नहीं किया था. उनका कहना था कि हमें जो कुछ भी करना है, वह सत्ता में आकर ही करेंगे.
क्या कांशी राम मार्का अवसरवादी, सत्तालोलुप एवं सिद्धान्तहीन राजनीति भाजपा की वर्तमान हिन्दुत्ववादी कार्पोरेट समर्थित राजनीति का जवाब हो सकती है ? क्या पूर्व की जाति एवं सम्प्रदाय की बहुजन राजनीति ने भाजपा की हिन्दुत्ववादी राजनीति को ही अपरोक्ष रूप से सुदृढ़ नहीं किया है ?
प्रसिद्ध दलित साहित्यकार कंवल भारती ने मायावती और कांशीराम की बसपा पर हमला बोलते हुए अपने फेसबुक पर लिखा कि –
‘मैं 1996 से कहता आ रहा हूं कि कांशीराम और मायावती की सारी राजनीति भाजपा को मजबूत करने वाली है. इस संबंध में मेरी दो किताबों (कांशीराम के दो चेहरे और मायावती और दलित आंदोलन) को खूब गरियाया जाता है, सम्यक और गौतम बुक वाले इन किताबों के नाम से ही चिढ़ते हैं, इन्हें बेचना तो दूर.’ पर आज तक किसी आलोचक ने इन किताबों में उठाए गए मेरे सवालों का जवाब नहीं दिया है.
मैं अब भी कह रहा हूं कि कांशीराम के आंदोलन की पूरी रूपरेखा आरएसएस ने बनाई थी, सारा पैसा आरएसएस ने खर्च किया था, मकसद था देश में पिछडे वर्ग को रोकना, बैकवर्ड वोटों में बिखराव करना.
- सगाजन राजेश अहीर
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